जीवन की उत्पत्ति-origin of life

पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे और कहाँ से हुई, इस सम्बन्ध में कोई विशिष्ट प्रमाण नहीं हैं। किन्तु वैज्ञानिकों ने जीवन की उत्पत्ति के विषय में समय-समय पर अलग-अलग परिकल्पनाएं प्रस्तुत की हैं। जो निम्नलिखित हैं-

विशिष्ट सृष्टिवाद

यन्त्रवाद

स्वतः जननवाद

जीव जननवाद

ब्रह्माण्डवाद

जीवन की जैव रासायनिक उदभव परिकल्पना

विशिष्ट सृष्टिवाद

धार्मिक विचार धाराओं के अनुसार सृष्टि का निर्माण किसी आलौकिक या दैवी शक्ति द्वारा हुआ है। बाइबल के अनुसार ब्रह्माण्ड का निर्माण 6 दिन में हुआ है। पहले दिन पृथ्वी व स्वर्ग तथा दूसरे दिन आकाश बना। तीसरे दिन भूमि व पेड़-पौधे बने और चौथे दिन सूर्य, चन्द्रमा व अन्य ग्रह। पाँचवें दिन मछलियों, एवं पक्षियों का निर्माण हुआ। शुरू में केवल पुरुष बना, बाद में उसकी बारहवीं पसली से प्रथम स्त्री की रचना हुई। इसके सबसे बड़े समर्थक स्पेन के पादरी फादर स्योरेज और आर्च बिशप ऊसेर थे।

पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया। देवता, मनुष्य एवं राक्षस ब्रह्मा के सिर से, पक्षी छाती से, बकरियाँ मुंह से तथा पेड़-पौधे शरीर पर उगे बालों से बने हैं। निर्माण-दिवस से आज तक पृथ्वी के सभी जीवधारी बिना किसी परिवर्तन के अपने पुराने रूप में चले आ रहे हैं।

विशिष्ट सृष्टिवाद के अनुसार ईश्वर ने सभी जीव-जातियों की रचना अलग-अलग की है और आदिकाल में जितनी जीव-जातियों का निर्माण हुआ वे बिना किसी परिवर्तन के आज तक उसी रूप में बनी हुई हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण इस वाद का समर्थन नहीं करता।

यन्त्रवाद या आकस्मिक अकार्बनिकवाद

Curvier (1769-1832) के अनुसार पृथ्वी पर समय समय पर प्रलय की भयानक क्रिया होती है जिसमें कहीं पर्वत समुद्र में धंस जाते हैं तो कहीं पर्वत समुद्र से बाहर आ जाते हैं। इन परिवर्तनों से पृथ्वी के सारे जीव नष्ट हो जाते हैं और प्रलय के बाद अकार्बनिक पदार्थों से आकस्मिक ही नये जीव बन जाते हैं। हैकल (1866) ने इस सिद्धान्त को यन्त्रवाद का नाम दिया। हैकल का मत था कि विशेष परिस्थितियों में जैसे किसी पदार्थ के घोल में से उस पदार्थ के रवे बनकर अलग होने लगते हैं उसी प्रकार किन्हीं विशेष वातावरणीय दशा में अजैव पदार्थ के घोल में अकस्मात आदि जीव-रूपी रवे बन जाते हैं।

स्वतः जनन या अजीवात जीवोत्पादन

ईसा से पूर्व के वैज्ञानिकों जैसे थेल्स, एनैक्सिमैंडर, ऐम्पीडोक्लीज, प्लैटो एवं अरस्तु का मत था कि जीवों का जन्म अजीवित पदार्थों से अपने आप ही हो जाता है जैसे तालाब की कीचड़ से मछलियाँ, मेंढक , साँप, कछुए, घड़ियाल आदि कूड़े-करकट व गोबर आदि से कीड़े-मकोड़े बन जाते हैं।

