भारतीय लोक नृत्य की परम्परा प्रागैतिहासिक काल से ही चली आ रही है। नृत्य एक सार्वभौमिक कला है, जिसका विकास मानव विकास के साथ निरन्तर होता गया। भारतीय संस्कृति और धर्म प्रारम्भ से ही नृत्य कला से जुड़े रहे हैं।
नृत्य मानवीय अभिव्यक्तियों का एक रसमय प्रदर्शन है। यह एक सार्वभौम कला है। यह कला देवी-देवताओं, दैत्य, दानवों, मनुष्यों एवं पशु – पक्षियों को अति प्रिय है। भारतीय पुराणों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है।
समुद्र मंथन के पश्चात जब दुष्ट राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न हुआ तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी।
भारतीय संस्कृति एवं धर्म आरंभ से ही नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है। हम भारतीय आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है।
भारतीय लोक नृत्य के प्रकार
भारतीय नृत्य उतने ही विविध हैं जितनी हमारी संस्कृति, लेकिन इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है- शास्त्रीय नृत्य तथा लोकनृत्य। जिस तरह भारत में कोस-कोस पर पानी और वाणी बदलती है वैसे ही नृत्य शैलियाँ भी बदलती हैं। प्रमुख भारतीय शास्त्रीय नृत्य निम्नलिखित हैं-
कथक, ओडिसी, भारतनाट्यम, कुचिपुडि, मणिपुरी, कथकली, लोक नृत्यों में प्रत्येक प्रांत के अनेक स्थानीय नृत्य भी होते हैं। जैसे पंजाब में भांगड़ा, उत्तर प्रदेश का पखाउज आदि।
भारतीय लोक नृत्य का इतिहास
नृत्य का सबसे प्राचीन ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र माना जाता है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त मूर्तियाँ हैं।
यर्जुवेद में भी नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को आरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। हरिवंश पुराण में भी नृत्य संबंधी घटनाओं का उल्लेख है।
भगवान नेमिनाथ के जन्म के समय के कलापूर्ण नृत्य व गायन के समारोहों का वर्णन इसमें मिलता है। श्रीमदभागवत महापुराण, शिव पुराण तथा कूर्म पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में मिला है। रामायण और महाभारत में भी समय-समय पर नृत्य पाया गया है।
भरतमुनि काल में नृत्य
भरत के नाट्यशास्त्र के समय तक भारतीय समाज में कई प्रकार की कलाओं का पूर्णरूपेण विकास हो चुका था। भरत मुनि ने नाट्य कला को अपना लक्ष्य बना कर उसी के विकास के लिये नाट्यशास्त्र की अत्यंत उपयोगी और पूर्णत व्यवहारिक विवेचनात्मक रचना की, जो कि आज इतने समय बाद भी नाट्य – नृत्य कला के लिये उतना ही उपयोगी ग्रंथ है जितना कि तब रहा होगा यह सारे शास्त्रीय नृत्यों की रीढ़ है।
नाट्यशास्त्र को ही नाट्य कला का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ मान गया है। यह महान ग्रंथ न केवल नाट्य कला अपितु नृत्य, संगीत, अलंकार शास्त्र, छंद शास्त्र आदि अनेक विषयों का आदिम ग्रंथ है, इसलिये इसे पंचमवेद कह कर सम्मानित किया गया है। भरत मुनि का नृत्य जगत में यह योगदान बहुमूल्य है।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोक नृत्य
