रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोष-Defects of Regulating Act

रेग्यूलेटिंग एक्ट का उद्देश्य कम्पनी के संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में आवश्यक सुधार करना था अर्थात् इसका उद्देश्य उस बुराइयों को दूर करना था, जो कम्पनी के शासन में आ गई थी।

 

लार्ड पैथम के शब्दों में, इसका उद्देश्य कम्पनी के शासन का सुधार था। इस एक्ट में अनेक दोष थे, जिसके कारण कम्पनी का शासन सुचारु रूप से संचालित नहीं हो सका। वास्तव में यह एक्ट जल्दबाजी में पारित किया गया था, जिसके कारण इसमें अनेक दोष रह गए थे।

रेग्यूलेटिंग एक्ट के प्रमुख दोष

गर्वनर जनरल का परिषद् की दया पर निर्भर होना

रेग्यूलेटिंग एक्ट का प्रथम दोष यह था कि गवर्नर जनरल को अपनी परिषद् में बहुमत द्वारा लिए में गए निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था। एक्ट के इस गम्भीर दोष के कारण गवर्नर जनरल और उसकी परिषद के विरोधी सदस्यों के बीच चार वर्ष तक संघर्ष चलता रहा, जो शासन कार्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। पी. ई. रॉबर्टस् के शब्दों में, “सर्वोच्च कार्यालय में इस दीर्घकालीन तथा प्रबल संघर्ष के कारण ब्रिटिश सत्ता तथा कम्पनी के भारतीय प्रशासन को गहरी चोट लगी।”

गवर्नर जनरल का बम्बई तथा मद्रास पर अपूर्ण नियंत्रण

इस एक्ट द्वारा बम्बई तथा मद्रास की सरकारों पर गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल का पूर्ण नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया। इसका एक्ट की धारा IX में कुछ विकट परिस्थितियों में बम्बई तथा मद्रास की सरकारों को गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् की आज्ञा लिए बिना ही भारतीय शासकों के साथ युद्ध अथवा सन्धि करने का अधिकार दिया गया था।

बम्बई तथा मद्रास की सरकार ने इस अधिकार का दुरूपयोग किया और विकट परिस्थितियों का बहाना बनाकर बंगाल के गवर्नर जनरल को बिना सूचना दिए मराठों और हैदरअली के साथ युद्ध लड़े। इन युद्धों के परिणामस्वरूप जन तथा धन की हानि हुई और कम्पनी सरकार की प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचा। अन्य मामलों में भी बम्बई तथा मद्रास की सरकारें कार्य करने के लिए स्वतंत्र थी। इससे कालान्तर में कम्पनी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

गवर्नर जनरल तथा सुप्रीम कोर्ट का झगड़ा

गवर्नर जनरल और सर्वोच्च न्यायालय में सर्वोच्च कौन था। इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई थी। इस क्षेत्रीय अस्पष्टता के कारण दोनों में अधिकार क्षेत्र के लिए प्राय : झगड़ा हो जाता था। एक ओर, गवर्नर जनरल ने मुगल सम्राट से शक्तियाँ प्राप्त की थी, जिसको ब्रिटिश संसद ठीक तरह से निर्धारित नहीं कर सकी। दूसरी ओर, गवर्नर जनरल द्वारा बनाई गई विधियों को सर्वोच्च न्यायालय को रद्द करने का अधिकार प्रदान  दिया गया था। इस कारण गर्वनर जनरल और उसकी कौंसिल का सुप्रीम कोर्ट के साथ झगड़ा चलता रहा। जिसका कम्पनी के प्रशासन पर हानिकारक प्रभाव पड़ा।

सर्वोच्च न्यायालय का अस्पष्ट क्षेत्राधिकार

इस एक्ट का महत्त्वपूर्ण दोष यह था कि इसमें सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों और अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट रूप से व्याख्या नहीं की गई थी। सुप्रीम कोर्ट का दावा था कि उसको देश के सारे निवासियों के नाम आदेश जारी करने तथा उनके मुकदमें सुनने का अधिकार है, जबकि गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल सुप्रीम कोर्ट के इस अधिकार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी।