मिस्र वासियों का विश्वास था कि सूर्य की किरणों से नील नदी की कीचड़ के गरम होने पर उससे मेंढक, साँप, चूहे और घड़ियाल तक बन जाते हैं। वॉन हैल्मॉन्ट (1642) ने दावा किया कि पसीने से भीगी गन्दी कमीज को गेहूँ के दानों के साथ अन्धेरे स्थान पर दबाने से 21 दिन में उससे चूहे बन जाते हैं। आज भी हमारे देश में बहुत से लोगों का विश्वास है कि पसीने से चीलर, गंदगी से जुएँ, गोबर से मक्खियाँ तथा गधे के मूत्र से बिच्छु बनते हैं।

दार्शनिक अरस्तू ने इस मत को थोड़ा बदल कर प्रस्तुत किया कि नयी किस्मों के जीव निर्जीव पदार्थ से स्वतः उत्पादन द्वारा बनते हैं। इस प्रकार बने जीव पारस्परिक जनन द्वारा अपनी संख्या में वृद्धि करते हैं। अतः जीवों की नई किस्में निर्जीव पदार्थ से स्वतः उत्पादन से बनती हैं।

जीव जननवाद

17 वीं शताब्दी के बाद से विभिन्न वैज्ञानिकों ने अजीवात् जननवाद का खण्डन किया। हार्वे ने जीव जनन वाद प्रस्तुत किया। इसके अनुसार वर्तमान दशा में पृथ्वी पर निर्जीव पदार्थों से नये जीव नहीं बन सकते। पहले से विद्यमान जीवों के अण्डों, बीजों या बीजाणुओं से ही नये जीव बन सकते हैं। इस मत के समर्थन में वैज्ञानिकों ने निम्नलिखित प्रयोग प्रस्तुत किये-

फ्रांसिस्को रेडी का प्रयोग– इटली के वैज्ञानिक डा. फ्रांसिस्को रेडी ने 1668 में निम्न प्रयोग द्वारा अजीवात् जननवाद का खण्डन किया। उसने कुछ मछलियों को पानी में खूब उबाला ताकि उनमें उपस्थित सभी सूक्ष्म जीव मर जायें। उबली हुई मछलियों को शीशे के तीन जार में रखा एक जार को खुला छोड़ दिया, दूसरे जार का मुंह पार्चमेंट कागज से तथा तीसरे जार का मुँह मलमल से बाँध दिया। कुछ दिनों बाद देखा कि पहले जार में मक्खियों व अन्य कीटों के डिम्भक बन गये हैं, किन्तु दूसरे जार में मक्खियों का नामोनिशान भी नहीं था तथा तीसरे जार पर मक्खियों ने जार के मुख पर बँधे मलमल के टुकड़े पर अण्डे दिये। इस प्रयोग से रेडी ने यह सिद्ध कर दिया कि मांस पर मक्खियों द्वारा दिये गये अण्डों से ही लारवा और नयी मक्खियाँ बनीं।

लैजेरो स्पैलेंजानी का प्रयोग– इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक लैजेरो स्पैलेंजानी ने पौधों तथा जानवरों के शोरबे की बन्द फ्लास्क में पर्याप्त समय तक उबाला जिससे उसमें उपस्थित जीव नष्ट हो गये। तुरन्त फ्लास्क को भली प्रकार बन्द करके वायुरुद्ध कर दिया ताकि फ्लास्क के अन्दर वायु प्रवेश न कर सके। इस फ्लास्क में किसी भी जीव की उत्पत्ति नहीं हुई और न कहीं शोरबा सड़ा। उनका कहना था कि वायु में सूक्ष्मजीव होते हैं, जो खुले मांस या शोरबे पर पहुंचकर नये सूक्ष्म जीव उत्पन्न करते हैं।

अनेक वैज्ञानिकों ने लैजेरो के प्रयोगों एवं उसके परिणामों का यह कहकर विरोध किया कि स्वतः जनन के लिये वायु आवश्यक है। चूंकि लैजेरो ने फ्लास्क को वायुरूद्ध कर दिया था, इस कारण नये जीव की उत्पत्ति न हो सकी।

 

