काव्य सौन्दर्य – Kavya Saundarya ke tatva

काव्य के सौन्दर्य-तत्व मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. भाव-सौन्दर्य
  2. विचार-सौन्दर्य
  3. नाद-सौन्दर्य
  4. अप्रस्तुत-योजना का सौन्दर्य

भाव सौन्दर्य

प्रेम, करुणा, क्रोध, हर्ष, उत्साह आदि का विभिन्न परिस्थितियों में मर्मस्पर्शी चित्रण ही भाव-सौन्दर्य है। भाव-सौन्दर्य को ही साहित्य-शास्त्रियों ने रस कहा है। प्राचीन आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा माना है।

शृंगार, वीर, हास्य, करुण, रौद्र, शान्त, भयानक, अद्भुत और वीभत्स, नौ रस कविता में माने जाते हैं। परवर्ती आचार्यों ने वात्सल्य और भक्ति को भी अलग रस माना है। सूर के बाल-वर्णन में वात्सल्य का, गोपी-प्रेम में श्रृंगार का, भूषण की ‘शिवा बावनी’ में वीर रस का चित्रण है। भाव, विभाव और अनुभाव के योग से रस की निष्पत्ति होती है।

विचार सौन्दर्य

विचारों की उच्चता से काव्य में गरिमा आती है। गरिमापूर्ण कविताएँ प्रेरणादायक भी सिद्ध होती हैं। उत्तम विचारों एवं नैतिक मूल्यों के कारण ही कबीर, रहीम, तुलसी और वृन्द के नीतिपरक दोहे और गिरधर की कुण्डलियाँ अमर हैं। इनमें जीवन की व्यावहारिक-शिक्षा, अनुभव तथा प्रेरणा प्राप्त होती है।

आज की कविता में विचार-सौन्दर्य के प्रचुर उदाहरण मिलते हैं। गुप्तजी की कविता में राष्ट्रीयता और देश-प्रेम आदि का विचार-सौन्दर्य है। ‘दिनकर‘ के काव्य में सत्य, अहिंसा एवं अन्य मानवीय मूल्य हैं। ‘प्रसाद‘ की कविता में राष्ट्रीयता, संस्कृति और गौरवपूर्ण ‘अतीत के रूप में वैचारिक सौन्दर्य देखा जा सकता है।

आधुनिक प्रगतिवादी एवं प्रयोगवादी कवि जनसाधारण का चित्रण, शोषितों एवं दीन-हीनों के प्रति सहानुभूति तथा शोषकों के प्रति विरोध आदि प्रगतिवादी विचारों का ही वर्णन करते हैं।

नाद सौन्दर्य

कविता में छन्द नाद-सौन्दर्य की सृष्टि करता है। छन्द में लय, तुक, गति और प्रवाह का समावेश सही है। वर्ण और शब्द के सार्थक और समुचित विन्यास से कविता में नाद-सौन्दर्य और संगीतात्मकता अनायास आ जाती है एवं कविता का सौन्दर्य बढ़ जाता है। यह सौन्दर्य श्रोता और पाठक के हृदय में आकर्षण पैदा करता है। वर्णों की बार-बार आवृत्ति (अनुप्रास), विभिन्न अर्थ वाले एक ही शब्द के बार-बार प्रयोग (यमक) से कविता में नाद-सौन्दर्य का समावेश होता है, जैसे-

खग-कुल कुलकुल सा बोल रहा।
किसलय का अंचल डोल रहा॥

यहाँ पक्षियों के कलरव में नाद-सौन्दर्य देखा जा सकता है। कवि ने शब्दों के माध्यम से नाद-सौन्दर्य के साथ पक्षियों के समुदाय और हिलते हुए पत्तों का चित्र प्रस्तुत किया है। ‘घन घमण्ड नभ गरजत घोरा‘ अथवा ‘कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि‘ में मेघों का गर्जन-तर्जन तथा नूपुर की ध्वनि का सुमधुर स्वर क्रमशः है। इन दोनों ही स्थलों पर नाद-सौन्दर्य ने भाव भी स्पष्ट किया है और नाद-बिम्ब को साकार कर भाव को गरिमा भी प्रदान की है।

