हड़प्पा सभ्यता की कला

हड़प्पा सभ्यता की कला के अन्तर्गत प्रस्तर मूर्तियां, धातु मूर्तियां, मृण्मूर्तियां, मुहरें, मनके, मृद्भांड आदि का उल्लेख किया जाता है।

1-प्रस्तर मूर्तियां

मोहनजोदड़ो से एक दर्जन तथा हड़प्पा से तीन प्रस्तर मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। अधिकांश मूर्तियां खण्डित है। प्रस्तर मूर्तियों में मोहनजोदड़ो से प्राप्त योगी अथवा पुरोहित की मूर्ति महत्वपूर्ण है। योगी के मूछें नहीं हैं किंतु दाढ़ी विशेष रूप से सँवारी गयी है। योगी के नेत्र अधखुले हैं तथा उसकी दृष्टि नाक पर टिकी हुई है। ये बायें कंधे को ढकते हुए तिपतिया छाप वाली साल ओढ़े हुए है। यह मूर्ति सेलखड़ी की बनी हुई है।

मोहनजोदड़ो से प्राप्त कुछ अन्य पाषाण निर्मित पशुमूर्तियां भी कलात्मक दृष्टि से उच्च कोटि की हैं। इसमें चुना पत्थर से बनी भेड़ा की मूर्ति तथा भेड़ा और हाथी की संयुक्त मूर्ति प्रमुख है। इस मूर्ति में शरीर और सींग भेड़ा का तथा सूंड हाथी का है। हड़प्पा से मिली तीन प्रस्तर मूर्तियों में से एक मूर्ति नृत्यरत युवक की है।

2-धातु मूर्तियां

 धातु मूर्तियों में ढलाई की जिस विधि का प्रयोग किया जाता था। उसे प्राचीन साहित्य में “मधूच्छिष्ट विधि” कहा जाता था। मोहनजोदड़ो के H. R. क्षेत्र से प्राप्त 11.5 सेमी. लम्बी नर्तकी की काँस्य मूर्ति अत्यन्त प्रसिद्ध है। आभूषणों को छोड़कर यह मूर्ति बिल्कुल नग्न है। मोहनजोदड़ो से काँसे की भैंसा और भेड़ा की मूर्तियां भी मिली हैं।

 चन्हूदड़ो से बैलगाड़ी व इक्का गाड़ी की मूर्तियां मिली हैं। कालीबंगा से मिली तांबे की वृषभ मूर्ति उल्लेखनीय है। लोथल से तांबा धातु से निर्मित कुत्ते की मूर्ति मिली है। इसी प्रकार दैमाबाद से काँसे का एक रथ प्राप्त हुआ है।

3-मृण्मूर्तियां

 सिन्धु सभ्यता में मृण्मूर्तियों का निर्माण ज्यादातर “चिकोटी विधि” से किया जाता था। मृण्मूर्तियां पुरुषों, नारियों और पशु-पक्षियों की प्राप्त हुई हैं। मानव मृण्मूर्तियां ठोस हैं जबकि पशु-पक्षियों की मूर्तियां प्रायः खोखली हैं। सबसे ज्यादा मृण्मूर्तियां पशु-पक्षियों की प्राप्त हुई हैं। मानव मूर्तियों में सबसे ज्यादा मूर्तियां स्त्रियों की हैं। नारी मृण्मूर्तियों में भी कुँवारी नारी मृण्मूर्तियां सर्वाधिक प्राप्त हैं।

नारी मृण्मूर्तियां अधिकांशतः भारत के बाहर के स्थलों जैसे मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हूदड़ो आदि से प्राप्त हुई हैं। केवल हरियाणा के बनावली से दो नारी मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। मोहनजोदड़ो के D. K. क्षेत्र से पुरुष मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।

पशु-पक्षियों की मृण्मूर्तियों में बैल, भैंसा, भेड़ा, बकरा, कुत्ता, हाथी, बाघ, भालू, सुअर, खरगोश, बन्दर, मोर तोता, कबूतर, बत्तख, मुर्गा, चील और उल्लू आदि की मृण्मूर्तियां मिली हैं। कूबड़ वाले बैल की तुलना में बिना कूबड़ वाले बैल की मृण्मूर्तियां अधिक संख्या में मिली हैं। परन्तु यहाँ से एक भी गाय की मृण्मूर्ति प्राप्त नहीं हुई है।

4-मुहरें

सैन्धव मुहरें अधिकांशतः सेलखड़ी की बनी होती थी। कांचली मिट्टी, गोमेद, चर्ट की बनी हुई मुहरें भी मिलती हैं। लोथल और देशलपुर से ताँबे की बनी हुई मुहरें भी मिली हैं। इन मुहरों का आकार, आयताकार या वर्गाकार होता था। मुहरों का सबसे प्रचलित आकर 2.8 सेमी.×2.8 सेमी. था।

यहाँ से प्राप्त मुहरों पर एक श्रृंगी पशु, कूबड़ वाला बैल, हाथी, भैंसा आदि का अंकन मिलता है। सबसे अधिक संख्या में श्रृंगी पशु का अंकन मिलता है। लेकिन कला की दृष्टि से सबसे उत्कृष्ट मूर्ति कूबड़ वाले साँड़ की है।



मोहनजोदड़ो से प्राप्त पशुपति शिव की मुहर महत्वपूर्ण है। इस मुहर में एक त्रिमुखी पुरुष को एक चौकी पर योग की मुद्रा में दिखाया गया है। उसके दाहिनी ओर एक हाथी तथा एक बाघ और बायीं ओर एक भैंसा तथा एक गैंडा खड़े हुए हैं। चौकी के नीचे दो हिरन खड़े हैं। लोथल तथा मोहनजोदड़ो की कुछ मुहरों पर नाव का चित्र भी अंकित है।

5-मनके

चन्हूदड़ो तथा लोथल से मनके बनाने के कारखाने प्राप्त हुए हैं। सर्वाधिक संख्या में सेलखड़ी पत्थर से निर्मित मनके प्राप्त हुए हैं। बेलनाकार मनके सैन्धव सभ्यता में सर्वाधिक लोकप्रिय थे।

6-मृद्भांड

मृद्भांड लाल या गुलाबी रंग के थे। इन पर काले रंग से अलंकरण किया गया था। अलंकरण में पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों चित्रों तथा ज्यामितीय आकृतियों का प्रयोग किया जाता था। इन पर हड़प्पन लिपि भी मिलती है।

7-हड़प्पा सभ्यता की लिपि

सैन्धव सभ्यता का ज्ञान मुख्यता मुहरों, मृद्भांडों तथा ताम्र गुटिकाओं पर मिलता है। इस लिपि का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 में मिला पर स्पष्ट रूप से यह लिपि 1923 में प्रकाश में आयी। इस लिपि में लगभग 64 मूल चिन्ह हैं तथा 400 से 500 तक चित्राक्षर (पिक्टोग्राफ) हैं।

यह लिपि दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। जब अभिलेख एक से अधिक पंक्ति का होता था तो पहली पंक्ति दायीं से बायीं ओर तथा दूसरी पंक्ति बायीं से दायीं ओर लिखी जाती थी। यह लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है। इसके न पढ़े जाने का कारण किसी भी द्विभाषिया लेख का न मिलना है। सिन्धु सभ्यता की लिपि चित्रात्मक थी।

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