लुई पाश्चर का प्रयोग– फ्राँस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक लुई पाश्चर ने एक फ्लास्क को शर्करा के घोल व यीस्ट के पाउडर से आधा भरा और फ्लास्क की गर्दन को गरम करके ‘S’ के आकार (हंस की गर्दन के समान) में मोड़ दिया। अब फ्लास्क में लिए घोल को खूब उबाला जिससे फ्लास्क की सारी हवा ‘S’ नली में से बाहर निकल गयी। उसने देखा कि बहुत दिनों तक भी इस फ्लास्क में रखा घोल न तो सड़ा ही और न ही उसमें किसी प्रकार के जीव बने। यद्यपि यह मुड़ी हुई नली के द्वारा वायु के सीधे सम्पर्क में है। इसका कारण यह है कि मुड़ी हुई नली द्वारा वायु तो फ्लास्क में प्रवेश कर जाती थी परन्तु वायु में उपस्थित बैक्टीरिया व अन्य सूक्ष्मजीव नली में ही फंस जाते हैं। जब फ्लास्क की ग्रीवा तोड़ दी गयी तो उसके तरल पदार्थ में बहुत से सूक्ष्मजीव उत्पन्न हो गये। इस प्रकार पाश्चर ने यह सिद्ध कर दिया कि जीवाणुरहित माँस के शोरबे में किसी भी प्रकार के जीव की उत्पत्ति असम्भव है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जीव की उत्पत्ति जीव से ही होती है। इसी को ‘ जीवजनन वाद ‘ कहते हैं।

ब्रह्माण्डवाद

रिचर (1865), प्रेयर (1880), हैल्महोट्ज (1884), एरहीनियस (1908), हॉइल (1957) तथा बॉन्डी (1952) आदि का जीवन की अनन्तकालिता में विश्वास था। इनके अनुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति अजीव तथा सजीव पदार्थों की उत्पत्ति के साथ हुई।

रिचर केल्विन तथा एरहीनियस के अनुसार ब्रह्माण्ड के किसी अज्ञात भाग या नक्षत्र से प्रतिरोधी स्पोरों के रूप में तथा हैल्महोज के अनुसार उल्कापिंडों के साथ जीवन आदिपृथ्वी पर आया। सन् 1973 में फ्राँसिस क्रिक एवम् लेसली ऑरगेल ने इस मत का समर्थन किया। अधिकांश वैज्ञानिक इस मत को नहीं मानते क्योंकि अन्तरिक्ष इतना ठंडा, शुष्क व विकिरत है कि इसमें से गुजरने वाले जीव जीवित नहीं रह सकते।

पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति की आधुनिक परिकल्पना अथवा ओपेरिन का सिद्धान्त

रूस के प्रसिद्ध जैव-रसायनज्ञ ए. आई. ओपेरिन (1929) ने नवीनतम खोजों के आधार पर जीवन के उद्भव की जीवन-रसायन परिकल्पना या भौतिकवाद या प्रकृतिवाद प्रस्तुत किया। इस परिकल्पना के अनुसार आज से करोड़ों वर्ष पहले हमारी आदि कालीन पृथ्वी पर इस प्रकार की दशायें थीं कि विशेष भौतिक-रासायनिक क्रियाओं से नये-नये अकार्बनिक व कार्बनिक यौगिक बने। इन यौगकों के विशिष्ट रूप में संगठित एवं संघनित होने पर जटिल यौगिक बने और फिर अजीवित कार्बनिक यौगिकों के सामुच्य से एक ऐसी रचना का निर्माण हुआ जिसमें जीवन के लक्षण विद्यमान थे। इसे ही ओपेरिन का सिद्धान्त कहते हैं। इस मत के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद फिर उस पर जीवन की उत्पत्ति की पूरी प्रक्रिया को निम्नलिखित आठ पदों में बाँटा गया है।