भारतीय लोकनृत्यों के अंतर्गत अनंत प्रकार के स्वरूप और ताल हैं। इनमें धर्म, व्यवसाय और जाति के आधार पर अन्तर पाया जाता है। मध्य और पूर्वी भारत की जनजातियाँ (मुरिया, भील, गोंड़, जुआंग और संथाल) सभी अवसरों पर नृत्य करती हैं। जीवन चक्र और ऋतुओं के वार्षिक चक्र के लिए अलग-अलग नृत्य हैं। नृत्य, दैनिक जीवन और धार्मिक अनुष्ठानों का अंग है।
पश्चिमी भारत के कोंकण तट के मछुआरों के मूल नृत्य कोलयाचा में नौकायन की भावभंगिमा दिखाई जाती है। महिलाएँ अपने पुरुष साथियों की ओर रुमाल लहराती हैं और पुरुष थिरकती चाल के साथ आगे बढ़ते हैं।
राजस्थान के लोक नृत्य
घूमर राजस्थान का सामाजिक लोक नृत्य है। महिलाएं लम्बे घाघरे और चूनर पहनकर इस नृत्य को करती हैं। इस क्षेत्र का कच्ची घोड़ी नृत्य विशेष रूप से दर्शनीय है। ढाल और लम्बी तलवारों से युक्त नर्तकों का ऊपरी भाग दूल्हे की पारम्परिक वेशभूषा में रहता है और निचले भाग को बाँस के ढाँचे पर कागज की लुगदी से बने घोड़े से ढका जाता है। नर्तक, शादियों और उत्सवों पर बरेछेबाजी का मुकाबला करते हैं। बावरी लोग लोकनृत्य की इस शैली के कुशल कलाकार हैं।
पंजाब के लोक नृत्य
पंजाब क्षेत्र में सबसे अधिक जोशीला लोकनृत्य फसल कटाई के अवसर पर भांगड़ा है, जो भारत-पाकिस्तान सीमा के दोनों ओर किया जाता है और लोकप्रिय भी है। इस नृत्य के साथ-साथ गीत गाया जाता है। प्रत्येक पंक्ति की समाप्ति पर ढोल गूँजता है और अन्तिम पंक्ति सभी नर्तक मिलकर गाते हैं। भांगड़ा हर्षोन्माद का नृत्य है, जिसमें हर आयु के पुरुष नाचते हैं। वे मस्ती में चिल्लाते और गोलाई में घूमते हुए नृत्य करते हैं और उनके कंधे और कूल्हे ढोल की लय पर थिरकते हैं।
आंध्र प्रदेश का लोक नृत्य
आंध्र प्रदेश की लंबाड़ी जन-जाति की खानाबदोश महिलाएँ शीशों से जड़े शिरोवस्त्र और घाघरे पहनती हैं और अपनी बाजू चौड़े सफेद हड्डियों के बने कंगनों से ढकती हैं। वे धीरे-धीरे झूमते हुए नृत्य करती हैं। जबकि पुरुष ढोल बजाने और गाने का काम करते हैं। उनका यह सामाजिक नृत्य आवेगपूर्ण शोभा और गीतिमयता से ओतप्रोत होता है। यह विश्व के अन्य भागों के बंजारों के नृत्य से अपेक्षाकृत कम प्रचंड होता है।
मध्य प्रदेश का लोक नृत्य
मध्य प्रदेश में मुरिया जनजाति का गवल-सींग (पहाड़ी भैंसा) नृत्य पुरुषों और महिलाओं, दोनों के द्वारा किया जाता है। जो पारम्परिक तौर पर बराबरी का जीवन व्यतीत करते हैं। 50 से 100 की संख्या में स्त्री व पुरुष मिलकर नृत्य करते हैं। गवल के वेश में पुरुष एक-दूसरे पर हमला करते व लड़ते हैं और सींगों से पत्तों को उड़ाते हुए वे प्रकृति के मिलन के मौसम की गतिशील अभिव्यक्ति करते हुए नृत्यांगनाओं का पीछा करते हैं।
उड़ीसा का लोक नृत्य
