भारत के संवैधानिक इतिहास में चार्टर एक्ट का प्रारम्भ ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना से होता है। सन 1600 ई. के चार्टर एक्ट ईस्ट इंडिया कम्पनी को पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने अधिकार दिया गया था।
चार्टर एक्ट क्या है?
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए ब्रिटिश संसद समय-समय पर विभिन्न आदेश-पत्र जारी करती थी। इन आदेश-पत्रों को ही चार्टर एक्ट कहा गया। चार्टर एक्ट को हिन्दी में राजलेख कहते हैं।
1600 ई. का चार्टर एक्ट या राजलेख
भारत का संवैधानिक इतिहास ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के साथ प्रारम्भ होता है। यह कार्य एक राजलेख के माध्यम से किया गया, जिसे सन् 1600 ई. का राजलेख कहा गया। इस राजलेख के माध्यम से महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने 31 दिसम्बर 1600 ई. को ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ की स्थापना कर उसे पूर्वी देशों में 15 वर्षों तक व्यापार करने का अधिकार प्रदान किया।
स्थापना के समय कम्पनी की कुल पूँजी 30133 पौण्ड थी तथा इसमें कुल 217 भागीदार थे। इस कम्पनी का प्रशासन एक परिषद को सौंपा गया जिसमें गर्वनर, उप-गर्वनर सहित कुल 26 सदस्य थे।इस परिषद को “गर्वनर और उसकी परिषद” नाम दिया गया। बाद में इसी परिषद को “कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स” नाम से जाना गया।
भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना किस चार्टर एक्ट के तहत की गयी?
1600 ई0 के चार्टर एक्ट के तहत
महारानी एलिजाबेथ ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना कर किसकी अध्यक्षता में पूर्वी देशों में व्यापार करने की आज्ञा प्रदान की थी?
लार्ड मेयर अध्यक्षता में
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में अपना कार्य कहाँ से प्रारम्भ किया?
सूरत से
आंग्ल-भारतीय विधि-संहिताओं के निर्माण एवं विकास की नीव कहाँ से प्रारम्भ होती है?
1600 ई0 के चार्टर से
1726 ई. का चार्टर एक्ट या राजलेख
इस राजलेख द्वारा कोलकाता, मुम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सियों के राज्यपालों तथा उनकी परिषद को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गयी। इसके पहले यह शक्ति इंग्लैण्ड स्थित निदेशक मण्डल में निहित थी।
1793 का चार्टर एक्ट
लार्ड कार्नवालिस के शासन काल के अन्तिम दिनों में संसद ने 1793 का चार्टर एक्ट पारित किया। यह एक्ट संगठन की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पग था जिसमे पूर्वगामी एक्टों की बहुत-सी धाराओं को सम्मिलित किया गया था।
1793 ई. में पारित चार्टर अधिनियम द्वारा कंपनी के भारत के साथ व्यापारिक एकाधिकार को अगले बीस वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया और गवर्नर जनरल के अधिकार क्षेत्र में बम्बई और मद्रास के गवर्नर को भी शामिल कर दिया गया।
1793 के चार्टर अधिनियम की विशेषताएं
यह अधिनियम कम्पनी को व्यापारिक विशेषाधिकार प्रदान करता है और अगले बीस वर्षों के लिए उन्हें नवीनीकृत करता है।
गवर्नर जनरल के अधिकार क्षेत्र में बम्बई और मद्रास के गवर्नर को भी शामिल कर दिये गये।
1793 का चार्टर एक्ट पारित होने के कारण
भारत में व्यापार करने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी को अपने कार्यकाल का नवीनीकरण करण ब्रिटिश सम्राट से करवाना पड़ता था। 1773 ई. में कम्पनी को अगले बीस वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का समय बढ़ाया गया था। यह समय 1793 ई . मे समाप्त हो गया। अतः कम्पनी के अधिकारियों ने कार्यकाल के नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की।
ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने बिना किसी विशेष आनाकानी के 1793 का चार्टर एक्ट पारित कर कम्पनी के कार्यकाल का अगले बीस वर्ष के लिए नवीनीकरण कर दिया। यह एक्ट इतनी शान्ति के पास हुआ कि उसका उदाहरण ब्रिटिश संसद के इतिहास में उपलब्ध नहीं होता।
चार्टर एक्ट 1793 की प्रमुख धाराएँ
इस एक्ट द्वारा कम्पनी को 20 वर्ष के लिए दोबारा पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया।
इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के आर्थिक ढाँचे को नियमित किया गया।
नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों और कर्मचारियों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई।
गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल के उन निर्णयों की उपेक्षा करने का अधिकार दिया गया, जिनसे भारत में शान्ति व्यवस्था, सुरक्षा तथा अंग्रेजी प्रदेशों के हितों पर किसी प्रकार का भी प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो। उसे न्याय, विधि तथा कर सम्बन्धी मामलों में कौंसिल के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था।
प्रधान सेनापति के लिए किसी भी परिषद का सदस्य होने की अनिवार्यता को खतम कर दिया गया। इससे पहले प्रधान सेनापति के लिए कौंसिल का सदस्य होना जरूरी था।
गवर्नर जनरल को भारतीय रियासतों के साथ युद्ध और सन्धि से सम्बन्धित मामलों पर नियंत्रण तथा निर्देशन का अधिकार दिया गया।
इस एक्ट में प्रावधान किया गया कि गवर्नर-जनरल, गवर्नर, प्रधान सेनापति तथा कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को भारत से बाहर जाने की छुटी नहीं मिल सकती थी यदि कोई अधिकारी बिना अनुमति लिए भारत से बाहर जाएगा तो उसका त्याग-पत्र समझा जाएगा।
जब गवर्नर जनरल किसी प्रान्त का दौरा करेगा, तो उस समय प्रान्तीय शासन प्रबन्ध गवर्नर के स्थान पर गवर्नर जनरल के हाथों में होगा।
यदि गवर्नर जनरल किसी कारण से बंगाल से बाहर जाता है तो वह किसी भी कौंसिल के सदस्य को अपनी कौंसिल का उपाध्यक्ष नियुक्त कर देगा।
कलकत्ता के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार बढ़ाकर खुले समुद्रों तक कर दिया गया।
नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों के लिए प्रिवी कौंसिलर होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गयी।
शराब बेचने वालों के लिए लाइसैन्स आवश्यक कर दिया गया।
गवर्नर जनरल को किसी भी प्रेसीडेन्सी में शान्ति के न्यायाधीश नामक न्यायाधिकारी नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। शान्ति न्यायाधीश नियुक्ति होने वाला व्यक्ति नागरिक सेवा का अधिकारी अवश्य होना चाहिए।
1813 का चार्टर एक्ट
1793 ई. के एक्ट के द्वारा कम्पनी को पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का एकाधिकार 20 वर्ष के लिए दिया गया था। यह अवधि 1813 ई. में समाप्त होने वाली थी। अतः कम्पनी के संचालकों ने अधिकार पत्र के नवीनीकरण के लिए संसद से प्रार्थना की।
1813 के चार्टर एक्ट की विशेषताएं
इस चार्टर के माध्यम से कम्पनी के अधीन भारतीय क्षेत्रों पर ब्रिटेन के सम्राट की सम्प्रभुता साबित की गयी।
स्थानीय निकायों को सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक क्षेत्र में आने वाले लोगों पर भी कर लगाने का अधिकार दिया गया।
भारतीय साहित्य के नवीनीकरण और विज्ञान के उत्थान हेतु वित्तीय प्रावधानों को शामिल किया गया।
ईसाई मिशनरियों को भारत में आने का और ईसाई धर्म का प्रसार करने का अधिकार दिया गया।
1813 के चार्टर एक्ट के पारित होने के कारण
1808 ई. से फ्रान्स के शासक नेपोलियन ने ब्रिटिश व्यापार के लिए यूरोप महाद्वीप की नाकेबन्दी कर दी थी जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों के व्यापार को बहुत गहरा धक्का पहुँचा था। इसलिए अंग्रेज व्यापारियों ने कहा कि कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर सब देशवासियों को भारत के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता दी जाए।
