नव पाषाण काल

नवपाषाण शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सर जान लुबाक ने अपनी पुस्तक प्री-हिस्टारिक टाइम्स में किया था। माइल्स वर्किट ने नवपाषाण काल की शुरुआत उस समय से मानी है। जब मानव ने कृषि कार्य करना, पशुओं का पालन करना, पत्थर के औजारों का घर्षण और उन पर पॉलिश करना तथा मृद्भाण्ड बनाना प्रारम्भ कर दिया था।

आधुनिक मान्यताओं के अनुसार नवपाषाण शब्द उस संस्कृति का द्योतक है जब यहाँ के रहने वालों ने अनाज उगाकर तथा पशुओं को पालतू बनाकर भोजन के पर्याप्त साधन जुटा लिए थे। तथा एक स्थान पर रहकर जीवन बिताना शुरू कर दिया था तथा प्रस्तर औजारों को अधिक विकसित कर लिया था।

एक स्थान पर टिककर जीवन बिताने के आधार पर ग्राम समुदायों की शुरुआत हुई। इस प्रकार कृषि प्रौद्योगिकी की भी शुरुआत हुई तथा प्राकतिक साधनों का अधिक दोहन शुरू हुआ।

इस काल की समय सीमा 3500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व मानी जाती हैं। यूनानी भाषा में “Neo” शब्द का अर्थ होता है-नवीन तथा lithos शब्द का अर्थ होता है- पाषाण। अतः इन्ही शब्दों को मिलाकर Neolithic शब्द बना है जिसका अर्थ है -नवपाषाण। इस काल की सभ्यता भारत के विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी।

नवपाषाण काल के प्रमुख क्षेत्र

1-उत्तर पश्चिमी क्षेत्र

वर्तमान अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान में ऐसी गुफायें खोजी गयी हैं। जहाँ के लोगों द्वारा 7 हजार ईसा पूर्व में भेड़ व बकरियां पाली जाती थीं। यहीं से गेहूं और जौ की खेती की शुरुआत के प्रारंभिक साक्ष्य मिले हैं। इस क्षेत्र का प्रमुख स्थल है मेहरगढ़।

मध्य प्रस्तर युग

मेहरगढ़ के उत्खनन से पता चलता कि इस क्षेत्र का नवपाषाण काल से लेकर हड़प्पा सभ्यता तक एक लम्बा सांस्कृतिक इतिहास रहा है।

मेहरगढ़ से तांबा गलाने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। यहाँ पर गेहूं की तीन तथा जौ की दो किस्मों की खेती किये जाने के साक्ष्य मिलते हैं।

मेहरगढ़ को “बलूचिस्तान की रोटी की टोकरी” कहा जाता है। यहाँ कच्ची ईंटों के आयताकार मकान में लोग रहते थे। औजारों में प्रमुख रूप से प्रस्तर कुठार तथा घर्षण पाषाण का प्रयोग करते थे।

मेहरगढ़ के द्वितीय काल से गेहूं, जौ, अंगूर एवं कपास की खेती के प्रमाण मिलते हैं। अनुमान है कि हड़प्पा निवासियों ने गेंहू, जौ और कपास की खेती की तकनीक मेहरगढ़ के पूर्वजों से ग्रहण की होगी। अतः कृषि कर्म का प्रारम्भिक साक्ष्य मेहरगढ़ से प्राप्त होता है।

2-उत्तरी क्षेत्र

इस क्षेत्र में कश्मीर प्रान्त में स्थित दो महत्वपूर्ण स्थल “बुर्जहोम” तथा गुफकराल का उल्लेख किया जाता है।

बुर्जहोम

बुर्जहोम का साहित्यिक अर्थ “जन्मस्थान” होता है। इस स्थल की खोज 1935 में डी. टेरा तथा पीटरसन ने की। यहाँ के लोग एक झील के किनारे गर्तावासों में रहते थे। और शिकार तथा मछली पर जीते थे। यहाँ पर एक कब्र से मालिक के साथ कुत्ते को दफनाये जाने के प्रमाण मिले हैं।

