मृदा क्या है?-What is soil?

मृदा एक बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन है। मृदा शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सोलम (Solum) से हुई है। जिसका अर्थ होता है- फर्श।

मृदा की परिभाषा

बकमैन एवं ब्रैडी के अनुसार, “मृदा वह प्राकृतिक पिण्ड है जो विच्छेदित एवं अपक्षयित खनिजों एवं कार्बनिक पदार्थों के विलगन से निर्मित पदार्थों के परिवर्तनशील मिश्रण से परिच्छेदिका के रूप में संश्लेषित होती है। यह पृथ्वी को एक पतले आवरण के रूप में ढके रहती है। जल और वायु की उपयुक्त मात्रा के सम्मिश्रण से पौधे को यांत्रिक अवलम्ब और आंशिक अजीविका प्रदान करती है।”

 

मृदा परिच्छेदिका किसे कहते हैं?

किसी भी भूमि की खड़ी काट, जिसमें मृदा के विभिन्न संस्तर दिखलाई पड़ते हैं, मृदा परिच्छेदिका कहलाती है। इन संस्तरों की रचना, मोटाई व गुण भिन्न-भिन्न होते हैं। एक सामान्य परिच्छेदिका चार संस्तर पाये जाते हैं।

प्राथमिक या A संस्तर- यह मिट्टी का सबसे ऊपरी भाग है जो उपजाऊ होता है। पौधों की अधिकांश जड़ें इसी संस्तर में फैली होती हैं।

द्वितीयक या B संस्तर- यह प्राथमिक संस्तर के नीचे का भाग है। इसे अधोमृदा संस्तर कहते हैं।

तृतीयक या C संस्तर- इस संस्तर में कैल्शियम कार्बोनेट एवं सल्फेट के लवणों का जमाव पाया जाता है।

चतुर्थ या D संस्तर- इसमें जैविक क्रियायें नहीं होती हैं और न ही पौधों की जड़ें यहां तक पहुँचती हैं।

मृदाजनन क्या है?

मृदा निर्माण की प्रक्रिया को मृदाजनन कहते हैं। यह एक जटिल तथा निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है। पैतृक शैलें, जलवायु, वनस्पति, स्थानीय उच्चावच एवं जल तथा सूक्ष्म जीव आदि कारक मिलकर मृदा निर्माण करते हैं।

पैतृक शैलें मिट्टी को आधारभूत खनिज तथा पोषक तत्व प्रदान करती हैं, जबकि जलवायु मिट्टी के निर्माण में रासायनिक तथा सूक्ष्म जैविक क्रियाओं को निर्धारित करती है। वनस्पति, मिट्टी में ह्यूमस की मात्रा को निर्धारित करती है।

स्थानीय उच्चावच एवं जल मिट्टी के गठन व उसके pH मान आदि विशेषताओं का निर्धारण करता है। सूक्ष्म जीव मृदा में उपस्थित अपक्षयित पदार्थों का वियोजन करते हैं।

मृदाजनन के प्रक्रम

मृदाजनन के विभिन्न प्रक्रम होते हैं जैसे- लेटरीकरण, पाइजोलीकरण, कैल्सीकरण, लवणीकरण, क्षारीयकरण तथा पीट निर्माण आदि। इन प्रक्रमों को सक्रिय बनाने में जलवायु महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

भारत में मिट्टियों का निर्माण

देश के अधिकांश भाग में अकटिबन्धीय मिट्टियाँ मिलती हैं जिनका निर्माण उनके स्थान पर नहीं हुआ है। ये मिट्टियाँ बहिर्जात प्रक्रमों से निर्मित हुई हैं। जैसे- मैदानी भागों की मिट्टियाँ नदियों द्वारा लाये गये अपरदित पदार्थ से निर्मित हैं, जबकि दक्कन की मिट्टियाँ ज्वालामुखी शैलों से निकले लावा के विखण्डन से बनी हैं।

मृदा संगठन

मृदा के संगठन में ह्यूमस, खनिज पदार्थ, मृदा जल, मृदा वायु तथा मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म जीव भाग लेते हैं।

ह्यूमस या कार्बनिक पदार्थ (5 से 10%)

किसी भी मृदा में पाए जाने वाले सभी विच्छेदित कार्बनिक पदार्थों को ह्यूमस कहते हैं। ह्यूमस सभी प्रकार की मृदाओं में प्रायः कोलॉइडल रूप में पाये जाते हैं। ये मृदा की उर्वरता को बढ़ाते हैं।