कम्पनी के दुर्भाग्य से उस समय ऐडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित व्यक्तिवादी सिद्धान्त इंग्लैण्ड में बहुत लोकप्रिय था। अतः वहाँ का व्यापारी वर्ग कम्पनी के एकाधिकार पर आक्रमण करने लगा। दूसरे शब्दों में इंग्लैण्ड में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार का प्रबल विरोध हो रहा था।
ईसाई धर्म प्रचारकों ने पार्लियामेन्ट के अन्दर और बाहर यह आन्दोलन चलाया कि उन्हें भारत में धर्म प्रचार के लिए विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।
वेलेजली ने भारत में युद्ध और विजय की नीति का अनुसरण किया, जिसके कारण भारत में ब्रिटिश राज्य क्षेत्र का बहुत अधिक विस्तार हो गया था। कम्पनी एक व्यापारिक संस्था से अधिक राजनीतिक सम्प्रभु बन गई थी। अतः ब्रिटिश संसद को कुछ कानून बनाना आवश्यक हो गया।
1813 के चार्टर एक्ट की प्रमुख धाराएँ या उपबन्ध
इस एक्ट द्वारा ब्रिटिश संसद ने कम्पनी को आगामी 20 वर्ष के लिए भारत के साथ व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई।
कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और सभी अंग्रेज व्यापारियों को भारत से व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई।
चाय का व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार का एकाधिकार कम्पनी के हाथों में ही सुरक्षित रहने दिया गया। यह सुविधा इसलिए दी गई थी ताकि वह इन साधनों की आय से अपना भारतीय शासन प्रबन्ध आसानी से चला सके।
भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए अनुमति दे दी गई और इसके लिए अधिकारियों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। भारत में ईसाई धर्म तथा पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार के लिए यह पहला कदम था।
कम्पनी ने भारतीयों में शिक्षा प्रसार, उनके साहित्य का उत्थान और विज्ञान के प्रचार के लिए एक लाख प्रतिवर्ष खर्च करने की व्यवस्था की।
कम्पनी को अपने व्यापारिक खातों तथा शासन सम्बन्धी खातों को अलग-अलग रखने का आदेश दिया गया।
भारत में कम्पनी के प्रदेशों की स्थानीय सरकारों को (सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में रहते हुए) जनता पर टैक्स लगाने का अधिकार दिया गया।
भारतीय राजस्व से वेतन पाने वाली ब्रिटिश सेना की संख्या 29,000 निश्चित की गई। इसके अतिरिक्त कम्पनी को यह शक्ति प्रदान की गई कि वह भारतीय सैनिकों के लिए कानून तथा नियम बना सके।
1813 के चार्टर एक्ट का महत्व
पूर्ववर्ती अधिनियम की भाँति 1813 के चार्टर एक्ट का भी विशेष महत्त्व नहीं था। फिर भी यह एकदम महत्त्वहीन नहीं कहा जा सकता है। इसके द्वारा भारतीय व्यापार पर कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और सम्पूर्ण ब्रिटिश प्रजा को भारत से व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया। ब्रिटिश पूँजी और उद्यम के स्वतंत्र आगमन ने भारत में शोषण का एक युग शुरू किया। अंग्रेज व्यापारियों ने अपने बढ़िया तथा सस्ते माल के बल पर भारतीय व्यापार तथा उद्योगों को गहरी चोट पहुँचाई। इसके बाद भारत उद्योग-प्रधान देश न रहकर कृषि प्रधान देश रह गया।
यह एक्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि कम्पनी के प्रदेशों पर वास्तविक सत्ता इंग्लैण्ड नरेश की मानी गई थी। संवैधानिक दृष्टिकोण से यह घोषणा बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी।
इस एक्ट का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसके द्वारा भारतीयों की शिक्षा के लिए भी एक लाख रूपये प्रतिवर्ष खर्च करने की व्यवस्था की गई।
यह एक्ट इस श्रेय का अधिकारी है कि इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार ने पहली बार भारतीयों के सैनिक तथा बौद्धिक उत्थान का दायित्व अपने ऊपर लिया। इसके अतिरिक्त इस एक्ट ने शिक्षा क्षेत्र में कदम उठाने के लिए आधार भी प्रदान किया।