उड़ीसा में जुआंग जनजाति सशक्त पौरुषपूर्ण फुर्ती के साथ पक्षियों और पशुओं का नृत्य बड़े सजीव अभिनय के साथ करती हैं।
महाराष्ट्र का लोक नृत्य
महाराष्ट्र के डिंडी और काला नृत्य, जो धार्मिक उल्लास की अभिव्यक्ति है। नर्तक गोल चक्कर में घूमते हैं और छोटी लाठियाँ (डिंडी) जमीन पर मारते हुए समूहगान के मुख्य गायक के बीचों बीच खड़े ढोल वादक का साथ देते हैं। लय में तेजी आते ही नर्तक दो पक्तियाँ बना लेते हैं और दांये पाँव को झुकाकर बांए पाँव के साथ आगे बढ़ते हैं और इस प्रकार ज्यामिति के आकार बनाते हैं।
काला नृत्य में एक बर्तन में दही होना जरूरी है, जो उर्वरता का प्रतीक है। नर्तकों का समूह दो वृत्त बनाता है। जिसमें एक नर्तक के ऊपर दूसरा नर्तक होता है। एक पुरुष इन दोनों वृत्तों के ऊपर चढ़कर ऊपर लटकी दही की मटकी फोड़ता है। जिसमें दही नर्तकों के शरीर पर फैल जाता है। इस आनुष्ठानिक शुरुआत के बाद नर्तक जबरदस्त रण नृत्य मुद्रा में अपनी लाठियाँ और तलवारें घुमाते हैं।
गुजरात का लोक नृत्य
गरबा, जो वास्तव में एक धार्मिक हंडिया को कहते हैं, गुजरात का सुप्रसिद्ध धार्मिक नृत्य है। यह नवरात्रि के नौ दिन के वार्षिक उत्सव के दौरान 50 से 100 महिलाओं के समूह द्वारा देवी अंबा के सम्मान में किया जाता है। जिन्हें भारत के अन्य भागों में दुर्गा या काली के नाम से जाना जाता है। महिलाएँ गोल चक्कर में घूमते हुए झुकती, मुड़ती, हाथों से तालियाँ और कभी-कभी अंगुलियों से चुटकी बजाती हैं। इस नृत्य के साथ देवी की स्तुति में गीत भी गाए जाते हैं।
तमिलनाडु का लोक नृत्य
तमिलनाडु राज्य का काराकम नृत्य मुख्यतः मरियम्मई (महामारी की देवी) की प्रतिमा के समक्ष वार्षिक उत्सव पर देवी से महामारी का प्रकोप न फैलाने की प्रार्थना के साथ किया जाता है। नर्तक के सिर पर लम्बे बाँस के ढांचे से ढके कच्चे चावल का बर्तन रखा जाता है। जिसे नर्तक को नृत्य की उछल-कूद के दौरान बिना छुए सम्भाले रखना होता है। लोग इसे देवी की कृपा मानते हैं और कहते हैं कि नर्तक के शरीर में देवी प्रवेश करती है। जिसके कारण यह चमत्कार होता है।
केरल का लोक नृत्य
केरल के में हिन्दुओं के पूज्य देवों तथा दानवों को प्रसन्न करने के लिए थेरयाट्टम उत्सव आयोजित किया जाता है। विस्मयकारी वेशभूषा और मुखौटों से युक्त नर्तक गाँव के पूजा स्थल के सामने अनोखा अनुष्ठान करते हैं। एक श्रृद्धालु मुर्गे की भेंट चढ़ाता है । जिसे नर्तक झपट लेता है और एक ही झटके में उसका सिर अलग कर देता है व आशीर्वाद देते हुए उसे श्रृद्धालु को लौटा देता है। इस समारोह के साथ लम्बा और मंथर नृत्य चलता रहता है।
अरुणाचल प्रदेश का लोक नृत्य
अरुणाचल प्रदेश (भूतपूर्व पूर्वोत्तर फ्रंटियर एजेंसी नेफा) में सबसे ज्यादा मुखौटा नृत्य किए जाते हैं। यहाँ तिब्बत की नृत्य शैलियों का प्रभाव दिखाई देता है।
याक नृत्य कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र और असम के निकट हिमालय के दक्षिणी सीमावर्ती क्षेत्रों में किया जाता है। याक का रूप धारण किए नर्तक अपनी पीठ पर चढ़े आदमी को साथ लिए नृत्य करता है।
