भारत में वनों के प्रकार-types of forests in india

भारत अत्यधिक विविधतापूर्ण जलवायु एवं मृदा वाला देश है। इसीलिए यहाँ कई प्रकार के वन पाये जाते हैं। किसी भी देश में वनों के प्रकार कई भौगोलिक तत्वों निर्भर करते हैं जिनमें वर्षा, तापमान, आद्रता, मिट्टी की प्रकृति, भूमि की समुद्र तल से ऊंचाई तथा भूगर्भिक संरचना आदि तत्व महत्वपूर्ण हैं।

 

भारत में वन वर्षा का अनुसरण करते हैं। जिन भागों में भारी वर्षा होती है वहाँ घने वन हैं। सामान्य वर्षा वाले भागों में खुले वन तथा कम वर्षा वाले भागों में कटीले वन व झाड़ियां पायी जाती हैं। सामान्य रूप से भारत में वनों के निम्नलिखित प्रकार से किया गया है।

उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन

ये वन भारत के अत्यधिक आद्र तथा उष्ण भागों में मिलते हैं। इन क्षेत्रों में औसत वार्षिक वर्षा 200 सेमी. से अधिक तथा सापेक्ष आद्रता 70% से अधिक होती है। इन क्षेत्रों में औसत तापमान 25℃ के आसपास रहता है।

उच्च आद्रता तथा तापमान के कारण ये वन बहुत घने तथा इनमें 45 से 60 मीटर ऊंचे वृक्ष पाये जाते हैं। विभिन्न जाति के वृक्षों के पत्तों के गिरने का समय भिन्न भिन्न होता है। जिस कारण सम्पूर्ण वन सदाबहार रहता है।

भारत में उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन असम, केरल, पश्चिम बंगाल, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम, पश्चिमी तटीय मैदान, हिमालय की तराई तथा कर्नाटक के पश्चिमी भागों में मिलते हैं।

सदाबहार वनों में मुख्य रूप से ताड़, महोगनी, नारियल, एबोनी, आबनूस, बांस, रोजवुड, सिनकोना, रबड़ व बेंत के पेड़-पौधे उगते हैं। भारत में इस प्रकार के वन लगभग 45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर पाये जाते हैं।

उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वनों को उत्तरी सह्याद्रि प्रदेश में शोलास वन नाम से जाना जाता है। विषुवतीय वनों की तरह ही इन वनों की लकड़ियां कठोर होती हैं। अंडमान निकोबार द्वीप समूह का 95% भाग इन्हीं वनों से ढका है।

उष्ण कटिबंधीय अर्ध-सदाबहार वन

ये वन सदाबहार वन तथा आद्र पर्णपाती वनों के मिश्रित रूप हैं। इनमें मुख्य रूप से साइडर, होलक व कैल वृक्ष प्रजातियां पायी जाती हैं।

उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन/मानसूनी वन

ये वन 100 से 200 सेमी. वर्षा वाले क्षेत्रों में मिलते हैं। भारत में इस प्रकार के वन बहुतायत में पाये जाते हैं। ये वन गर्मी के प्रारम्भ में ही अपनी पत्तियां गिरा देते हैं। इसीलिए इन्हें पतझड़ वाले वन कहा जाता है।

मानसूनी वनों में साल, सागौन, शीशम, चन्दन, आम, साखू, हरड़-बहेरा, आंवला, महुआ एवं हल्दू व बांस के वृक्ष पाये जाते हैं। इस प्रकार के वनों का विस्तार हिमालय के गिरिपाद, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु के पश्चिमी घाट के पूर्वी ढालों पर, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, झारखंड, उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड में पाया जाता है।

इन वनों की लकड़ी मुलायम, मजबूत और टिकाऊ होती है। ये देश के सर्वाधिक महत्व वाले वन हैं। भारत के लगभग 220 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर इस प्रकार के वन पाये जाते हैं।

उष्ण कटिबन्धीय शुष्क पर्णपाती वन

ये वन उन क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहाँ वार्षिक वर्षा 70 से 100 सेमी. होती है। इनका मुख्य विस्तार उत्तर प्रदेश, मध्य गंगा मैदान, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि क्षेत्रों में पाया जाता है।

भारत में सिंचाई की परियोजनाएं

इन वनों में मुख्य रूप से शीशम, बबूल, चन्दन, आम, महुआ वृक्ष पाये जाते हैं। इनसे प्राप्त लकड़ी आर्थिक रूप से मूल्यवान होती है।