पृथ्वी की उत्पत्ति

आज से लगभग 5 अरब वर्ष पूर्व कॉस्मिक धूल के एक तप्त वाष्प पुंज से पृथ्वी, सूर्य और अन्य ग्रहों का उद्भव हुआ। उस समय पृथ्वी जलती हुई कॉस्मिक गैसों के गोले के रूप में थी। इसका तापमान 5,000°C – 6,000°C था। इसमें हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस व गंधक आदि तत्व परमाणु अवस्था में थे। जैसे-जैसे पृथ्वी ठंडी होती गयी विभिन्न तत्वों ने अपने घनत्व के अनुसार अलग-अलग स्तर बना लिये। लोहा, निकिल व तांबा जैसे भारी तत्वों ने इस गोले के केन्द्र में पहुँच कर क्रोड बनाया।

एल्यूमिनियम व सिलिकॉन, सोडियम, पोटेशियम, आयोडीन, मैग्नीशियम, क्लोरीन, फ्लोरीन, सल्फर आदि जैसे हल्के तत्व मध्य भाग में इक्ट्ठे हो गये तथा हाइड्रोजन, आर्गन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन व कार्बन आदि बाह्य सतह पर तैरने लगे और इन्होंने आदिकालीन पृथ्वी का आद्य वायुमण्डल बनाया। शुरू में पृथ्वी का ताप इतना अधिक था कि विभिन्न तत्वों के परमाणु मुक्त अवस्था में थे। ताप में कमी होने पर इन परमाणुओं के संयोग से अणुओं का निर्माण हुआ।

आदि पृथ्वी का वायुमण्डल

पृथ्वी के आदि वायुमण्डल में हाइड्रोजन सबसे अधिक और सबसे अधिक क्रियाशील थी। इसने आदि वायुमण्डल की आक्सीजन के साथ संयोग करके जल बनाया। बाकी हाइड्रोजन के नाइट्रोजन और कार्बन के साथ संयोग से अमोनिया व मीथेन बने। कार्बन व नाइट्रोजन से साइनोजन बने। तापमान अधिक होने से ये सभी गैस रूप में थे।

पृथ्वी का जीवन के अनुकूल बनना

समय के साथ-साथ पृथ्वी ठंडी होती गयी। कुछ गैसों ने तरल का रूप ले लिया और कुछ तरल ठोस पदार्थों में बदल गये। वायुमण्डल में छाए मीलों गहरे बादल जल के रूप में पृथ्वी पर बरस पड़े। वर्षा का पानी जैसे ही धधकती हुई पृथ्वी के गोले के सम्पर्क में आया, तुरन्त वाष्प के रूप में पुनः वायुमण्डल में जा मिला और यही क्रम लाखों वर्षों तक चलता रहा।

धीरे-धीरे पृथ्वी की सतह ठंडी होती गयी। भारी वर्षा के कारण पृथ्वी की सतह कटने लगी जिससे कहीं पर गड्डे तथा कहीं ऊँचे टीले बन गये। भूकम्प व ज्वालामुखी के कारण पर्वत और घाटियाँ व पर्वतों से नदियाँ, सरिताएं व झरने फूट पड़े। नीची भूमि में पानी के इकट्ठा होने से झील, समुद्र व सागर बने।

वर्षा के पानी में घुलकर वायुमण्डल की अमोनिया व मीथेन भी समुद्र के पानी में एकत्रित होते गये। नदियों द्वारा लाये गये पानी में खनिज लवण प्रचुर मात्रा में थे। ये भी समुद्र में विलीन हो गये। इस प्रकार आदि सागर बने।

पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के चरण या रासायनिक विकास

प्रथम चरण:- सरल अणुओं का निर्माण

आदि पृथ्वी के वायुमंडल में पराबैंगनी किरणों, सौर विकिरण और उच्च ताप के प्रभाव से कार्बन और हाइड्रोजन के संयोग से मीथेन, नाइट्रोजन व हाइड्रोजन के संयोग से अमोनिया तथा ऑक्सीजन व हाइड्रोजन से जल जैसे सरल अणु बने। पृथ्वी के और ठंडा होने पर इनके बहुलीकरण से इथेन, प्रोपेन, ब्यूटेन, ऐथेलीन, एथिलीन, आदि संतृप्त और असंतृप्त हाइड्रोकार्बन बने।

