इरिक इरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धान्त और उसकी विशेषताएं-Erik Erikson’s Psychosocial Theory and Its Characteristics

विकास के सिद्धान्तों में मनोसामाजिक सिद्धान्त का महत्वपूर्ण स्थान है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक इरिक इरिक्सन हैं इनका जन्म 1902 ई. में जर्मनी के फ्रैंकफर्ट में हुआ। इरिक्सन ने अपने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन फ्रायड द्वारा प्रतिपादित मनोलैंगिक अवस्थाओं के विस्तार के रूप में किया। उन्होंने अपने विचारों और सिद्धान्तों को अपनी पुस्तकों के माध्यम से प्रकाशित किया। इरिक इरिक्सन की कुछ प्रमुख पुस्तकें निम्नलिखित हैं-

चाइल्डहुड एंड सोसाइटी

आइडेण्टिटी: यूथ एण्ड क्राइसिस

गांधी की सच्चाई

टॉय एण्ड रीजन

एडल्टहुड

इरिक्सन एक मनोविश्लेषक और मानवतावादी थे। अतः उनका सिद्धान्त फ्रॉयड के मनोलैंगिक सिद्धान्त से अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ। फ्रायड के तत्वों का समावेश भी इस सिद्धान्त में निश्चित ही किया है। इस सिद्धान्त का आधार बिन्दु यह है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास कुछ पूर्व निश्चित सार्वभौमिक अवस्थाओं में होता है, जो कि क्रमशः अग्रसर होती है। व्यक्ति विशेष का विकास उसके और उसके सामाजिक वातावरण में परस्पर अन्तक्रिया का परिणाम होता है।

इरिक इरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धान्त की अवस्थाएं

इरिक इरिक्सन ने आठ मनोसामाजिक अवस्थाओं को दो विपरीत दृष्टिकोण में लिया है। इस सिद्धान्त में प्रथम दृष्टिकोण को अनुकूल शान्ति के रूप में प्रस्तुत किया, जिसके लिए सिन्टोनिक (Syntonic) शब्द का प्रयोग किया तथा दूसरा दृष्टिकोण जो प्रतिकूल शक्ति के रूप में प्रस्तुत है, उसको डिस्टोनिक (Dystonic) शब्द से सम्बोधित किया गया है। उन्होंने बताया कि सफल विकास के लिए इन दोनों प्रवृत्तियों में संतुलन आवश्यक है। सकारात्मक प्रवृत्तियों या नकारात्मक प्रवृत्तियों के एक-तरफा विकास से व्यक्तित्व का संतुलित विकास सम्भव नहीं है।

 

इन सभी आठ मनोसामाजिक अवस्थाओं का एक क्रम है। इन अवस्थाओं में व्यक्तित्व का विकास जैविक परिपक्वता तथा सामाजिक एवं ऐतिहासिक बलों के अंतःक्रिया के फलस्वरूप होता है।

1-विश्वास बनाम अविश्वास (Trust vs Mistrust)-

फ्रायड के मनोलैंगिक विकास की मुखावस्था से समानता रखने वाली यह अवस्था जन्म से लेकर 1½ साल उम्र तक होती है। इस अवस्था में जिस सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास होता है। वह दूसरों तथा स्वयं में विश्वास एवं आस्था की भावना है। इस भावना का विकास माता-पिता द्वारा बच्चों की सही देख-रेख के परिणामस्वरूप होता है। अच्छी देखभाल ही दूसरों में विश्वास की भावना को बढ़ाती है और उसमें यह भी विश्वास उत्पन्न करती है कि उसके शारीरिक अंग जैविक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम हैं। इस प्रकार की भावना के विकास से बच्चों में एक स्वस्थ व्यक्तित्व के निर्माण की आधारशिला तैयार हो जाती है।

यदि किन्हीं कारणों से माता-पिता बच्चे की उत्तम देखभाल करने में समर्थ नहीं होते हैं तो बच्चे में अविश्वास की भावना विकसित हो जाती है जिससे मनोसामाजिक विकास की अग्रिम अवस्थाओं में स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण अवरुद्ध हो जाता है और वह दूसरों के प्रति डर, सन्देह, आशंकाएं जैसी अनुभूतियाँ विकसित कर लेता है। इस भावना का विकास तीव्र तब हो जाता है जब बच्चा यह अनुभूति करता है कि माँ उस पर ध्यान न देकर अन्य चीजों या कार्यों पर ध्यान देती है।

