जैन धर्म और उसके नियम

जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव माने जाते हैं। यह बौद्ध धर्म से भी प्राचीन माना जाता है। जैन शब्द संस्कृत के “जिन” शब्द से बना है जिसका अर्थ है-विजेता या जितेन्द्रिय अर्थात जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है। जैन महात्माओं को निर्ग्रन्थ (बन्धन रहित) कहा गया।

जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है। परन्तु सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारता। इसके अनुसार सृष्टि का निर्माता ईश्वर नहीं है अपितु यह संसार 6 द्रव्यों-जीव, पुद्गल (भौतिक तत्व), धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल से निर्मित है।

ये द्रव्य विनास की संभावना से परे और शाश्वत हैं। इस धर्म में आत्मा को स्वीकार किया गया है, इसके अनुसार सृष्टि के कण कण में आत्मा का वास है।

महावीर पुनर्जन्म व कर्मवाद में विश्वास करते थे। किन्तु इन्होंने यज्ञ और वेद की प्रमाणिकता को स्वीकार नहीं किया।

जैन धर्म क्या है?

जैन धर्म जीव के निर्वाण प्राप्त करने का मार्ग है जिस पर चलकर जीव जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पा सकता है और वह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख प्राप्त कर लेता है। जैन धर्म में इसे “अनन्त चतुष्य” कहा गया है।

जैन तीर्थंकरों के अनुसार जीव त्रिरत्नों का पालन तथा कठिन तपस्या करके निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर सकता है।

जैन धर्म के नियम या सिद्धान्त

जैन धर्म में पूर्व जन्म के कर्मफल को समाप्त करने तथा इस जन्म के कर्मफल से बचने के लिये कुछ नियमों के पालन की बात की गयी है। इन नियमों को “त्रिरत्न” कहते हैं। ये त्रिरत्न हैं

1-सम्यक दर्शन- सत में विश्वास को ही सम्यक दर्शन कहा गया है।

2-सम्यक ज्ञान- शुद्रूप का शंकाविहीन और वास्तविक ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है

3-सम्यक आचरण- सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दुःख के प्रति समभाव ही सम्यक आचरण है।

इन सब में आचरण पर विशेष बल दिया गया है। आचरण के सम्बन्ध में “पाँच महाव्रतों” के पालन करने का विधान है।

१-अहिंसा- जैन धर्म में अहिंसा सम्बन्धी सिद्धान्त अत्यन्त कठोर हैं। इसमें सभी प्रकार की मानसिक, वाचिक तथा कायिक हिंसा से बचने की बात की गई है। यह इस धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्रत है।

२-सत्य व अमृषा- मनुष्य को सदैव सत्य व मधुर बोलना चाहिए।

३-अस्तेय- इसके अन्तर्गत बिना अनुमति के न तो किसी वस्तु को ग्रहण करना चाहिए और न इसकी इच्छा करनी चाहिए। बिना आज्ञा के किसी के घर में जाना, निवास करना भी वर्जित है।

४-अपरिग्रह- इसमें किसी भी प्रकार की सम्पत्ति एकत्रित न करने पर जोर दिया गया है क्योंकि सम्पत्ति से मोह और आसक्ति का उदय होता है।

५-ब्रह्मचर्य- इसमें भिक्षुओं को पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने को कहा गया है। इसके अन्तर्गत किसी नारी से वार्तालाप करना, उसे देखना तथा उसके साथ संसर्ग का ध्यान करना वर्जित किया गया है।

गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले जैनियों के लिए भी इन्हीं व्रतों की व्यवस्था है किन्तु इनकी कठोरता में कमी की गई। और इन्हें अणुव्रत कहा गया।

गृहस्थ जैनियों के लिए “पंच अणुव्रत” के अतिरिक्त तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षा व्रत का पालन भी आवश्यक था।