द्वितीय चरण:- सरल कार्बनिक यौगिकों का निर्माण

हाइड्रोकर्बन का जल वाष्प के साथ संयोग करने पर एल्कोहल, एल्डीहाइड्स, कीटोन्स एवम् कार्बनिक अम्ल के सरल अणु बने। बाद में इनके संघनन, बहुलीकरण व ऑक्सीकरण से सरल शर्करायें, ग्लिसरॉल, वसा अम्ल व एमीनो अम्ल बने।

तृतीय चरण:- जटिल कार्बनिक अणुओं का निर्माण

रसायन संश्लेषण द्वारा बने विभिन्न कार्बनिक यौगिक जैसे शर्कराएँ, ग्लिसराल, ऐमीनो अम्ल, वसा अम्ल, प्यूरीन्स व पाइरीमिडीन्स आदि बहुत से यौगिक समुद्र के जल में गरम सूप की तरह उबलते रहे। इन यौगिकों ने इकाइयों के रूप में जुड़कर जटिल कार्बनिक यौगिकों के दीर्घ अणु या पोलीमर जैसे पोलीसैकेराइड्स, वसा, प्रोटीन्स, न्यूक्लिओसाइड्स व न्यूक्लिओटाइड्स का निर्माण किया। हैल्डेन ने आदि सागर को गरम पतला सूप या पूर्वजीवी सूप कहा।

(i) शर्करा के अणुओं के परस्पर संयोजित होने से मांड, सेलूलोस व ग्लाइकोजन आदि पोलीसैकेराइड्स बने।

(ii) वसा अम्लों व ग्लिसरोल के बीच प्रतिक्रिया से वसाओं का निर्माण हुआ।

(iii) एमीनो अम्लों के विभिन्न क्रमों में संयोजित होने पर अनेक लम्बी, जटिल पोलीपेप्टाइड श्रृंखलाएँ बनीं। ये प्रोटीन-संश्लेषण की प्रथम अवस्था को प्रदर्शित करती हैं इनमें से कुछ प्रोटीन एन्जाइम्स के रूप में कार्य करने लगे जिसके फलस्वरूप समुद्र में कुछ विशेष प्रकार के अणुओं के निर्माण की क्रियाएँ तेजी से होने लगीं। अतः प्रोटीन के अणुओं का निर्माण जीवन के उद्भव की एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण घटना थी।

(iv) फॉस्फोरिक अम्ल, शर्करा व कार्बन-नाइट्रोजन के चक्रीय यौगिक न्यूक्लिक अम्ल जैसे प्यूरीन्स तथा पिरीमिडीन्स अणुओं के संयोग से बने यौगिक न्यूक्लिओटाइड्स कहलाये।

सैंकड़ों-हजारों न्यूक्लिओटाइड्स के जुड़ने से पोलीन्यूक्लिओटाइड श्रृंखलायें बनीं और उनसे न्यूक्लीक अम्ल बने।

चौथा चरण:- न्यूक्लिओप्रोटीन्स का निर्माण

प्रोटीन और न्यूक्लीक अम्लों के संयोग से ज़टिल न्यूक्लिओ-प्रोटीन यौगिक बने। कुछ न्यूक्लिओप्रोटीन्स के अणु समुद्र के गरम सूप में उपस्थित विभिन्न कार्बनिक एवम् अकार्बनिक पदार्थों से अपने समान न्यूक्लिओप्रोटीन बनाने लगे। न्यूक्लिओप्रोटीन में अपनी प्रतिलिपि बनाने की क्षमता ही जनन का प्रारम्भ था। इसे अनुलिपिकरण कहते हैं।

अनुलिपिकरण के कारण न्यूक्लिओप्रोटीन्स की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी और इनमें प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। भौतिक और रासायनिक परिवर्तनों के कारण न्यूक्लिओप्रोटीन्स में उत्परिवर्तन होने लगे जिससे नये संयोगों और नये लक्षणों वाले न्यूक्लिओप्रोटीन्स बने। न्यूक्लिओप्रोटीन्स को नग्न जीन्स भी कहते हैं। इनकी तुलना निर्जीव वाइरस से की जा सकती है जो किसी सजीव कोशिका में पहुँचकर सक्रिय हो जाते हैं। अतः न्यूक्लिओप्रोटीन्स के विकास से निर्जीव और सजीव के बीच की सीमा निर्धारित हो गयी। आज भी वायरस को निर्जीव और सजीव के बीच की कड़ी माना जाता है।