इस सिद्धान्त के अनुसार बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए केवल विश्वास की भावना ही आवश्यकता नहीं है, अपितु विकास का अविश्वास की तुलना में एक अनुपात में होना अनिवार्य है, क्योंकि वातावरण में प्रभावी समायोजन के लिए कुछ चीजों/कार्यों पर विश्वास न करना उतना ही आवश्यक है, जितना किसी वस्तु/कार्य पर विश्वास करना।

जब शिशु विश्वास बनाम अविश्वास के संघर्ष का समाधान सफलतापूर्वक कर लेता है, तो उसमें एक मनोसामाजिक शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे ‘आशा’ नाम से अभिहित किया जाता है। आशा एक ऐसी मनोसामाजिक शक्ति है, जिसके द्वारा शिशु अपने सांस्कृतिक वातावरण तथा अपने अस्तित्व को अर्थपूर्ण ढंग से समझने लगता है।

2-स्वायत्तता बनाम लज्जा, शंका

इस अवस्था का समय 2 वर्ष से 3 वर्ष तक होता है। यह अवस्था फ्रायड के मनोलैंगिक विकास की ‘गुदा अवस्था’ के समान है। इस अवस्था में स्वतंत्रता एवं आत्मनियंत्रण आदि गुणों का विकास होता है। इससे पूर्व की अवस्था में बच्चे पूर्णत: दूसरों पर निर्भर होते हैं, किन्तु इस अवस्था में उनमें न्यूरोपेशीय परिपक्वता, सामाजिक विभेद तथा शाब्दिक अभिव्यक्ति आदि की क्षमता विकसित हो जाती है और वह वातावरण को स्वतंत्रता से अन्वेषण करना प्रारम्भ कर देता है। इस अवस्था में बच्चे अधिक से अधिक काम स्वयं करना चाहते हैं इसे ‘स्वायत्तता’ कहा जाता है। यहाँ स्वायत्तता का अर्थ है- स्वतंत्रता, किन्तु प्रतिबन्धित स्वतंत्रता। माता – पिता अपने नियंत्रण में बच्चों को कार्य करने की स्वतंत्रता देते हैं।

जब माता-पिता बच्चों से ऐसी उम्मीद रखते हैं जो उनकी क्षमता से बाहर है या फिर उन्हें छोटा समझकर कार्य नहीं करने देते हैं, तो बच्चों में लज्जाशीलता की भावना विकसित हो जाती है। जिससे अन्य मनोसामाजिक मनोवृत्तियाँ विकसित हो जाती हैं जैसे- स्वयं पर सन्देह, व्यर्थता, शक्तिहीनता।

जब बालक स्वायत्तता बनाम लज्जाशीलता के संघर्ष का समाधान कर लेता है, तो उसमें एक मनोसामाजिक शक्ति की उत्पत्ति होती है जो ‘इच्छा शक्ति’ से मिलती-जुलती है। इस अवस्था में बच्चों को दूसरों का कार्य करने में आनन्द आता है वे नई जिम्मेदारियाँ निभाने में आनन्दित होते हैं। इस शक्ति के द्वारा बच्चों में अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने तथा आत्म संयम की क्षमता उत्पन्न होती है।

3-पहल शक्ति बनाम अपराध भावना

इस अवस्था का समय 4 साल की आयु से 6 साल की आयु तक होता है। यह अवस्था फ्रायड की मनोलैंगिक विकास की ‘लिंग प्रधान अवस्था’ से मिलती-जुलती है। इस अवस्था तक बच्चों में भाषा और पेशीय कौशलों का विकास हो जाता है। अतः वे बाहर अन्य बच्चों के साथ सामाजिक खेलों में भाग लेने में रुचि लेते हैं।

