यद्यपि रेग्यूलेटिंग एक्ट में बहुत दोष थे, फिर भी जिन परिस्थितियों में उसका निर्माण हुआ, सर्वथा सराहनीय था। बाउटन राउज के अनुसार, एक्ट का उद्देश्य तो अच्छा था, पर जो तरीका उसने अपनाया, वह अधुरा था। यह प्रथम अवसर था जबकि एक्ट के द्वारा ब्रिटिश संसद ने कम्पनी की व्यवस्था को सुधारने के लिए उसके कार्यों में हस्तक्षेप किया था।
रेग्यूलेटिंग एक्ट भारत के संवैधानिक विकास के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। अतः इसका संवैधानिक महत्त्व बहुत अधिक है।
रेग्यूलेटिंग एक्ट के संवैधानिक महत्व
इस एक्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी केवल व्यापारिक संस्था ही नहीं है, बल्कि वह एक राजनीतिक संगठन है और जिसे राजनीतिक अधिकार भी प्राप्त है। दूसरे शब्दों में, कम्पनी भारत में राजनीतिक शक्ति के रूप में कार्य कर रही थी। इस एक्ट द्वारा उसे मान्यता प्रदान कर दी गई।
इस एक्ट द्वारा संचालकों के कार्यकाल में वृद्धि कर दी गई, जिसके कारण अब से अपनी नीतियों को ठीक ढंग से कार्यान्वित कर सकते थे। पुनिया ने इस सम्बन्ध में लिखा है, इस एक्ट के द्वारा डायरेक्टरों के लिए प्रदान लम्बी अवधि और अंशकालिक नवीनीकरण ने उनमें सुरक्षा की भावना तथा नीति में निरन्तरता उत्पन्न की।
इस एक्ट द्वारा कम्पनी तथा कम्पनी के कर्मचारियों पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण स्थापित हो गया। कम्पनी के गवर्नर जनरल कौंसिल के सदस्य तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्याधीशों की नियुक्ति ब्रिटेन के सम्राट के द्वारा की जाती थी। इससे अन्याय एवं अत्याचारों का अन्त हो गया। धीरे-धीरे यह नियंत्रण कठोर होता गया और 1858 ई . में कम्पनी के शासन का ही अन्त कर दिया गया। इस प्रकार, इस एक्ट के परिणाम बड़े दूरगामी व स्थायी सिद्ध हुए।
इस एक्ट द्वारा पहली बार भारत में ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्रों पर कम्पनी शासन का एक व्यवस्थित विधान तैयार किया गया, जिससे शासन की एक स्पष्ट रूपरेखा निश्चित हुई। सर्वाधिक महत्त्व की बात यह है कि भविष्य में बनाए जाने वाले सभी संवैधानिक नियमों के लिए अधिनियम ने ढाँचा तैयार कर दिया।
यह प्रथम अवसर था, जबकि ब्रिटिश सरकार ने यूरोप के बाहर भू-क्षेत्र के शासन का उत्तरदायित्व ग्रहण किया। यह एक्ट वास्तव में कम्पनी के भारतीय क्षेत्र में बिना क्राउन के उत्तरदायित्व सम्भाले अच्छी सरकार लाने का एक अच्छा प्रयास था।
इस एक्ट द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार निजी व्यापार और उपहार लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। यह बात कम महत्त्वपूर्ण नहीं थी।
इस एक्ट द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी का आरम्भ किया गया था, जिसका ब्रिटिश शासनकाल में उत्तरोत्तर विकास होता गया।
इस एक्ट द्वारा भारतीय प्रशासनिक ढाँचे का केन्द्रीकरण की दिशा में प्रथम प्रयास किया गया। बम्बई व मद्रास के गवर्नरों को गवर्नर जनरल के अधीन कर ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्र को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया गया। इस प्रकार, भारत में कम्पनी की विभिन्न शाखाओं पर एक सर्वोच्च सत्ता स्थापित कर दी गई थी।
इस एक्ट ने कम्पनी के इंग्लैण्ड में स्थित संस्थाओं के विधान में परिवर्तन किया। भारत सरकार के स्वरूप में कुछ सुधार किए। कम्पनी के समस्त विजित प्रदेशों पर एक शक्ति का नियंत्रण स्थापित किया गया। कम्पनी को ब्रिटिश मंत्रिमण्डल की देख-रेख में रखने का प्रयत्न किया गया।
रेग्यूलेटिंग एक्ट ने भारत में कम्पनी के शासन को उन्नत करने के लिए बिना ताज के महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किया और उसका उत्तदायित्त्व प्रत्यक्ष रूप से धारण किया।
इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण धारा सुप्रीम कोर्ट की स्थापना थी। इसके द्वारा ताज को समय-समय पर समाचार ज्ञात होते रहते थे, जिसके कारण वह कम्पनी के शासन का निर्णय कर सकता था।
इसके द्वारा कम्पनी के प्रशासित प्रदेशों में एक उच्च सत्ता की स्थापना हुई।
भारत के वैधानिक इतिहास में इस अधिनियम का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह ब्रिटिश संसद के द्वारा पास किए गए अनेक कानूनों की लम्बी श्रृंखला की प्रथम कड़ी है, जिसने भारत सरकार के स्वरूप को समय-समय पर ढालने और बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
यह एक्ट ब्रिटिश भारत का प्रथम लिखित संविधान के रूप में था। इसके द्वारा कम्पनी के राजनीतिक लक्ष्य व अस्तित्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया था। इतना ही नहीं, इस एक्ट के आधार पर आगे आने वाले कानूनों की रूपरेखा तैयार की गई।
संक्षेप में, यह एक्ट कम्पनी के संवैधानिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके द्वारा ऐसी शासन व्यवस्था का प्रारम्भ हुआ जो ऐंग्लो-भारतीय प्रशासनिक ढाँचे की आधारशिला बनी।
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