पांचवा चरण:- कोलायड्स, कोएसरवेट्स तथा आदि कोशिका का निर्माण

आदि सागर के गर्म सूप में कार्बनिक पदार्थों के अणुओं के इकट्ठा होने से बड़े कोलाइडी कण बने होंगे। विशेषकर प्रोटीन के अणुओं पर विद्युत आवेश होने के कारण, ये एक साथ इकठ्ठे होकर अघुलनशील बूंदों के रूप में पानी में लटकने लगे होंगे। पानी के कण इन बूंदों की सतह पर व्यवस्थित हो गये। इस प्रकार बने कोलाइडी तंत्र या बूंदों को सिडनी एफ. फॉक्स ने प्रोटीनॉयड माइक्रोस्फीयर्स कहा।

विरोधी विद्युतावेशी कोलाइडी बूंदों के इकट्ठा होने से और अधिक बड़े कॉलाइडी तंत्र बने। ओपेरिन ने इन्हें कोएसरवेट कहा। उन्होंने जिलेटिन, गोंद आदि से कृत्रिम कोएसरवेट बनाये।

कुछ कोएसरवेट्स के न्यूक्लिओप्रोटीन केन्द्रक में और उनके बाहर अन्य कार्बनिक पदार्थ पोषक तत्वों के रूप में इकट्ठे हो गये। इनकी सतह पर लिपिड अणुओं के विन्यास से आदिम कोशिका कला बनी। इससे ये कोएसरवेट बाहरी जलीय माध्यम से अलग हो गये। इस प्रकार इन पूर्वजीवी रचनाओं में व्यक्तिकता का विकास हुआ। इनके कुछ प्रोटीन्स एंजाइम्स के रूप में कार्य करने लगे और जैवरासायनिक अभिक्रियाओं की गति को और अधिक द्विविभाजन और कलिकोत्पादन द्वारा इनकी संख्या में भी गुणोत्तर वृद्धि होती गई। इस प्रकार की स्वतंत्र व स्वगुणित बूँद-सदृश इकाइयाँ, आदिम कोशिकायें कहलायी। आदिम कोशिकाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के दो मत हैं-

1-ओपेरिन मत के अनुसार जिन कोएसरवेट्स में न्यूक्लीओप्रोटीन्स थे या जिनमें न्यूक्लिओप्रोटीन्स बने वे ही प्रारम्भिक कोशिका रूपी जीवों में विकसित हुए। इन न्यूक्लिओप्रोटीन्स के चारों ओर खाद्य पदार्थों के खोल बने।

2-होरोविट्ज, लेसली ऑर्गेल आदि के अनुसार आदि सागर में प्रथम जीव ‘नग्न जीन’ के रूप में थे। इन जीन्स के जुड़ने से लम्बी श्रृंखला वाले DNA व RNA अणु बने। इन अणुओं के प्रोटीन के साथ संयोग से न्यूक्लिओप्रोटीन अणु बने जो वाइरस सदृश कण रहे होंगे।

छठा चरण:- आदिजीवों में पोषण-विधियों का विकास

ज्यों-ज्यों कार्बनिक यौगिक उपयोग में आते गये समुद्र में इनकी कमी होती गयी। अतः अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए आदि कोशिकाओं में निम्नलिखित पोषक-विधियों का विकास हुआ-

परजीविता– कुछ आदि कोशिकाओं ने अन्य कोशिकाओं के अन्दर प्रवेश कर उनसे भोजन ग्रहण करना शुरू कर दिया। ऐसे जीवों को परजीवी कहते हैं।

मृतजीविता– कुछ कोशिकाओं को मृत व क्षीण होती हुई कोशिकाओं से भोजन ग्रहण करने में अधिक सुविधा हुई। भोजन ग्रहण करने की इस विधि को मृतजीविता कहते हैं।