यह ऐसी पहली मनोसामाजिक अवस्था है जहाँ बच्चों को पहली बार यह अनुभूति होती है कि उनके जीवन का भी एक उद्देश्य है। जब इस अवस्था में माता-पिता द्वारा सामाजिक कार्यों में हाथ बँटाने से रोका जाता है या किसी ऐसी इच्छा पर शारीरिक दण्ड दिया जाता है तो बच्चों में अपराध की भावना उत्पन्न हो जाती है और वे बच्चे कभी स्वयं को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाते और उनमें किसी लक्ष्य के प्रति निरन्तर प्रयत्न करने की क्षमता समाप्त हो जाती है। जब बच्चों में इस नकारात्मक भावना का विकास हो जाता है और यह सतत् बनी रहती है तो उनमें निष्क्रियता, लैंगिक नपुंसकता और अन्य मनोविकारी क्रिया करने की प्रवृत्तियाँ तीव्र हो जाती है। इस अवस्था में पहल शक्ति बनाम अपराध भावना से उत्पन्न संघर्ष के सफल समाधान से जिस मनोसामाजिक शक्ति की उत्पत्ति होती है उसे ‘उद्देश्य’ कहा जाता है इस शक्ति के द्वारा बच्चों में लक्ष्य निर्धारण क्षमता बढ़ती है।

4-परिश्रम बनाम हीनता

मनोसामाजिक विकास की यह चतुर्थ अवस्था जो- 6 साल की आयु से प्रारम्भ होकर लगभग 12 साल तक की आयु तक की होती है। यह फ्रायड के मनोलैंगिक विकास की अव्यक्त अवस्था के समान है। इस अवस्था में बालक औपचारिक शिक्षा के माध्यम से संस्कृति के प्रारम्भिक कौशलों को सीखता है। अतः इस अवस्था को स्कूल अवस्था भी कहा जाता है।

जब बच्चे प्रारम्भिक कौशलों को सफलतापूर्वक सीख लेते हैं तो उनमें परिश्रम का भाव विकसित होता है, किन्तु यदि किसी कारणवश वे कौशलों का अर्जन करने में असफल होते हैं या उन्हें स्वयं के कौशल पर सन्देह हो जाता है तो उनमें हीनता/असामर्थ्यता की भावना आ जाती है। इस भावना के विकसित होने से उसे स्वयं की क्षमता पर विश्वास नहीं रहता है।

जब बालक परिश्रम बनाम हीनता के द्वन्द्व का सफल समाधान कर लेता है तो उसमें ‘सामर्थ्यता’ नामक मनोसामाजिक शक्ति उत्पन्न होती है। यह शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को प्रयोग करने में सहायक होती है।

5-अहं पहचान बनाम भूमिका सम्भ्रांति

12 वर्ष की आयु से लेकर 20 वर्ष तक माने जाने वाली यह अवस्था एक महत्वपूर्ण अवस्था है। इस अवस्था में सकारात्मक पक्ष के रूप में अहं पहचान और नकारात्मक पक्ष के रूप में भूमिका भ्रांति या पहचान संकट का विकास होता है इस अवस्था में किशोर पूर्व में सीखे गए ज्ञान को इस तरह संगठित करने की कोशिश करते हैं कि उनकी पहचान बनी रहे।

अहं पहचान के समुचित विकास के लिए आवश्यक है कि किशोरों में वयस्क यौन भूमिकाओं का विकास हुआ हो किन्तु यदि किशोर बाल्यावस्था की अनुभूतियों या वर्तमान प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितियों से घिर जाते हैं तो परिणाम यह होता है कि उनका आत्म प्रत्यक्षण दूषित हो जाता है। इससे उनमें भूमिका संभ्रम की भावना उत्पन्न हो जाती है। इस स्थिति में किशोर दिग्भ्रमित हो जाते हैं और आगे की शिक्षा को जारी रखने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। जिससे उनमें उद्देश्यहीनता व्यक्तिगत विघटन की भावना प्रधान हो जाती है। कभी-कभी किशोरों में ऋणात्मक पहचान भी विकसित हो जाती है।

इरिक्सन का मानना है कि कुछ किशोर इस भूमिका संभ्रांति का समाधान नहीं करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि यह पहचान संकट कुछ समय तक बना रहे। इसे इरिक्सन ने मनोसामाजिक विलम्बन कहा है। जब किशोर अहं पहचान बनाम भूमिका संभ्रांति से उत्पन्न समस्या का सफलतापूर्वक समाधान कर लेता है, तब उसमें एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति विकसित होती है। जिसे इरिक्सन ने ‘ कर्तव्यनिष्ठता ‘ नाम दिया है। जिसका तात्पर्य किशोरों में समाज की विचारधाराओं, शिष्टाचार एवं मानकों के अनुकूल व्यवहार करने की क्षमता से होता है। कर्तव्यनिष्ठता को इरिक्सन ने इस अवस्था में व्यक्तित्व का एक सार तत्व माना है।