गुणव्रत

१-प्रत्येक गृहस्थ को अपने कार्य क्षेत्र की सीमा निर्धारित करनी चाहिए।

२-केवल करने योग्य तथा अनुकरणीय कार्य करें।

३-भोजन तथा भोग की सीमा निर्धारित करें।

 शिक्षा व्रत

१-देशविरति-किसी देश प्रदेश की सीमा से आगे न जाने का व्रत

२-सामयिक व्रत-दिन में तीन बार सांसारिक चिंताओं से मुक्त होकर ध्यान लगाना।

३-प्रोपोद्योपवास-उपवास करना

४-वैया व्रत-दान करना

संवर

त्रिरत्नों के पालन करने से कर्मों का जीव की ओर बहाव रुक जाता है। इस स्थिति को “संवर” कहते हैं।

निर्जरा

संवर स्थिति के बाद जब पहले से व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते हैं तो इस अवस्था को “निर्जरा” कहते हैं।

निर्वाण

जब जीव से कर्म अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं। तो वह मोक्ष या निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इसे “अनन्त चतुष्टय” कहा जाता है।

संलेखना पद्धति

जैन धर्म में कठिन तपस्या तथा कायाक्लेश पर अत्यधिक बल दिया गया है। इसके अन्तर्गत शरीर को उपवास के द्वारा समाप्त करने का विधान है। इस पद्धति को संलेखना पद्धति या निषिद्ध पद्धति कहा जाता है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने श्रवणबेलगोला में इसी पद्धति से अपने प्राण त्यागे थे।

स्यादवाद

स्यादवाद को अनेकान्तवाद भी कहा जाता है। यह मूल रूप से ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त है। इसमें परम् तत्व की व्याख्या के लिए कल्पना की गई है।

स्यादवाद के अनुसार, सांसारिक वस्तुओं के विषय में हमारे सभी निर्णय न तो पूर्णतः स्वीकार किये जा सकते हैं और न ही पूर्णतः अस्वीकार। ये संख्या में सात हैं-

1-है, 2-नहीं है, 3-है और नहीं है, 4-कहा नहीं जा सकता, 5-है किन्तु कहा नहीं जा सकता, 6-नहीं है और कहा नहीं जा सकता, 7-है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता।

सात क्रमिक पद होने के कारण इसे सप्तभंगी ज्ञान भी कहते हैं।

जैन धर्म के सम्प्रदाय

चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में मगध में 12 वर्षों का भयंकर अकाल पड़ा। इस समय जैन सम्प्रदाय के प्रमुख भद्रबाहु थे। अकाल के कारण भद्रबाहु अपने अनुयायियों के साथ दक्षिण भारत चले गये। और मैसूर के पुण्णाट प्रदेश में बस गये।

स्थूलभद्र अपने अनुयायियों के साथ मगध में ही रुके रहे। उन्होंने अपने अनुयायियों को सफेद वस्त्र धारण करने का निर्देश दिया। जबकि भद्रबाहु ने अपने अनुयायियों को निर्वस्त्र रहने की शिक्षा दी।

अकाल समाप्त होने के पश्चात जब भद्रबाहु वापस लौट आये तो स्थूलभद्र और भद्रबाहु में जैन संघ के नियमों को लेकर विवाद हो गया। इस प्रकार जैन संघ में दो सम्प्रदाय विकसित हुए

1-श्वेताम्बर- श्वेत वस्त्र धारण करने वाले, इन साधुओं को यति, आचार्य तथा साधु कहा गया। श्वेताम्बर अनुयायी भोजन को आवश्यक समझते थे। श्वेताम्बर सम्प्रदाय का नेतृत्व स्थूलभद्र ने किया।

गिरनार श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र है। यहाँ दोनों सम्प्रदायों (श्वेताम्बर व दिगम्बर) में एक शास्त्रार्थ आयोजित हुआ था।

श्वेताम्बर सम्प्रदाय के उप सम्प्रदाय

पुजेरा या डेरावासी-इनको मन्दिर मार्गी कहा जाता है। ये जैन तीर्थंकरों की पूजा करते हैं।

स्थानक वासी-ये केवल जैन सिद्धान्तों में विश्वास करते थे।

2-दिगम्बर- निर्वस्त्र रहने वाले, इन साधुओं को झुल्लक, ऐल्लक और निर्ग्रन्थ कहा गया। दिगम्बर मानते थे कि ज्ञान प्राप्ति के बाद भोजन आवश्यक नहीं। दिगम्बर सम्प्रदाय का नेतृत्व भद्रबाहु ने किया।

