रैयतवाड़ी और महालवाड़ी व्यवस्था | Mahalwari and Ryotwari in Hindi

Mahalwari Vyavastha and Ryotwari Vyavastha in Hindi: महालवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari Vyavastha) के अन्तर्गत भूमिकर की इकाई कृषक का खेत नहीं बल्कि ग्राम समुदाय या महल (जागीर का एक भाग) होता था। भूमि पर समस्त ग्राम समुदाय का सम्मिलित रूप से अधिकार होता था। जबकि रैयतवाड़ी भू-राजस्व व्यवस्था (Ryotwari Vyavastha) में प्रत्येक पंजीकृत जमीन धारक को भू-स्वामी स्वीकार कर लिया गया। वह ही राज्य सरकार को भूमिकर देने के लिए उत्तरदायी था। इसके पास भूमि को बेंचने या गिरवी रखने का अधिकार था।

Ryotwari - Raiyatvadi
Ryotwari or Raiyatvadi Vyavastha

रैयतवाड़ी भू-राजस्व व्यवस्था

इस व्यवस्था में भू-स्वामी को अपनी भूमि से उस समय तक वंचित नहीं किया जा सकता था जब तक कि वह समय पर भूमिकर देता रहता था। भूमिकर न देने की स्थिति में उसे भूस्वामित्व के अधिकार से वंचित कर दिया जाता था।

चूंकि इस प्रकार की व्यवस्था में सरकार का सीधे “रैय्यत” से सम्पर्क था। इसलिए इस व्यवस्था को “रैयतवाड़ी व्यवस्था” नाम दिया गया।

इस व्यवस्था के जनक “टॉमस मुनरो तथा कैप्टन रीड” थे। इस व्यवस्था में लगान की दर अस्थायी एवं परिवर्तनशील थी।

यह व्यवस्था मद्रास, बम्बई, पूर्वी बंगाल, असम और कुर्ग क्षेत्र में लागू की गई। यह ब्रिटिश भारत के लगभग 51% भू-भाग पर लागू की गई।

पहली बार रैयतवाड़ी भूमिकर व्यवस्था को 1792 ई. में मद्रास के “बारामहल” जिले में कैप्टन रीड द्वारा लागू किया गया।

जब टॉमस मुनरो बंगाल का गवर्नर (1720 से 1827 ई. तक) बना। तब उसने रैयतवाड़ी व्यवस्था को पूरे मद्रास प्रेसीडेंसी में लागू कर दिया। मद्रास में यह व्यवस्था 30 वर्षों तक लागू रही।

1855 ई. में इस व्यवस्था में सुधार भूमि पैमाइश तथा उर्वरा शक्ति के आधार पर किया गया तथा भूमिकर कुल उपज का 30% निर्धारित किया गया। परन्तु 1864 ई. में इसे बढ़ाकर 50% कर दिया गया।

बम्बई प्रेसीडेंसी में “रैयतवाड़ी व्यवस्था” को 1725 ई. में लागू किया गया। बम्बई में इस व्यवस्था को लागू करने में “एल्फिंस्टन व चैपलिन रिपोर्ट” की मुख्य भूमिका रही।

एल्फिंस्टन 1819 से 1827 ई. तक बम्बई प्रेसीडेंसी के गवर्नर थे। यहाँ पर भूमिकर उपज का 55% निर्धारित किया गया।

1835 ई. के बाद लेफ्टिनेंट बिनगेट ने इस व्यवस्था में सुधार किया। इस में लगान उन भू-खण्डों पर निर्धारित किया गया जिन पर उपज की गयी है न कि भू-स्वामी की समस्त भूमि पर। यह व्यवस्था 30 वर्षों के लिए लागू की गयी।

1861 से 1865 ई. तक अमेरिका में गृहयुद्ध चला। जिससे कपास के मूल्य बहुत बढ़ गये। इस वृद्धि के कारण सर्वेक्षण अधिकारियों ने भूमिकर बढ़ाकर 66% से 100% के मध्य कर दिया।