6-घनिष्ठता बनाम अलगाव

20 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होकर 30 वर्ष की आयु तक इस अवस्था का समय है। इस अवस्था में व्यक्ति जीवन प्रारम्भ करता है। यहाँ युवक किसी-न-किसी व्यवसाय का चयन करता है और अपना स्वतंत्र जीविकोपार्जन प्रारम्भ कर देता है। इस अवस्था में व्यक्ति सही अर्थों में दूसरों के साथ सामाजिक, लैंगिक घनिष्ठता बनाने के लिए तैयार रहता है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने परिवार और अपने सम्बन्धियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित करता है।

इस अवस्था में यदि व्यक्ति दूसरों के साथ कुछ कारणों से घनिष्ठ वैयक्तिक सम्बन्ध विकसित नहीं कर पाता है और स्वयं में ही खोया रहता है तो इसे अलगाव कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति यदि अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध बनाते भी हैं तो वह खोखले व सतही होते हैं। ऐसे व्यक्तियों में कार्य एवं व्यवसाय के प्रति नीरसता की मनोवृत्ति जाग्रत होती है। जब ‘अलगाव’ की भावना की मात्रा बढ़ जाती है तो व्यक्ति में गैर-सामाजिक व्यवहार प्रबल होता है। जब व्यक्ति घनिष्ठत बनाम अलगाव से उत्पन्न संघर्ष का समाधान सफलतापूर्वक कर लेता है तो ‘स्नेह’ नामक मनोसामाजिक शक्ति की उत्पत्ति होती है जो किसी सम्बन्ध को बनाए रखने में समर्पण की क्षमता से सम्बद्ध है। इसके माध्यम से व्यक्ति दूसरों के प्रति आदर, उत्तरदायित्व आदि मनोवृत्ति दिखलाता है।

7-जननात्मकता बनाम स्थिरता

यह अवस्था 30 वर्ष की आयु से 65 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। जननात्मकता का भाव इस अवस्था में सकारात्मक दृष्टिकोण के रूप में उत्पन्न होता है। जननात्मकता से तात्पर्य है कि व्यक्ति द्वारा अगली पीढ़ी के लोगों के कल्याण और साथ-ही-साथ उस समाज के जिसमें वे लोग रहेंगे को उन्नत बनाने की चिन्ता।

जब व्यक्ति में जननात्मकता की भावना विकसित नहीं होती तो स्थिरता की अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति की वैयक्तिक आवश्यकताओं एवं सुख-सुविधा सर्वोपरि होती है। ऐसे व्यक्ति को किसी दूसरे की चिन्ता तक नहीं होती। सिर्फ स्वयं की वैयक्तिक सुख-सुविधा के लिए परेशान रहते हैं।

इस अवस्था में मनोसामाजिक संकट का समाधान होने पर एक शक्ति उत्पन्न होती है। जिसे इरिक्सन ने ‘देखभाल’ कहा है। इससे कल्याण की भावना का विकास होता है।

8-अहं सम्पूर्णता बनाम निराशा

मनोसामाजिक विकास की यह अन्तिम अवस्था है जो 65 वर्ष की आयु से मृत्यु तक होती है। इस अवस्था को बुढ़ापे की अवस्था कहा गया है। जिसमें व्यक्ति को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जैसे प्रधान रूप से गिरते हुए शारीरिक स्वास्थ्य और शक्ति के साथ समायोजन, अवकाश प्राप्ति के बाद उत्पन्न आय में कमी, अपने समकालीन की मृत्यु, अपने हम उम्र समूह के साथ सम्बन्ध आदि।

