मध्य पाषाण काल का जीवन

मध्य पाषाण काल का प्रारम्भ 10 हजार ईसा पूर्व से माना जाता है। तापक्रम के क्रमिक रूप से बढ़ने के कारण मौसम गर्म तथा सूखा होने लगा। इससे मनुष्य का जीवन प्रभावित हुआ, पशु-पक्षी तथा पेड़ पौधों की किस्मों में भी परिवर्तन हुआ। जिससे शिकार करने की तकनीकि में परिवर्तन हुआ।

मनुष्य अब छोटे जानवरों का भी शिकार करने लगा था। अतः औजार बनाने की तकनीकि में भी परिवर्तन हुआ। अब मानव छोटे पत्थरों का उपयोग करने लगा था। ये भौतिक तथा पारिस्थितिक परिवर्तन उस समय पत्थरों पर की गयी चित्रकारी में प्रतिबिम्बित होते हैं।

भारत में मानव के अस्थि पंजर सर्वप्रथम मध्य पाषाण काल से ही प्राप्त होते हैं। सराय नाहर तथा महदहा से बड़ी मात्रा में नर कंकाल मिले हैं।

मध्य पाषाण काल के प्रमुख औजार

इस काल में “फ्लूटिंग” तकनीकि से औजार निर्मित किये जाते थे। मध्य पाषाण युग के औजार छोटे पत्थरों से बने हुए हैं। इनको “माइक्रोलिथ” या सूक्ष्म पाषाण कहा गया है। इनकी लम्बाई 1 से 8 सेमी. तक है। कुछ स्थलों से हड्डी तथा सींग से निर्मित उपकरण भी मिले हैं।

पाषाण काल के उपकरण चर्ट, फ्लिंट, कैल्सिडोनी, स्फटिक, जैस्पर तथा अगेट जैसे कीमती पत्थरों से निर्मित हैं। कुछ सूक्ष्म औजारों का आकार ज्यामितीय है। जैसे-ब्लेड, क्रोड, त्रिकोण, नव चन्द्राकर आदि।

मध्य पाषाण कालीन प्रमुख स्थल

भारत में मध्य पाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम  1857 ई. में हुई, जब सी. एल. कार्लाइल ने विन्ध्य क्षेत्र से लघु पाषाण उपकरण खोजें। इसके पश्चात देश के विभिन्न भागों में इस प्रकार के स्थल खोजे गये।

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

1-राजस्थान में मिले मध्य पाषाण काल के प्रमुख स्थल

पचपद्र नदी घाटी तथा सोजत इलाका

यहाँ से बड़ी मात्रा में सूक्ष्म औजार मिले। इस क्षेत्र में पाई गई एक महत्वपूर्ण बस्ती “तिलवारा” में दो सांस्कृतिक चरण पाये गये। प्रथम चरण मध्य पाषाण काल का प्रतिनिधित्व करता है, तथा इस चरण की विशेषता सूक्ष्म औजारों का पाया जाना है। दूसरे चरण में इन सूक्ष्म औजारों के साथ चाक पर बने हुए मिट्टी के बर्तन तथा लोहे के टुकड़े पाये गये है।

बागौर

भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के तट पर स्थित, यह भारत का सबसे बड़ा मध्य पाषाणिक स्थल है। सन 1967 से 1970 तक वी. एन. मिश्र ने यहाँ उत्खनन कार्य करवाया। यहाँ पर तीन सांस्कृतिक अवस्थायें पायी गयी।

कार्बन डेटिंग तकनीक द्वारा प्रारम्भिक सांस्कृतिक अवस्था का समय 5 हजार ईसा पूर्व से 2 हजार ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है।

यहाँ से एक मानव कंकाल मिला है तथा तीनों सांस्कृतिक अवस्थाओं से सम्बन्धित कब्रें भी प्राप्त हुई हैं। यहाँ का उद्योग मुख्य रूप से फलकों पर आधारित था। पत्थर की वस्तुओं में छल्ला पत्थर भी शामिल था।

2-गुजरात से प्राप्त मध्य पाषाण कालीन स्थल

लंघनाज

इसका उत्खनन एच. डी. शांकलिया द्वारा करवाया गया। इस स्थल की विशेषता यह है कि शुष्क क्षेत्र में स्थित यह पहला स्थल है जिससे मध्य पाषाणिक संस्कृति के विकास के क्रम का पता चलता है। यहाँ पर 100 से अधिक पाषाणिक स्थल मिले हैं।