इस एक्ट द्वारा भारत में ईसाई मिशनरियों को ईसाई धर्म का प्रचार करने की आज्ञा दे दी गई। इसलिए उन्होंने भारत में अनेक स्थानों पर गिरजे, स्कूल तथा कॉलेज स्थापित किए और उनके माध्यम से भारतीयों में धर्म प्रचार किया।
1833 का चार्टर एक्ट
1833 ई. का चार्टर अधिनियम इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति का परिणाम था ताकि इंग्लैंड में मुक्त व्यापार नीति के आधार पर बड़ी मात्रा में उत्पादित माल भारतीय बाजार में भेजा जा सके। अतः चार्टर अधिनियम उदारवादी संकल्पना के आधार पर तैयार किया गया था। 1833 के चार्टर एक्ट ने कम्पनी के प्रशासन में बहुमुखी तथा महत्त्वपूर्ण ने परिवर्तन किए।
1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी को भारतीय प्रदेश तथा उनका राजस्व प्रबन्ध 20 वर्षों के लिए सौंपा गया। यह समय 1833 ई. में समाप्त हुआ और कम्पनी के संचालको ने चार्टर के नवीनीकरण हेतु संसद को प्रार्थना की। ब्रिटिश संसद ने 1833 के चार्टर अधिनियम द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को अगले बीस वर्षों तक भारत पर शासन करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया।
1833 के चार्टर एक्ट की विशेषताएं
इस अधिनियम द्वारा कंपनी के अधीन क्षेत्रों व भारत के उपनिवेशीकरण को वैधता प्रदान कर दी गयी।
इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापारिक कंपनी का दर्जा समाप्त कर दिया गया और वह अब केवल प्रशासनिक निकाय मात्र रह गयी थी।
बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल कहा जाने लगा। लॉर्ड विलियम बेंटिक को ब्रिटिश भारत का प्रथम गवर्नर जनरल बनाया गया।
केंद्रीय सरकार का राजस्व वृद्धि और व्यय पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया गया। अतः सभी वित्तीय व प्रशासनिक शक्तियों का केन्द्रीकरण गवर्नर जनरल के हाथों में कर दिया गया।
गवर्नर जनरल की परिषद् के सदस्यों की संख्या को पुन: बढ़ाकर चार कर दिया। जिसे पिट्स इंडिया एक्ट द्वारा घटाकर तीन कर दिया गया था।
1833 के चार्टर एक्ट की प्रमुख धाराएँ
लार्ड विलियम बैंटिक के शासनकाल में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट द्वारा 1833 का चार्टर एक पारित किया गया। इस एक्ट के द्वारा कम्पनी की स्थिति, संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं-
इस एक्ट द्वारा भारत में कम्पनी का शासन और राजनीतिक सत्ता की अवधि 20 वर्ष तक के लिए बढ़ा दी गई।
कम्पनी की कुछ व्यापारिक सुविधाओं को छीन लिया गया तथा चीन के साथ व्यापार करने का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया।
इस एक्ट द्वारा कम्पनी के शासन सम्बन्धी अधिकारों को भी सीमित कर दिया गया। एक्ट में यह स्पष्ट कर दिया गया कि भारतीय प्रदेश कम्पनी के पास ब्रिटिश सम्राट तथा उसके उत्तराधिकारियों की अमानत के रूप में होंगे।
इस एक्ट के पूर्व अंग्रेज व्यापारियों और मिशनरियों को भारत आने के लिए लाइसेन्स लेना पड़ता था। परन्तु 1833 के एक्ट के द्वारा लाइसेन्स लेने का प्रतिबन्ध हटा दिया गया तथा अंग्रेजों को भारत के किसी भी भाग में बसने, भूमि खरीदने तथा निवास स्थान बनाने का अधिकार दे दिया गया।
इस एक्ट द्वारा केन्द्रीय सरकार की शक्तियों में वृद्धि कर दी गई तथा प्रान्तीय सरकारों की स्थित को घटा दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को समस्त भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया।
गवर्नर जनरल को कम्पनी के भारतीय प्रदेशों के समस्त सैनिक तथा असैनिक प्रशासन प्रबन्ध का नियंत्रण निर्देशन और अधीक्षण करने के अधिकार दिए गए।
गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को समस्त भारतीय प्रदेशों के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया। इस कार्य के लिए परिषद् में एक चौथा सदस्य और बढ़ा दिया गया। उसको कानून निर्माण में सहायता देने के लिए रखा गया था। चौथे सदस्य का विधि विशेषज्ञ होना अनिवार्य था। इस पद पर नियुक्ति पाने वाला लार्ड मैकाले पहला सदस्य था।
भारत में प्रचिलत विभिन्न प्रकार के कानूनों और नियमों को संहिताबद्ध करने के लिए गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को भारतीय विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया।
प्रत्येक प्रान्तीय सरकार को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह जिन कानूनों या विनियमों को बनाना आवश्यक समझती है, उनके प्रारूप गवर्नर जनरल और उसकी परिषद के सम्मुख प्रस्तुत करे।
मद्रास तथा बम्बई के गवर्नरों और उनकी कौसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया।
वित्तीय मामलों में प्रान्तीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार के अधीन कर दिया गया। कोई भी प्रान्तीय गवर्नर बिना गवर्नर जनरल की आज्ञा के किसी पद की व्यवस्था नहीं कर सकता था और न ही उसे किसी नये वेतन या भत्ते स्वीकृत करने का अधिकार था।
प्रान्तीय सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों तथा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
प्रान्तीय सरकारों को संचालक मण्डल से सीधा पत्र व्यवहार करने की छूट थी लेकिन पत्रों की एक प्रतिलिपि उन्हें गवर्नर जनरल को भेजनी पड़ती थी।
गवर्नर जनरल को बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में भी काम करना पड़ता था। अतः उसने अपनी कौंसिल के एक सदस्य को बंगाल का डिप्टी गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की।
बंगाल प्रान्त को दो प्रान्तों बंगाल और आगार में विभाजित करने की व्यवस्था की गई, लेकिन इस योजना को कभी क्रियान्वित नहीं किया गया।
इस एक्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि सरकारी सेवाओं में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के योग्यतानुसार नौकरी दी जाएगी अर्थात् धर्म, जन्म, स्थान, वंश, जाति और रंग के आधार पर सरकारी सेवा में प्रवेश के लिए कोई भेदभाव नहीं बरता जाएगा। यह घोषणा ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति उदार नीति का प्रतीक थी।
इस एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल को आदेश दिया गया कि वह अपनी कौंसिल के सदस्यों की सहायता से भारत में दास प्रथा को समाप्त करने का प्रयत्न करे तथा दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाए।
भारत में ईसाइयों के लाभ के लिए बंगाल , बम्बई तथा मद्रास में बड़े पादरियों की नियुक्ति की व्यस्था की गई और कलकत्ता के पादरी को इनका प्रधान बना दिया गया।
कम्पनी के लोक सेवकों के प्रशिक्षण के लिए हेरबरी कॉलेज में व्यवस्था की गई और उस कॉलेज में प्रवेश के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।
कम्पनी का नाम द युनाईटेड कम्पनी ऑफ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू द ईस्ट इण्डिया से बदलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी कर दिया गया।
1833 के चार्टर एक्ट का महत्व
1833 ई. का चार्टर एक्ट ब्रिटिश संसद द्वारा 19 वीं शताब्दी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अधिनियम था। इस एक्ट ने न केवल भारत के प्रशासन में महान् तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये अपितु कई दयालुतापूर्ण घोषणाएँ भी कीं और व्यापाक मानवतावादी सिद्धान्तों का अनुपालन भी किया।
इस एक्ट द्वारा कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। इसलिए अब वह व्यापारिक तथा शासकीय संस्था के स्थान पर केवल शासकीय संस्था ही रह गई। अतः ब्रिटिश सरकार का इस पर नियंत्रण बढ़ता गया। यह नियंत्रण 1858 ई. में यहाँ तक बढ़ा कि कम्पनी के शासन का अन्त कर दिया गया।