दिगम्बर सम्प्रदाय के उपसम्प्रदाय

तेरापंथी-केवल जैन मूर्तियों की पूजा करते थे।

समैया पंथी या तारण पंथी-ये केवल जैन सिद्धान्तों को मानते थे।

जैन संगीतियाँ

महावीर स्वामी की शिक्षाओं को साहित्य में संकलित करने के लिए दो जैन सभाओं का आयोजन हुआ।

                प्रथम जैन संगीति

समय                             322 से 298 ईसा पूर्व

स्थल                                      पाटलिपुत्र

अध्यक्ष                                    स्थूलभद्र

शासक                                    चन्द्रगुप्त मौर्य

                   द्वितीय जैन संगीति

समय                                     512 ई.

स्थल                                      बल्लभी

अध्यक्ष                                   देवर्धिगण श्रमण

इस संगीति में धर्मग्रंथो को अन्तिम रूप से संकलित कर लिपिबद्ध किया गया।

जैन धर्म ग्रंथ

जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रंथों को “पूव्व” कहा जाता है। इनकी संख्या 14 है। जैन साहित्य को “आगम” कहा जाता है। प्रारम्भिक जैन साहित्य अर्ध-मागधी भाषा में लिखे गये। जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र व नन्दिसूत्र आते हैं।

12 अंग-इसमें इस धर्म के सिद्धान्तों नियमों आदि का संकलन है। इनमें भगवती सूत्र ग्रन्थ सबसे प्रमुख है।

12 उपांग-प्रत्येक अंग के साथ एक उपांग सम्बद्ध है। इनमें ब्रह्माण्ड का वर्णन, प्राणियों का वर्गीकरण, खगोलविद्या, काल विभाजन आदि का उल्लेख है।

6 छेदसूत्र-इन ग्रंथों में जैन भिक्षु भिक्षुणियों के लिए नियमों का वर्णन है। ये हैं-निशीथ, महानिशीथ, कल्प, पंचकल्प, आचार दशा व छेदसूत्र।

4 मूलसूत्र-इसमें जैन धर्म के उपदेश, भिक्षुओं के कर्तव्य व विहार के जीवन आदि का वर्णन है। इनकी संख्या चार है-उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, षडावश्यक व ओकनिर्युक्ति।

अन्य ग्रन्थ

१-नायाधम्मकहा-इसमें महावीर स्वामी की शिक्षाएं संकलित हैं।

२-कल्पसूत्र-यह भद्रबाहु द्वारा रचित महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।

३-परिशिष्ट पर्वन-यह हेमचन्द्र द्वारा लिखा गया।

४-न्यायावतार-यह सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित ग्रन्थ है।

५-स्यादवादमंजरी-इसके लेखक मल्लिसेन हैं।

जैन धर्म के अनुयायी राजा

इस धर्म के समर्थक राजाओं में उदयन, बिम्बसार, अजातशत्रु, बिन्दुसार आदि का उल्लेख मिलता है। नन्द वंश का प्रतापी शासक महापद्मनन्द जैन धर्म का कट्टर अनुयायी था।

कलिंग नरेश खारवेल भी जैन धर्म का कट्टर अनुयायी था। उदयगिरि की पहाड़ियों में खारवेल ने जैन साधुओं के लिए एक गुफा का निर्माण करवाया था।



दक्षिण भारत के राजाओं जैसे राष्ट्रकूट, गंग, ने भी इस धर्म को प्रश्रय दिया। गंग वंश के सेनापति चामुण्डराय ने 940 ई. में श्रवनवेलगोला में एक बाहुबली जिन की मूर्ति का निर्माण कराया। जिसे गोमतेश्वर की मूर्ति कहते हैं।

चालुक्य शासकों व चन्देल शासकों ने भी इस धर्म को प्रश्रय दिया। चन्देल शासक धंग के शासन काल में खजुराहो में जैन मंदिरों का निर्माण हुआ।

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