इस अवस्था में व्यक्ति का ध्यान भविष्य से हटकर बीते दिनों पर होता है। विशेषकर जिसमें उसने सफलता या असफलता अर्जित की है। इरिक्सन का मत है कि इस अवस्था में कोई मनोसामाजिक संकट उत्पन्न नहीं होता। व्यक्ति स्वयं की पिछली मनोसामाजिक अवस्थाओं का मूल्यांकन करता है। जिससे उसमें अहंपूर्णता का भाव उत्पन्न होता है। इस अवस्था में व्यक्ति को मृत्यु से भय नहीं लगता, क्योंकि वह स्वयं का अस्तित्व जारी समझता है।

इस अवस्था में व्यक्ति को बुद्धिमत्ता का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त होता है। इस अवस्था की प्रमुख मनोसामाजिक शक्ति ‘परिपक्वता’ है। कोई-कोई व्यक्ति अपनी बीती मनोसामाजिक अवस्थाओं में उत्पन्न असफलताओं से चिन्तित रहते हैं। ऐसे लोग अपनी जिन्दगी को अपूरित इच्छाओं, आवश्यकताओं का एक ढेर मानते हैं इससे उनमें निराशा का भाव उत्पन्न होता है। वे स्वयं को निर्बल और असहाय समझने लगते हैं। यदि ऐसी भावना तीव्र हुई तो उसमें मानसिक विषाद भी उत्पन्न हो जाता है।

इरिक इरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धान्त की विशेषताएं

इरिक्सन के द्वारा बतायी गयीं सभी आठ मनोसामाजिक अवस्थाओं की कुछ विशेषताएं हैं जो अग्रलिखित हैं-

प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था में एक संक्रान्ति होती है अर्थात् जीवन का वह वर्तन बिन्दु जो उस अवस्था में जैविक परिपक्वता और सामाजिक मांग में अन्तःक्रिया के परिणामस्वरूप प्राणी में उत्पन्न होता है।

प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था धनात्मक तथा ऋणात्मक दोनों तत्वों से युक्त होती हैं। प्रत्येक अवस्था में जैविक परिक्वता और सामाजिक मांग के कारण संघर्ष की स्थिति ही उत्पन्न होती है। यदि संघर्ष की स्थिति का समाधान सन्तोषजनक तरीके से कर लिया जाता है तो व्यक्तित्व विकास अवरुद्ध होने की सम्भावना में कमी आती है। सही तरह से व्यक्तित्व विकास के लिए धनात्मक तत्व का ऋणात्मक तत्व की तुलना में अनुकूल अनुपात होना आवश्यक है।

प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था में उत्पन्न संकट का निराकरण आवश्यक है। ऐसा न होने पर अगली अवस्था में अपेक्षित विकास की सम्भावना कम हो जाती है।

मनोसामाजिक विकास की प्रत्येक अवस्था में उत्पन्न होने वाले संकट का निराकरण हो जाने पर एक मनोसामाजिक शक्ति का उदभव होता है। जिसे इरिक्सन ने सदाचार की संज्ञा दी है।

इरिक्सन के सिद्धान्त में प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था में तीन R होते हैं-

Ritualization (कर्म-कांडता)

  Ritual  (कर्म-कांड)

  Ritulism (कर्म-कांडवाद)

Ritualization (कर्म-कांडता)– इरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धान्त में कर्म-कांडता से तात्पर्य है- सांस्कृतिक रूप से स्वीकृत तरीके से समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ अंतःक्रिया करना। इस तरह के व्यवहार थोड़े-थोड़े समय के पश्चात अर्थपूर्ण सन्दर्भ में दोहराये भी जाते हैं।

Ritual  (कर्म-कांड)– वयस्क समुदाय द्वारा महत्वपूर्ण घटनाओं की अभिव्यक्ति के लिए किए गए कार्य कर्म-कांड कहे जाते हैं।

Ritulism (कर्म-कांडवाद)– कर्म-कांडवाद से तात्पर्य है- कर्म-कांडता से उत्पन्न विकृति जिसकी वजह से व्यक्ति का ध्यान स्वयं के ऊपर केन्द्रित रहता है।

प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था का निर्माण उसके पूर्वावस्था में हुए विकास से सम्बद्ध होता है।

इरिक इरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धान्त के गुण

इस सिद्धान्त में आशावादिता को अपनाया गया है। एक अवस्था में असफलता मिलने पर भी अगली अवस्था में सफलता मिल सकती है।