मुखौटा नृत्य की एक अनूठी शैली छऊ को झारखंड के पूर्व-सरायकेला रियासत के एक शाही परिवार ने संरक्षित रखा है। नर्तक- भगवान, पशु, पक्षी, शिकारी, इन्द्रधनुष, रात या फूल का रूप धारण करता है। छऊ मुखौटे अधिकांशतः मानवीय लक्षणों से युक्त होते हैं। जिन्हें विविध भाव दिखाने के लिए थोड़ा-बहुत परिवर्तित किया जाता है।
चूंकि छऊ नर्तक का चेहरा भावहीन होता है, इसलिए उसका शरीर ही पात्र के सम्पूर्ण भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक तनावों को व्यक्त करता है। उड़ीसा के मयूरभंज जिले में किए जाने वाले छऊ नृत्य की एक अन्य शैली में नर्तक मुखौटे नहीं पहनते, परन्तु जान-बूझकर सख्त और अचल चेहरे बनाकर मुखौटे का भ्रम देते हैं। उनका नृत्य श्रम और करतब से भरा होता है।
भारत की प्राचीन संस्कृति ने, लोक नृत्यों के विभिन्न स्वरूपों को जन्म दिया है। संस्कृति व परंपराओं की विविधता लोक नृत्यों में साफ झलकती है। विभिन्न राज्यों के इन नृत्यों में जीवन का प्रतिबिंब है और नृत्य की लगभग हर मुद्रा का विशिष्ट अर्थ होता है।
भारतीय लोक नृत्य प्रशिक्षण केन्द्र
छोटी अकादमियों और स्थानीय कला केन्द्रों में नृत्य प्रशिक्षण समूचे भारत में दिया जाता है। गुरु अब भी शिष्यों को विशिष्ट प्रशिक्षण देते हैं। इन प्रशिक्षण केन्द्रों में विश्व भर के छात्र सीखने आते हैं। इनमें से प्रमुख हैं- केरला कलामंडलम ( केरल कला संस्थान ), शोरानूर कला क्षेत्र आड्यार-तमिलनाडु , कथक केन्द्र और त्रिवेणी कला संगम-नई दिल्ली, दर्पण अकादमी अहमदाबाद-गुजरात, विश्वभारती शान्ति निकेतन-पश्चिम बंगाल (रवीन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा स्थापित) और जवाहरलाल नेहरू मणिपुर नृत्य अकादमी इंम्फाल।
भारत के प्रमुख लोक नृत्य
भारत विविधताओं से भरा देश है। यहाँ कई प्रकार की संस्कृतियों का सम्मिश्रण पाया जाता है। अतः यहां के लोगों की लोक परम्पराओं और मनोरंजन के तरीकों में भी भिन्नता पायी जाती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कुछ प्रमुख लोक नृत्य निम्नलिखित हैं-
बिहू लोक नृत्य
बिहू असम में मनाया जाने वाला एक पर्व है। असम के हरे-भरे व वर्षा से तृप्त मैदानी भागों में वस्तुत : तीन बिहू मनाए जाते हैं, जो कि तीन ऋतुओं के प्रतीक हैं।
प्रथम बिहू- जिसे ‘बोहागबिहू या रंगोलीबिहू’ भी कहते हैं, अप्रैल में चैत्र या बैसाख के संक्रमण काल में मनाया जाता है। यह असम का मुख्य पर्व है।
द्वितीय बिहू- इस को ‘कातीबिहू या कंगलीबिहू’ कहते हैं। यह कार्तिक मास (अक्टूबर) में होता है।
तृतीय बिहू- इसे ‘माघबिहू’ भी कहते हैं तथा यह मकर संक्रान्ति (14 जनवरी) को मनाया जाता है।
बिहू को प्रकृति का अनुपम उपहार भी कहा जाता है। चैत्र मास की संक्रान्ति के दिन से ही बिहू उत्सव प्रारम्भ हो जाता है। इसे ‘उरूरा’ कहते हैं।