विधि की अस्पष्टता

इस एक्ट में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि कौन से कानून (हिन्दू कानून या मुस्लिम कानून या अंग्रेजी कानून) के आधार पर न्याय किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के जज केवल अंग्रेज कानून जानते थे। हिन्दुओं तथा मुसलमानों के कानूनों तथा रीति-रिवाजों से अनभिज्ञ थे। अतः वे अंग्रेजी विधि से नागरिकों के मामलों की सुनवाई करते थे ल। इससे भारतीयों को बहुत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इस प्रकार, उन्हें वांछित न्याय नहीं मिल पाता था।

कम्पनी के संविधान में दोषपूर्ण परिवर्तन

इस एक्ट द्वारा एक हजार पौण्ड के हिस्सेदारों को ही संचालन मण्डल के सदस्यों के चुनाव में मतदान करने का अधिकार था। इससे 1246 हिस्सेदार, जिनके हिस्से एक हाजर पौण्ड से कम मूल्य के थे, मताधिकार से वंचित हो गए। बड़े हिस्सेदारों को एक से अधिक मत देने का अधिकार दिया गया, जिसके कारण भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिला।

कमजोर कार्यपालिका

इस एक्ट के अन्तर्गत दुर्बल कार्यपालिका की रचना की गई थी। गवर्नर जनरल अपनी कौंसिल के सामने शक्तिहीन था। कौंसिल या कार्यकारिणी स्वयं भी सुप्रीम कोर्ट के सामने शक्ति हीन थी। वस्तुत: इस एक्ट में यह व्यवस्था करके गवर्नर जनरल द्वारा बनाए गए, कानूनों या अध्यादेशों पर सर्वोच्च न्यायालय की स्वीकृति प्राप्त की जानी चाहिए, कार्यकालिका को दुर्बल कर दिया गया।

संक्षेप में पी.ई. रॉबर्ट्स के अनुसार, इस अधिनियम ने न तो राज्यों को कम्पनी के ऊपर सुनिश्चित नियंत्रण प्रदान किया और न कलकत्ता को अपने कर्मचारियों पर, न महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) को अपनी परिषद् पर और न कलकत्ता प्रेसीडेन्सी को मद्रास और बॉम्बे की प्रेसीडेन्सियों पर सुनिश्चित नियंत्रण प्रदान किया।

रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों के कारण

ब्रिटिश पार्लियामेन्ट को एक ऐसी समस्या सुलझानी पड़ी, जो एकदम बिलकुल नई थी। 1765 ई. तक कम्पनी मुगल सम्राट की दीवान बन चुकी थी। इस नाते पार्लियामेंट उसके भारतीय प्रदेशों पर अपनी प्रभुसत्ता घोषित करने से हिचकिचाती थी। यही कारण था कि पार्लियामेंट कम्पनी के मामलों में आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप नहीं करना चाहती थी। ऐसी परिस्थितियों में एक्ट की धाराओं का अस्पष्ट तथा दोषपूर्ण होना कोई बड़ी बात नहीं थी।

ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्यों को भारतीय मामलों के सम्बन्ध में विशेष ज्ञान नहीं था। ब्रिटिश सरकार को भी उस समय भारत की स्थिति और उसकी समस्याओं के हल का ठीक तरह पता नहीं था। उसके पास कुछ ऐसे विश्वसनीय व्यक्ति भी न थे, जो उसे इस विषय पर आवश्यक परामर्श दे सकते। अतः दक्ष-मंत्रणा के अभाव में इस अधिनियम को बनाने वालों का गलती करना स्वाभाविक था।

इल्बर्ट ने लिखा है, एक्ट में दोषों का होना स्वाभिवाक था। कुछ तो इसलिए की समस्या इस प्रकार की थी और कुछ इसलिए की पार्लियामेंट के सम्मुख एक कठिन संवैधानिक प्रश्न था।

लार्ड नार्थ जिसने यह बिल पेश किया, दृढ़ विचारों का व्यक्ति नहीं था। उसे निर्णायक कार्य करने की आदत बहुत कम थी। वह शासकीय क्षेत्र में अधिक परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं था। इसलिए भी रेग्यूलेटिंग एक्ट स्पष्ट तथा सुनिश्चित पग मार्गदर्शक नहीं हुआ।

रेग्यूलेटिंग एक्ट-1773

रेग्यूलेटिंग एक्ट का महत्व

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