संचालक मण्डल कम्पनी के शासन सम्बन्धी मामलों में अधिक रुचि लेने लगे, जिससे शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई।
इस एक्ट का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि इसके द्वारा भारतीय विधान मण्डल की नींव रखी गई। इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रशासन का केन्द्रीकरण किया गया। प्रादेशिक सरकारों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया और गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को सारे ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाने की शक्ति दे दी गई। इस हेतु गवर्नर जनरल की कौंसिल में कानून सदस्य की वृद्धि की गई।
इस एक्ट द्वारा प्रादेशिक सरकारों पर केन्द्रीय नियंत्रण पहले से अधिक दृढ़ तथा व्यापक बना दिया गया। इस नई व्यवस्था से भारतीय प्रशासन में एकरूपता आ गई। वस्तुतः देश की एकता की दिशा में यह एक महान् कदम था।
इस एक्ट के अनुसार भारत सरकार को दासता समाप्त करने और दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाने का अधिकार दिया गया।
इस अधिनियम की एक बहुत बड़ी देन यह थी कि इसके द्वारा विधि अयोग की स्थापना की गई। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1837 ई. में इण्डियन पेनल कोड का प्रलेख तैयार हुआ जिसने संशोधित होकर 1860 ई. में कानून का रूप धारण कर लिया। इण्डियन पेनल कोड तैयार करने में विधि आयोग के अध्यक्ष मैकाले ने बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था।
1853 का चार्टर एक्ट
1853 का चार्टर अधिनियम भारतीयों द्वारा कम्पनी के प्रतिक्रियावादी शासन के समाप्ति की माँग तथा गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी द्वारा कम्पनी के शासन में सुधार हेतु प्रस्तुत रिपोर्ट के सन्दर्भ में पारित किया गया था। इसके प्रमुख प्रावधान अधोलिखित हैं।
इस अधिनियम द्वारा विधायी कार्यों को प्रशासनिक कार्यों से पृथक करने की व्यवस्था की गयी। विधि निर्माण हेतु भारत के लिए एक अलग 12 सदस्यीय “विधान परिषद” की स्थापना की गयी। विभिन्न क्षेत्रों व प्रान्तों के प्रतिनिधियों को इसका सदस्य बनाकर सर्वप्रथम क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त लागू किया गया।
विधान परिषद का प्रमुख कार्य देश के लिए विधि बनाना था किन्तु इस विधि को अधिनियम बनने के लिए गवर्नर जनरल की अनुमति आवश्यक थी। ऐसी विधियों को गवर्नर जनरल वीटो भी कर सकता था।
विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की परिषद का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए नामजदगी के स्थान पर प्रतियोगी परीक्षाओं को आधार बनाया गया।
ब्रिटिश संसद को किसी भी समय कम्पनी के शासन को समाप्त करने का अधिकार दिया गया।
निदेशक-मण्डल के सदस्यों की संख्या 24 से कम कर 18 कर दी गयी। उसमें 6 क्राउन द्वारा मनोनीत किये जाने थे।
यह राजलेख भारतीय शासन के ( ब्रिटिश कालीन ) इतिहास में अन्तिम चार्टर था।
1853 के चार्टर एक्ट के दोष
इस एक्ट द्वारा कानून बनाने वाली कौंसिल में केवल अंग्रेज सदस्यों को ही रखा गया जिन्हें भारतीय दशाओं का ज्ञान नहीं था। भारतीयों को इस कौंसिल में न रखने से असंतोष बढ़ा और यह बात विद्रोह का एक सबसे बड़ा कारण सिद्ध हुई।
अनेक प्रकार के भेदभावों, अत्यधिक खर्च तथा इंग्लैण्ड की लम्बी दूरी के कारण भारतीयों को कम्पनी सरकार में उच्च पद प्राप्त करना सपना ही रहा।
बंगाल के लोगों ने जो प्रान्तीय स्वराज्य के लिए प्रार्थना पत्र दिया था उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया।
इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि इससे इंग्लैण्ड में दोषपूर्ण द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त नहीं किया गया।
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