उष्ण कटिबंधीय मृदा में ह्यूमस की मात्रा कम होती है जबकि पीट मृदा में ह्यूमस की मात्रा 100% तक हो सकती है।

ह्यूमस का निर्माण विभिन्न “पादप एवं जन्तु” अवशिष्टों के विच्छेदन द्वारा होता है। यह विच्छेदन मृदा में पाये जाने वाले कवक एवं जीवाणु आदि करते हैं।

खनिज पदार्थ ( 40 से 45%)

खनिज पदार्थ मृदा के सबसे महत्वपूर्ण एवं अधिक मात्रा में पाये जाने वाले अवयव हैं। मृदा में पाये जाने वाले खनिजों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है।

1- प्राथमिक खनिज- क्वार्ट्ज, प्लेजियोक्लेज, बायोटाइट, मास्कोवाइट, आर्थोक्लेज, औगाइट आदि।

2- द्वितीयक खनिज- एपेटाइट, कैल्साइट, डोलोमाइट, जिप्सम, लिमोनाइट, हीमेटाइट, केओलिनाइट आदि। इनका निर्माण प्राथमिक खनिजों के रूपांतरण से होता है।

मृदा जल (25%)

मिट्टी में उपस्थित जल को मृदा जल कहा जाता है। प्रायः यह तीन प्रकार का होता है।

1-आद्रताग्राही जल

मिट्टी में उपस्थित वह जल जो कोलॉइडी कणों की सतह पर इसके अणुओं के द्विध्रुवीय विन्यास द्वारा धारित होता है, आद्रताग्राही जल कहलाता है।

2-केशिका जल

आर्द्रताग्राही गुणांक तथा क्षेत्र धारिता के मध्य उपस्थित जल की मात्रा को केशिका जल कहते हैं। यह .33 से 31 वायुमण्डलीय दाब पर धारित होता है। यही जल पौधों के काम आता है।

3-गुरुत्वाकर्षण जल

मिट्टी में जल की वह मात्रा जो .33 वायुमण्डलीय दाब से भी कम दाब पर धारित होती है और जो गुरुत्वाकर्षण बल के कारण नीचे की ओर बहता है, गुरुत्वाकर्षण जल कहलाता है। यह जल फसलों के लिए उपयोगी नहीं होता है।

मृदा के कणों का व्यास

मिट्टी में खनिज अंश विभिन्न प्रकार के कणों के रूप में पाया जाता है। मृदाओं में निम्नलिखित आकार एवं व्यास के कण पाये जाते हैं।

इसे भी जानें- रेगुर मिट्टी किसे कहा जाता है?

बजरी- 5mm से अधिक व्यास वाले कण।

बारीक बजरी- 2mm से 5mm तक व्यास वाले कण।

मोटी बालू- .2mm से 2mm तक व्यास वाले कण।

बारीक बालू- .02mm से .2mm तक व्यास वाले कण

गाद (silt)- .002mm से .02mm तक व्यास वाले कण।

चिकनी मिट्टी (Clay)- .002mm से कम व्यास व्यास वाले कण।

मिट्टी में उपरोक्त कण विभिन्न अनुपातों में पाये जाते हैं। इन कणों के व्यास एवं अनुपात के आधार पर भारत में कई प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

1-बलुई मिट्टी, 2-गाद मृदा, 3-चिकनी मिट्टी, 4-दोमट मिट्टी, 5-चूना मिट्टी, 6-बलुई दोमट मिट्टी आदि।

मृदा की प्रकृति

प्रकृति के आधार पर मृदा मुख्य रूप से अम्लीय, क्षारीय तथा उदासीन प्रकार की होती है। जिस मिट्टी में हाइड्रोजन आयनों की मात्रा अधिक होती है, उसे अम्लीय मृदा कहते हैं। इसका pH मान 7 से कम होता है। जिस मिट्टी में K व Na आदि आयनों की मात्रा अधिक होती है, उसे क्षारीय मृदा कहते हैं। इसका pH मान 7 से अधिक होता है।

भारत की सर्वाधिक उपजाऊ मिट्टी कौन सी है?