गुफकराल

इसका शाब्दिक अर्थ होता है “कुम्हार की गुफा”। यहाँ से प्रारम्भिक निवास के तीन चरणों का पता चलता है। प्रथम चरण में मृद्भण्ड रहित गर्तावास मिलते हैं। तथा दूसरे और तीसरे चरण में अनगढ़ किस्म के धूसर मृदभांडों का प्रयोग किया जाने लगा था। यहाँ से बड़ी संख्या में हड्डियों के औजार मिले हैं।

3-मध्यवर्ती क्षेत्र

कोलडिहवा

यह बेलन नदी पर इलाहाबाद के दक्षिण में स्थित है। यहाँ से लगभग 6 हजार ईसा पूर्व के आस पास धान उगाये जाने का प्रमाण मिला है। इसे चावल की खेती का विश्व स्तर पर सबसे प्राचीनतम साक्ष्य माना जाता है। यहाँ पर तीन सांस्कृतिक अनुक्रम नवपाषाण काल, ताम्र पाषाण काल तथा लौहयुग देखे गए हैं।

महगरा

यह गंगा नदी के दक्षिण में विन्ध्य क्षेत्र के निकट स्थित है। यहाँ से धान के अलावा जौ की खेती के भी साक्ष्य मिले हैं तथा एक बड़ा पशु बाड़ा भी प्राप्त हुआ है।

चौपानी मांडो

इलाहाबाद के पास स्थित इस स्थल से पुरापाषाण काल से नवपाषाण काल तक के तीन चरणों का पता चलता है। चौपानी मांडो के मृद्भाण्ड संसार के सबसे प्राचीनतम साक्ष्यों में से हैं।

4-पूर्वी क्षेत्र

चिरांद

बिहार के सारण जिले में चिरांद नामक जगह से नवपाषाणिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ से बड़ी मात्रा में नवपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। बुर्जहोम को छोड़कर अन्य किसी स्थल से इतनी अधिक मात्रा में नवपाषाण कालीन उपकरण नहीं मिले हैं। यहाँ से हिरन के सींगों से निर्मित उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ का मनुष्य घास फूस के घरों में रहता था तथा धान की खेती करता था।

दावोजली हाडिंग

यहाँ से कृषि एवं पशुपालन का पता चलता है। इस स्थान के उत्खनन से आदिम कुल्हाड़ियों के साक्ष्य मिले हैं।

5-राजस्थानी क्षेत्र

बागौर

कोठारी नदी पर स्थित इस स्थल से कृषि एवं पशुपालन दोनों के साक्ष्य मिले हैं। बागौर तथा आदमगढ़ प्राचीनतम पशुपालन अर्थ व्यवस्था के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

बालाथल

1993 में इस स्थल का उत्खनन प्रो. वी. एन. मिश्र के निर्देशन में कराया गया। यहाँ से प्राप्त मृदभांडों की सादृश्यता हड़प्पा स्थल से प्राप्त मृदभाण्डों से की जाती है ताम्र औजारों पर भी हड़प्पा सभ्यता का प्रभाव दिखाई पड़ता है। जिससे स्पष्ट होता है कि नव पाषाण काल में यह हड़प्पा सभ्यता का प्रतिनिधि केन्द्र था। यहाँ से प्राप्त ताम्र मुद्राओं पर हाथी एवं चन्द्रमा की आकृतियां अंकित है।

6-दक्षिण भारत

दक्षिण भारत की नवपाषाण संस्कृति को तीन चरणों में वर्गीकृत किया गया है। सबसे प्रारम्भिक चरण के साक्ष्य संगनकुल्लु और नागार्जुनकोण्डा में मिलते हैं। यहाँ पर मिले साक्ष्यों से प्रदर्शित होता है कि लोगों को खेती का अल्पविकसित ज्ञान था। सम्भवतः ये जानवर नहीं पालते थे।