मरुस्थलीय वन

मरुस्थलीय वन उन क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहाँ वर्षा 50 सेमी. से कम होती है। इन क्षेत्रों में वन छोटे छोटे वृक्षों व कंटीली झाड़ियों के रूप में होते हैं। इन वृक्षों की छाल मोटी व पत्तियां कांटों में रूपांतरित होती है।जिससे कि जल का वाष्पीकरण कम हो।

इन वनों में बबूल, खजूर, नागफनी, खेजड़ा, रीठा, बेर, आंवला, रोहिड़ा एवं करील के वृक्ष अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। भारत में इस प्रकार के वनों का विस्तार राजस्थान, दक्षिणी-पश्चिमी पंजाब व हरियाणा, मध्य प्रदेश के इंदौर से आंध्र प्रदेश के कुर्नुल तक है। इनसे प्राप्त लकड़ी का उपयोग केवल ईंधन के लिए किया जाता है।

डेल्टाई वन

इन्हें मैंग्रोव अथवा ज्वारीय अथवा दलदली वन भी कहते हैं। इस प्रकार के वन नदियों के डेल्टाओं में पाये जाते हैं। जहाँ नदियों का ताजा जल समुद्री जल से मिलता है। समुद्र के खारे जल के प्रभाव के कारण यहाँ के वृक्षों की लकड़ी कठोर तथा छाल क्षारीय होती है। इन वृक्षों की लकड़ी का उपयोग नाव बनाने तथा छाल का उपयोग चमड़ा पकाने तथा रंगने में किया जाता है।

फॉरेस्ट से मिलने वाले प्रत्यक्ष लाभ

भारत में ये वन गंगा, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, कृष्णा आदि नदियों के डेल्टाओं में उगते हैं। इसके प्रमुख वृक्ष मैंग्रोव, गोरने, ताड़, कैसुरिना, नारियल, फोनिक्स, नीपा व सुंदरी हैं।

गंगा-ब्रह्मपुत्र के डेल्टा में सुंदरी नामक वृक्ष बहुलता में पाया जाता है। इसे सुन्दरवन वन भी कहते हैं। डेल्टाई वनों में उच्च जैव विविधता पायी जाती है।

पर्वतीय वन

ये वन पर्वतीय क्षेत्र में उगते हैं। ये वन ऊंचाई के साथ बदलते रहते हैं। क्योंकि ऊंचाई बढ़ने के साथ जलवायुविक दशाओं में परिवर्तन आता है। यहाँ ऊंचाई के बढ़ते क्रम में उष्ण कटिबंधीय से लेकर अल्पाइन क्रम के वृक्ष मिलते हैं।

हिमालय पर 1500 मी. की ऊंचाई तक सदाबहार एवं पतझड़ वाले वन मिलते हैं। 1500 से 2500 मी. की ऊंचाई तक शीतोष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले वन पाये जाते हैं। इनमें ओक, देवदार, बर्च व मैपिल के वृक्ष उगते हैं। 2500 से 4500 मी. की ऊंचाई तक कोणधारी वन उगते हैं। इन वनों में फर, स्प्रूस, चीड़, सनोवर तथा ब्लूपाइन वृक्षों की अधिकता होती है।

4500 से 4800 मी. की ऊंचाई तक टुण्ड्रा तुल्य वन उगते हैं। इन भागों में घास, काई तथा लाइकेन उगते हैं। 4800 मी. से अधिक ऊंचाई पर सदैव बर्फ जमी रहती है।

सामाजिक वानिकी कार्यक्रम

दक्षिणी भारत में पर्वतीय वन मुख्यतः तीन भागों में मिलते हैं:- पश्चिमी घाट, विंध्याचल और नीलगिरि पर्वत श्रृंखलाएं। चूंकि ये श्रृंखलाएं उष्ण कटिबन्ध में पड़ती हैं तथा इनकी समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 1500 मी. होती है। इसीलिए यहाँ निम्न क्षेत्रों में उपोष्ण कटिबन्धीय तथा ऊंचाई वाले क्षेत्रों में शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रकार की वनस्पति पायी जाती है।

इन वनों में पाये जाने वाले वृक्षों में मगनोलिया, लैरेल, सिनकोना और वैटल का आर्थिक महत्व है। ये वन सतपुड़ा और मैकाल श्रेणियों में भी पाये जाते हैं।

वन्य जीव संरक्षण या सुरक्षा अधिनियम-1972

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