व्यक्तित्व विकास की व्याख्या हेतु समाज एवं स्वयं व्यक्ति की भूमिकाओं पर बल डाला गया है।

इस सिद्धान्त में सम्पूर्ण जीवन अवधि के आधार पर व्यक्तित्व विकास की व्याख्या की गई है।

इस सिद्धान्त में किशोरावस्था को महत्वपूर्ण माना गया है।

मनोसामाजिक सिद्धान्त के शैक्षिक निहतार्थ

इरिक्सन के इस सिद्धान्त में ‘पहल शक्ति बनाम अपराध भावना’ नामक मनोसामाजिक अवस्था में बताया गया है कि बच्चा सामाजिक कार्यों से जुड़ने का प्रयास करने लगता है। खेलों में भाग लेने में रुचि लेता है। यदि इस अवस्था में निर्देशन सही तरह से नहीं हुआ तो ‘अपराध भाव’ की नकारात्मक भावना उत्पन्न हो जाती है और विकास अवरुद्ध हो जाता है। अतः शिक्षक को चाहिए कि इस अवस्था में छात्र का उचित निर्देशन करे।

परिश्रम बनाम हीनता नामक मनोसामाजिक अवस्था में जिसको स्कूल अवस्था कहा जाता है, बालक स्कूल में अपने समान वय समूह के साथ अर्थात् समकक्षीय सम्बन्धों में रहते हुए प्रारम्भिक कौशलों को सीखता है इस द्वन्द्व के समाधान में समकक्षीय सम्बन्ध सहायक होते हैं और ‘सामर्थ्यता’ नामक मनोसामाजिक शक्ति विकसित हो जाती है। अतः अभिभावकों और शिक्षकों को चाहिए कि बालक की मित्र-मण्डली का ध्यान रखें।

अहं पहचान बनाम भूमिका संभ्रम अर्थात् किशोरावस्था में बालक समान वय समूह में अपनी पहचान बनाए रखना चाहते हैं अर्थात समकक्षीय सम्बन्ध में अपनी पहचान बनाए रखना चाहते हैं यदि समकक्षीय सम्बन्ध पुष्ट हैं अच्छे हैं तो भूमिका संभ्रान्ति नामक नकारात्मक पक्ष का विकास नहीं होता है और इस द्वन्द्व स्थिति का समाधान करके ‘कर्तव्यनिष्ठता’ नामक मनोसामाजिक शक्ति विकसित कर लेता है। अतः सामाजिकता के विकास में समकक्षीय सम्बन्धों का महत्वपूर्ण योगदान है।

समकक्षीय सम्बन्धों का व्यक्ति या बालक पर सीधा प्रभाव पड़ता है। सामाजिक सम्बन्धों को पुष्ट करने और सामाजिक व्यवहार को सीखने में समान वय समूह की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किशोरावस्था में बालकों में अपने समूह के प्रति अधिक लगाव रहता है इस अवस्था में बच्चे यदि बुरी संगति में पड़ गए तो उनमें सामाजिक व्यवहार का विरोध करने की प्रवृत्ति पनपती है। यदि संगति अच्छी हो और सही मार्गदर्शन हो तो बालक सामाजिक व्यवहारों में निपुण हो जाता है। किशोरावस्था ही नहीं अपितु सभी अवस्थाओं में समकक्षीय सम्बन्ध बनते ही हैं। समान वय समूह में रहकर अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है।

इरिक इरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धान्त के दोष

कुछ विद्वानों के अनुसार इरिक्सन के सिद्धान्त में केवल फ्रायड के सिद्धान्त का सरलीकरण हुआ है और कुछ नहीं।

इस सिद्धान्त को प्रयोगात्मक समर्थन प्राप्त नहीं है। सभी सम्प्रत्यय व्यक्तिगत प्रेक्षणों पर आधारित है। अतः वे आत्मनिष्ठ हैं।

You May Also Like

Kavya Me Ras

काव्य में रस – परिभाषा, अर्थ, अवधारणा, महत्व, नवरस, रस सिद्धांत

काव्य सौन्दर्य – Kavya Saundarya ke tatva

काव्य सौन्दर्य – Kavya Saundarya ke tatva

भारत के वायसराय-Viceroy of India

भारत के वायसराय-Viceroy of India