प्रारम्भिक प्रस्तर युग

मृदभांडों में भूरे मृदभांड, पीले मृद्भांड तथा लेपित बाहरी सतह वाले मृद्भांड का प्रयोग करते थे।

द्वितीय चरण में, प्रथम चरण के लक्षण जारी रहे किन्तु मृद्भांड लाल रंग के प्रयोग होने लगे तथा मणिकारी कला और पशुपालन के नये लक्षण प्रकट हुए। लघु पलक उद्योग के भी प्रमाण मिलते हैं।

तृतीय चरण में धूसर मृद्भांड प्रमुख रूप से प्रयोग किये जाने लगे। हालांकि लाल मृद्भांड तथा लघु फलक उद्योग इस चरण में भी जारी रहे। इस चरण में खेती का कार्य भी किये जाने के साक्ष्य मिलते हैं।

दक्षिण भारत में नव पाषाण कालीन किसानों द्वारा उगाई गई फसलों में सबसे पहली फसल “मिलेट (रागी) थी। यह गरीबों के भोजन तथा मवेशियों के चारे के रूप में इस्तेमाल की जाती थी। इसके अतिरिक्त अन्य फसलों में गेहूं, कुल्थी, मूंग और खजूर की खेती की जाती थी। प्रचुर मात्रा में पशु पालन तथा अन्य खाद्य वस्तुओं से संकेत मिलता है कि इन लोगों की स्थानबद्ध कृषि तथा पशु चारण व्यवस्था थी।

नव पाषाण कालीन जीवन शैली

 

खेती और पशुपालन के प्रादुर्भाव के साथ ही धर्म और समाज से सम्बन्धित आचार व्यवहारों का विकास हुआ। इस काल में अंत्येष्ठि संस्कार प्रचलित था। तथा निम्नलिखित प्रकार की समाधियों में मृतकों की अस्थियां रखी जाती थी।

1-सिस्ट समाधि

एक आयताकार खाई के चारों ओर पत्थर से सन्दूक की आकृति बनाकर मृतक की अस्थियां रखी जाती थीं। अस्थियों के साथ औजार एवं आभूषण भी रखे जाते थे। समाधि में एक से अधिक व्यक्तियों की अस्थियां रखी जा सकती थीं। ब्रह्मगिरि से इस प्रकार के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

2-पिट सर्कल

ग्रेनाइड पत्थरों से निर्मित 8 से 12 फीट का वृत्त जिसकी गहराई 6 से 8 फिट होती थी। सम्भवतः शुरू में लकड़ी की अर्थी पर शव रखा जाता था। शव के गल जाने पर अस्थियां एकत्र कर इस समाधि में रखी जाती थीं। अस्थियों के साथ आभूषण तथा मृद्भांड रखे जाते थे। इस प्रकार के साक्ष्य भी ब्रह्मगिरि की समाधियों से प्राप्त होते हैं।

स्थाई निवास के फलस्वरूप नई नई दस्तकारियों का विकास हुआ जैसे-मृद्भांड बनाने की कला। नवपाषाण काल तक पाषाण सभ्यता काफी विकसित हो गयी थी। अब मनुष्य खाद्य पदार्थों का उत्पादक तथा उपभोक्ता हो गया था तथा शरीर ढकने के लिए वस्त्र निर्माण करना सीख लिया था।

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अग्नि का उपयोग इस काल की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। अग्नि के उपयोग से भोजन पकाये जाने की तकनीक प्रारम्भ हुई। इस काल के अन्तिम दौर में धातु के प्रयोग की शुरुआत हुई। मानव द्वारा प्रयोग की जाने वाली सर्वप्रथम धातु तांबा थी।

मनोरंजन के साधनों में नृत्य गान एवं आखेट प्रमुख था। पहिये के आविष्कार ने नव पाषाण काल के लोगों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। इसके उपयोग से कृषि कार्य में उद्योग में उल्लेखनीय प्रगति हुई।

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