बिहारी के निम्नलिखित दोहे में वायु रूपी कुंजर की चाल का वर्णन है। भ्रमरों की ध्वनि में हाथी के घण्टे की ध्वनि भी सुनाई पड़ती है। कवि की शब्द-योजना में एक चित्र-सा साकार हो उठा है।

रनित भंग घण्टावली झरित दान मधु नीर।
मंद-मंद आवतु चल्यो, कुंजर कुंज समीर॥

इसी प्रकार ‘घनन घनन बज उठी गरज तत्क्षण रणभेरी‘ में मानो रणभेरी प्रत्यक्ष ही बज उठी है। आदि, मध्य अथवा अन्त में तुकान्त शब्दों के प्रयोग से भी नाद-सौन्दर्य उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ-

ढलमल ढलमल चंचल अंचल झलमल झलमल तारा।

इन पंक्तियों में नदी का कल-कल निनाद मुखरित हो उठा है। पदों की आवृत्ति से भी नाद-सौन्दर्य में वृद्धि होती है, जैसे-

हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा।
हमकौं लिख्यौ है कहा, कहन सबै लगीं।

अप्रस्तुत योजना का सौन्दर्य

कवि विभिन्न दृश्यों, रूपों तथा तथ्यों को मर्मस्पर्शी और हृदयग्राही बनाने के लिए अप्रस्तुतों का सहारा लेता है। अप्रस्तुत-योजना में यह आवश्यक है कि उपमेय के लिए जिस उपमान की, प्रकृत के लिए जिस अप्रकृत की और प्रस्तुत के लिए जिस अप्रस्तुत की योजना की जाए, उसमें सादृश्य अवश्य होना चाहिए।

सादृश्य के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि उसमें जिस वस्तु, व्यापार एवं गुण के सदृश जो वस्तु, व्यापार और गुण लाया जाए, वह उसके भाव के अनुकूल हो। इन अप्रस्तुतों के सहयोग से कवि भाव-सौन्दर्य की अनुभूति को सहज एवं सुलभ बनाता है।

कवि कभी रूप-साम्य, कभी धर्म-साम्य और कभी प्रभाव-साम्य के आधार पर दृश्य-बिम्ब उभारकर सौन्दर्य व्यंजित करता है। यथा-

रूप साम्य-

करतल परस्पर शोक से, उनके स्वयं घर्षित हुए,
तब विस्फुटित होते हुए, भुजदण्ड यों दर्शित हुए,
दो पद्म शुण्डों में लिए, दो शुण्ड वाला गज कहीं,
मर्दन करे उनको परस्पर, तो मिले उपमा कहीं।

शुण्ड के समान ही भुजदण्ड भी प्रचण्ड हैं तथा करतल अरुण तथा कोमल हैं, यह प्रभाव आकार-साम्य से ही उत्पन्न हुआ है।

धर्म साम्य-

नवप्रभा परमोज्ज्वलालीक सी गतिमती कुटिला फणिनी समा।
दमकती दुरती धन अंक में विपुल केलि कला खनि दामिनी॥

फणिनी (सर्पिणी) और दामिनी दोनों का धर्म कुटिल गति है। दोनों ही आतंक का प्रभाव उत्पन्न करती हैं।

भाव साम्य-

प्रिय पति, वह मेरा प्राण-प्यारा कहाँ है?
दुःख-जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है?
लख मुख जिसका मैं आज लौं जी सकी हूँ,
वह हृदय हमारा नेत्र-तारा कहाँ है?

यशोदा की विकलता को व्यक्त करने के लिए कवि ने कृष्ण को दुःख-जलनिधि डूबी का सहारा, प्राण-प्यारा, नेत्र-तारा, हृदय हमारा कहा है।

निम्नलिखित पंक्तियों में सादृश्य से श्रद्धा के सहज सौन्दर्य का चित्रण किया है। मेघों के बीच जैसे बिजली तड़पकर चमक पैदा कर देती है, वैसे ही नीले वस्त्रों से घिरी श्रद्धा का सौन्दर्य देखने वाले के मन पर प्रभाव डालता है-

नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग॥

इसी प्रकार-

लता भवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु युग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाइ॥

लता-भवन से प्रकट होते हुए दोनों भाइयों की उत्प्रेक्षा मेघ-पटल से निकलते हुए दो चन्द्रमाओं से की गयी है।

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