गंबोरी बहू– यह दिन स्त्रियों के लिए एक विशेष स्थान रखता है। पुरुषों को इस दिन सम्मिलित नहीं किया जाता है। स्त्रियाँ रात भर बरगद के वृक्ष के नीचे लयबद्ध तालियाँ बजाकर गीत गाती हैं।
कंगलीबिहू– जिसे ‘काती-बिहू’ कहते हैं, सामान्यतः अक्टूबर में मनाया जाता है। प्रकृति पर निर्भर किसान खेत की लक्ष्मी ‘उपज’ को सादर घर पर लाने के लिए तैयार होता है और आश्विन कार्तिक की संक्रान्ति के दिन उपज की मंगलकामना से खलिहान एवं तुलसी के वृक्ष के नीचे दीप प्रज्ज्वलित करके अनेक नियमों का पालन करता है। इसे ही ‘काती बिहू’ कहते हैं।
बिहू के दिन किसान के खलिहान खाली रहते हैं। इसीलिए यह महाभोज या उल्लास का पर्व न होकर प्रार्थना व ध्यान का दिन होता है । इसलिए इसे कंगाली बिहू’ भी कहते हैं। युवक और युवतियाँ मितव्यय करना भी इस पर्व के माध्यम से ही सीखते हैं।
माघबिहू– मकर संक्रान्ति के दिन जनवरी के मध्य में , माघबिहू मनाया जाता है । इस अवसर पर प्रचुर मात्रा में हुई फसल किसान को आनन्दित करती है। माघबिहू पर मुख्य रूप से भोज देने की प्रथा है। इस कारण इसे ‘भोगासी बिहू’ अथवा ‘भोग-उपभोग का बिहू’ भी कहते हैं।
हुसारी नृत्य-– समूहों में प्रार्थना गीत व नृत्य, केवल प्रौढ़ पुरुषों के नेतृत्व में प्रस्तुत किए जाते हैं। हुसारी गीत उल्लासपूर्ण कम व धार्मिक अधिक होते हैं।
बिहूनृत्य– अविवाहित युवक-युवतियाँ, खुली वृक्ष-वाटिका या बागों में एक अन्य नृत्य करते हैं, जो कि संगीत सहित रातभर किया जाता है। बिहु नृत्य भारत के असम राज्य का लोक नृत्य है जो बिहु त्योहार से संबंधित है।
हालाँकि बिहु नृत्य का मूल अज्ञात है, लेकिन इसका पहला आधिकारिक सबूत तब मिलता है जब अहोम राजा रूद्र सिंह ने 1694 के आसपास रोंगाली बिहु के अवसर पर बिहु नर्तकों को रणघर क्षेत्रों में इसका प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रित किया था।
विवरण बिहु– एक समूह नृत्य है जिसमें पुरुष और महिलाएं साथ-साथ नृत्य करते हैं किन्तु अलग-अलग लिंग भूमिकाएं बनाए रखते हैं।
यक्षगान लोक नृत्य
यक्षगान कर्नाटक राज्य का लोक नृत्य है। यक्षगान कर्नाटक का पारम्परिक नृत्य नाट्य रूप है जो एक शास्त्रीय पृष्ठभूमि के साथ किया जाने वाला एक अनोखा नृत्य रूप है। यह केरल के कथकली के समान है। यक्षगान संस्कृत नाटकों के कलात्मक तत्वों के मिले जुले परिवेश में मंदिरों और गांवों के चौराहों पर बजाए जाने वाले पारम्परिक संगीत तथा रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथों से ली गई युद्ध संबंधी विषय वस्तुओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है। जिन्हें नृत्य और गीत के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। इसमें चेंड नामक ड्रम बजाने के अलावा कलाकारों के नाटकीय हाव भाव सम्मिलित होते हैं।
कूचिपुड़ी लोक नृत्य