कृषकों को न्यायालय में अपील करने का भी अधिकार नहीं था। फलस्वरूप कृषकों ने दक्कन में 1875 ई. में विद्रोह कर दिया। जिससे कारण सरकार ने 1879 ई. में दक्कन राहत अधिनियम-1879 पारित किया। जिसमें कृषकों को साहूकारों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान किया गया।

रैयतवाड़ी व्यवस्था के लाभ एवं हानियाँ

इस व्यवस्था का लाभ यह था कि सरकार तथा किसानों के बीच सीधा सम्पर्क स्थापित हुआ। भूमि पर निजी स्वामित्व का लाभ जनसंख्या के बड़े भाग को मिला।

दोष यह था कि लगान की वसूली कठोरता से की जाती थी और लगान की दर काफी ऊँची होती थी। जिसके कारण किसान महाजनों के चंगुल में फंसता चला गया।

Mahalwari - Mahalvadi
Mahalwari or Mahalvadi Vyavastha

महालवाड़ी भू-राजस्व व्यवस्था

इस व्यवस्था के अन्तर्गत भूमिकर की इकाई कृषक का खेत नहीं बल्कि ग्राम समुदाय या महल (जागीर का एक भाग) होता था। भूमि पर समस्त ग्राम समुदाय का सम्मिलित रूप से अधिकार होता था।

ग्राम समुदाय के लोग सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से लगान की अदायगी कर सकते थे। यदि को व्यक्ति अपनी जमीन को छोड़ देता था तो ग्राम समाज इस भूमि को सम्भाल लेता था। ग्राम समाज को ही सम्मिलित भूमि का स्वामी माना जाता था।

लगान को एकत्रित करने का कार्य पूरे ग्राम या महाल समूह का होता था। महाल के अन्तर्गत छोटे एवं बड़े सभी प्रकार के जमींदार आते थे।

महालवाड़ी व्यवस्था का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1819 ई. में “हाल्ट मैकेंजी” ने दिया था। इस व्यवस्था के सम्बन्ध में हाल्ट मैकेंजी ने यह सुझाव दिया कि भूमि का सर्वेक्षण किया जाये, भूमि से सम्बन्धित व्यक्तियों के अधिकारों का व्यरा रखा जाये, लगान के निर्धारण हेतु गांव समूह (महाल) को इकाई के रूप में रखा जाये।

मैकेंजी के सुझावों को 1822 ई. में रेग्यूलेशन-7 के माध्यम से कानूनी रूप दिया गया। इस रेग्यूलेशन के तहत लगान भू-उपज का 80% निश्चित किया गया। लगान की मात्रा अधिक होने के कारण किसानों को समस्या उत्पन्न हुई। तब 1833 ई. में विलियम बैंटिक इसमें संशोधन करके रेग्यूलेशन-9 पारित किया। जिसे मार्टिन बर्ड तथा जेम्स टाम्सन ने क्रियान्वित किया।

इस रेग्यूलेशन में भूमिकर 66% निर्धारित किया गया। क्योंकि यह योजना “मार्टिन बर्ड” की देख रेख में लागू की गयी थी इसलिए उन्हें उत्तरी भारत में ” भू-राजस्व व्यवस्था का जनक” कहा जाता है।

महालवाड़ी व्यवस्था उत्तर प्रदेश, पंजाब मध्य प्रान्त तथा दक्षिण भारत के कुछ जिलों में लागू की गयी। इस व्यवस्था को ब्रिटिश भारत की 30% भूमि पर लागू किया गया।

66% भूमिकर को दे पाना भी किसानों के लिए कठिन हो रहा था। अतः लार्ड डलहौजी ने इसका पुनरीक्षण कर 1855 ई. में “सहारनपुर नियम” के अनुसार लगान की राशि 50% निर्धारित कर दी। इस व्यवस्था का परिणाम भी किसानों के प्रतिकूल रहा। जिसके कारण 1857 ई. के विद्रोह में इस व्यवस्था से प्रभावित लोगों ने हिस्सा लिया।

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