प्राणी सदृश– कुछ अन्य कोशिकाओं ने दूसरी जीवित कोशिकाओं को पूरा निगलना शुरू किया। इसके लिए उनमें मुख-सदृश रचनायें विकसित हुई।

रसायन संश्लेषी– कुछ आदि जीवाणु कोशिकाओं में जल व CO2 से कार्बनिक भोजन के निर्माण की क्षमता विकसित हो गई । इसके लिए उन्होने अकार्बनिक अणुओं से आवश्यक ऊर्जा प्राप्त की। यही ऊर्जा CO2 व जल को संश्लेषित कर कार्बनिक भोजन के निर्माण में काम आई।

यह स्वपोषण की शुरूआत थी। क्योंकि इसमें अवायुवीय श्वसन द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का उपयोग होता है। भोजन निर्माण की इस विधि को रसायन संश्लेषण कहते हैं। यह सल्फर बैक्टीरिया में पाया जाता है।

प्रकाश-संश्लेषण– कुछ कोशिकाओं में सूर्य की विकिरण ऊर्जा को रासायनिक यौगिकों के रूप में बंदी करने की विधि का विकास हुआ जिसे प्रकाश – संश्लेषण कहते हैं। इसके लिए उनमें क्लोरोफिल नामक एक हरे रंग के यौगिक का विकास हुआ। क्लोरोफिल अणुओं की सहायता से ये आदिजीव सूर्य की ऊर्जा को लेकर CO2 तथा जल से कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण करते थे। आधुनिक पेड़-पौधे प्रकाश-संश्लेषण द्वारा ही संसार के सभी प्राणियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पोषण करते हैं।

सायनोबैक्टीरिया सम्भवतः प्रथम प्रकाश-संश्लेषी जीव थे। ये लगभग 3.6 अरब वर्ष पहले विकसित हुए। इनसे निकलने वाली ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया गया।

सातवां चरण:- आधुनिक वायुमण्डल का निर्माण

जीव विकास में यह एक महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि वायुमण्डल में मुक्त आक्सीजन आ जाने से निम्नलिखित महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए-

आदिकालीन वायुमण्डल में मीथेन व अमोनिया गैस थीं। ऑक्सीजन ने मीथेन को CO2 और पानी में विघटित किया तथा अमोनिया को जल तथा नाइट्रोजन में विघटित किया।

इस प्रकार अपचायी वायुमण्डल आधुनिक ऑक्सीकारी वायुमण्डल में बदल गया।

मुक्त ऑक्सीजन के वायुमण्डल में मिलने से ऑक्सी-श्वसन पद्धति का विकास हुआ। इससे वायुमण्डल में CO2 पहुँची और इस विधि द्वारा ऊर्जा अधिक उपलब्ध होने के कारण खाद्य पदार्थों की भी बचत हुई।

सौर ऊर्जा तथा विकिरणों की उपस्थिति में ऑक्सीजन अणुओं के संयोग से ओजोन बनी।

आदि वायुमण्डल के लगभग 15 मील ऊपर ओजोन  का स्तर बन गया जिससे हानिकारक पराबैंगनी किरणों के पृथ्वी पर पहुंचने में काफी कमी हुई।

इन महत्वपूर्ण परिवर्तनों के कारण प्रकाश संश्लेषण की घटना को ऑक्सीजन क्रांति कहते हैं।

आठवाँ चरण:- सुकेन्द्रकीय कोशिकाओं का उद्भव

वायुमण्डल में मुक्त ऑक्सीजन के एकत्रित होने पर कुछ आदि प्रोकैरिओटिक कोशिकाओं में ऑक्सीश्वसन या वायवीय श्वसन का आरम्भ हुआ। लगभग 1.5 अरब वर्ष पहले पूर्वकेन्द्रकीय कोशिकाओं से सुकेन्द्रकीय या यूकैरिओटिक कोशिकाओं का उद्भव हुआ। इनसे एककोशिकीय जीवों का विकास हुआ।

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