पुरा पाषाणकाल की जीवन शैली

लंगनाज में तीन सांस्कृतिक अवस्थायें पायी गयी। इस स्थान से सूक्ष्म पाषाण उपकरण, कब्रें तथा पशुओं की हड्डियां मिली। तथा 14 मानव कंकाल भी प्राप्त हुए।

3-उत्तर प्रदेश में मिले मध्य पाषाण कालीन स्थल

सराय नाहर

प्रतापगढ़ जिले में स्थित यह स्थल अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका उत्खनन जी. आर. शर्मा द्वारा करवाया गया। यहाँ पर एक छोटी बस्ती के साक्ष्य मिले हैं, बड़ी मात्रा में मानव कंकाल तथा कुछ अस्थि व सींग निर्मित उपकरण भी मिले हैं। समाधिस्थल में शवों का सिर पश्चिम की ओर तथा पैर पूर्व की रखे हुए मिले हैं। इससे स्पष्ट होता है कि इस काल में मृतक संस्कार विधि प्रचलित हो गई थी। इसके अतिरिक्त यहाँ से अनेक छोटी भट्टियां, एक सामुदायिक बड़ी भट्टी, कई कब्रें व स्तम्भ गर्त के साक्ष्य मिले हैं।

महदहा

यहाँ से स्तम्भ-गर्त ( रहने के फर्श पर ऐसे गर्त जिनमें स्तम्भ गाड़े गये हो और उन पर छत बनाई गई हो।) तथा हड्डियों की अनेक कलात्मक वस्तुयें पायी गयी हैं। जिनमें मृग श्रृंग के छल्लों की माला और हड्डियों के आभूषण प्रमुख हैं। यहाँ पर अनेक ऐसे शवाधान मिले हैं जिनमें दो व्यक्तियों को एक साथ दफनाया गया है।

दमदमा- इस स्थान से 41 मानव शवाधान तथा कुछ गर्त चूल्हे प्राप्त हुए।

लेहखइया- 17 नर कंकाल शवाधान मिले जिनमें से अधिकांश के सिर पश्चिम की ओर थे।

4-मध्य प्रदेश से प्राप्त मुख्य स्थल

आदमगढ़

होशंगाबाद जिले में स्थित आदमगढ़ शैलाश्रय समूह में 25 हजार सूक्ष्म पाषाण औजार प्राप्त हुए है। यहाँ का प्रस्तर उद्योग एक और धार वाले फलकों पर आधारित था।

मध्य पाषाण कालीन जीवन शैली

 

इस युग के लोगों का जीवन भी शिकार पर अधिक निर्भर था। इस समय तक लोग बड़े पशुओं में गाय, बैल, भेड़ बकरी व भैंसे आदि का शिकार करने लगे थे। मध्य पाषाण काल के अन्तिम चरण तक ये लोग मृदभांडों का निर्माण करना सीख गये थे।

सराय नाहर तथा महदहा से मिली समाधियों से ज्ञात होता है इस काल के लोग मृतक संस्कार विधि से परिचित हो गये थे। ये अपने मृतकों को समाधियों में गाड़ते थे तथा उनके साथ खाद्य सामग्रियां तथा औजार भी रखते थे। इससे स्पष्ट होता है कि सम्भवतः ये परलोक शक्ति पर विश्वास करने लगे थे।

पत्थर की गुफाओं पर बनाये गये चित्रों से मध्य पाषाण काल के जीवन और आर्थिक क्रिया कलाप से सम्बन्धित जानकारी मिलती है। भीमबेटका, आदमगढ़, मिर्जापुर  आदि स्थल मध्य पाषाण कालीन चित्रकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इन चित्रों से शिकार करने, भोजन जुटाने, मछली पकड़ने एवं अन्य मानवीय क्रिया कलापो की झलक मिलती है।

नव पाषाण युग

आदमगढ़ शैलाश्रय में बने गैंडे के शिकार वाले चित्र से पता चलता है कि बड़े जानवरों का शिकार बहुत से लोग मिलकर किया करते थे। चित्र बनाने में गहरे लाल, हरे, सफेद और पीले रंगों का उपयोग किया जाता था। मध्य पाषाण काल के अन्तिम चरण में कुछ साक्ष्यों के पर प्रतीत होता है कि लोग पशुपालन की ओर आकर्षित हो रहे थे। मानव अस्थिपंजर के साथ कही कही पर कुत्ते के अस्थिपंजर मिले हैं जिससे प्रतीत होता है कि ये मनुष्य के प्राचीन सहचर हैं।

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