उदासीन मृदा में pH का मान 7 होता है। पौधों की वृद्धि सामान्यतः pH 6 से pH 7.5 के मध्य होती है। इसी pH के रेन्ज में पौधे अपनी सारी क्रियायें आसानी से करते हैं। अधिक क्षारीय या अम्लीय मृदा पौधों के लिए हानिकारक होती है।

मृदा के संवर्ग

भारत में मृदा के संवर्ग आकारिकी के आधार पर मुख्य रूप से 11 गणों में विभाजित किये गये हैं।

इन्सेप्टी सॉल

इस गण की मृदाओं में प्रोफाइल के संस्तर अपेक्षाकृत शीघ्र निर्मित होते हैं। इन मृदाओं में मृत्तिका, आयरन एवं एल्युमिनियम का अभाव होता है। भारत के सिन्धु-गंगा मैदान की कई मृदायें तथा ब्रह्मपुत्र घाटी की मृदायें इसी गण में रखी गयी हैं।

मिट्टी का अपरदन करने वाले कारक

एंटीसॉल

ये नवविकसित तथा बिना किसी प्राकृतिक संस्तरों वाली मृदायें हैं। इनमें संस्तरों की रचना प्रारम्भिक अवस्था में होती है। इस गण में अधिक ढाल पर उपस्थित मृदायें, राजस्थान की रेगिस्तानी मृदायें तथा नवीन जलोढ़ मृदाओं को रखा गया है।

एल्फीसॉल

इसमें भूरा से बादामी रंग के पृष्ठ संस्तर, मध्य से उच्च क्षार स्तर तथा सिलिकेट क्ले संचित इल्यूवियल संस्तर होते हैं। भारत की कुछ लाल मिट्टियां तथा कुछ लैटेराइट मिट्टियां इस गण में रखी गयी हैं।

वर्टीसॉल

इस प्रकार की मृदा में मान्टमोरिल्लोंनाइट क्ले की अधिकता होती है। मान्टमोरिल्लोंनाइट क्ले में फूलने और संकुचित होने की प्रवृति होती है। जिस कारण शुष्क होने पर इस गण की मृदा में चौड़ी दरारे बन जाती है। फलस्वरूप कृषि कार्य करने में कठिनाई उत्पन्न होती है। भारत में इस गण के अंतर्गत दक्षिण भारत की काली मृदा आती है।

एरीडीसॉल

ये खनिज मृदायें अधिकतर शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में पायी जाती हैं। इनमें कैल्शियम कार्बोनेट, जिप्सम आदि विलेय लवणों के संचयन के संस्तर पाये जाते हैं। भारत में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा एवं पंजाब में इस प्रकार की मृदायें पायी जाती हैं।

अल्टीसॉल

ये प्रायः नम होती है और गर्म तथा उष्ण जलवायु के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। इनमें आयरन के आक्साइडों के संचयन के कारण ये लाल-पीले रंग की होती हैं। भारत में इस संवर्ग की मृदायें केरल, तमिलनाडु, उड़ीसा आदि में पायी जाती हैं।

मोलीसॉल

इस गण की मृदाओं की प्रमुख विशिष्टता द्विसंयोजी धनायनों की प्रधानता युक्त संस्तर का पाया जाना है।भारत में इस गण के अंतर्गत उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र की कुछ मृदायें, उत्तर पश्चिम हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर पूर्व हिमालय के जंगलों की कुछ मृदायें आती हैं।

स्पोडोसॉल

इस गण की मृदा में कार्बनिक पदार्थ तथा एल्युमिनियम के आयरन आक्साइड का संचयन होता है। जो हल्के भूरे रंग के राख जैसे होते हैं और लीचिंग द्वारा अधिक प्रभावित होते हैं।

हिस्टोसॉल

इस वर्ग में कार्बनिक मृदाओं को सम्मिलित किया गया है। ये मृदायें जल संतृप्त वातावरण में विकसित हुई हैं। भारत में पीट तथा दलदली मृदायें इस गण में आती हैं।

एन्डीसॉल

इस गण में ज्वालामुखी के मुहाने पर बनने वाली मृदायें सम्मिलित की गयी हैं।

ऑक्सीसॉल

ये सर्वाधिक अपक्षयित मृदायें हैं। इनके संस्तर में आयरन तथा एल्युमिनियम के हाइड्रस आक्साइड की प्रधानता होती है। केरल की अधिक अपक्षयित मृदायें इस गण के अंतर्गत आती हैं।

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