कूचिपूड़ी आंध्र प्रदेश की प्रसिद्ध नृत्य शैली है। यह पूरे दक्षिण भारत में मशहूर है। इस नृत्य का नाम कृष्णा जिले के दिवि तालुक में स्थित कुचिपुड़ी गाँव के ऊपर पड़ा, जहाँ के रहने वाले ब्राह्मण इस पारंपरिक नृत्य का अभ्यास करते थे। परम्परा के अनुसार कुचिपुड़ी नृत्य मूलतः केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था और वह भी केवल ब्राह्मण समुदाय के पुरुषों द्वारा। ये ब्राह्मण परिवार कुचिपुड़ी के भागवतथालू कहलाते थे।
कुचिपुड़ी के भागवतथालू ब्राह्मणों का पहला समूह 1502 ईस्वी के आसपास निर्मित किया गया था। उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे। प्रचलित कथाओं के अनुसार कुचिपुड़ी नृत्य को पुनर्परिभाषित करने का कार्य सिद्धेन्द्र योगी नामक एक कृष्ण-भक्त संत ने किया था।
कूचिपूड़ी के पंद्रह ब्राह्मण परिवारों ने पांच शताब्दियों से अधिक समय तक परम्परा को आगे बढ़ाया है। प्रतिष्ठित गुरु जैसे वेदांतम लक्ष्मी नारायण, चिंता कृष्णा मूर्ति और ताघ्देपल्ली पेराया ने महिलाओं को इसमें शामिल कर नृत्य को और समृद्ध बनाया है।
मटका नृत्य
कुचिपुड़ी नृत्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप मटका नृत्य है जिसमें एक नर्तकी मटके में पानी भर कर और उसे अपने सिर पर रखकर पीतल की थाली में पैर जमा कर नृत्य करती है। वह पीतल की थाली पर नियंत्रण रखते हुए पूरे मंच पर नृत्य करती है और इस पूरे संचलन के दौरान दर्शकों को चकित कर देने के लिए उसके मटके से पानी की एक बूंद भी नहीं गिरती है।
पंथी लोक नृत्य
पंथी छत्तीसगढ़ का एक ऐसा लोक नृत्य है, जिसमें आध्यात्मिकता की गहराई के साथ भक्त की भावनाओं का ज्वार भी है। इसमें जितनी सादगी है, उतना ही आकर्षण और मनोरंजन भी। पंथी नृत्य की यही विशेषताएँ इसे अनूठा बनाती हैं। वास्तव में पंथी नृत्य, धर्म, जाति, रंग-रूप आदि के आधार पर भेदभाव, आडंबरों और मानवता के विरोधी विचारों का संपोषण करने वाली व्यवस्था पर हजारों वर्षो से शोषित लोगों और दलितों का करारा किंतु सुमधुर प्रहार है। यह छत्तीसगढ़ की सतनामी जाति के लोगों का पारंपरिक नृत्य है, जो सतनाम पंथ के पथिक हैं। इस पंथ की स्थापना छत्तीसगढ़ के महान् संत गुरु घासीदास ने की थी।
कथक लोक नृत्य
कथक नृत्य उत्तर प्रदेश का शास्त्रीय नृत्य है। कथक कहे सो कथा कहलाए। कथक शब्द का अर्थ कथा को थिरकते हुए कहना है। प्राचीन काल में कथक को कुशिलव के नाम से जाना जाता था।
कथक राजस्थान और उत्तर भारत की नृत्य शैली है। यह बहुत प्राचीन शैली है क्योंकि महाभारत में भी कथक का वर्णन है। मध्य काल में इसका सम्बन्ध कृष्ण कथा और नृत्य से था।
मुसलमानों के काल में यह दरबार में भी किया जाने लगा। वर्तमान समय में बिरजू महाराज इसके बड़े व्याख्याता रहे हैं। हिन्दी फिल्मों में अधिकांश नृत्य इसी शैली पर आधारित होते हैं। यह नृत्य कहानियों को बोलने का साधन है।
शब्द कथक का उद्भव कथा से हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है कहानी कहना। पुराने समय में कथा वाचक गानों के रूप में इसे बोलते और अपनी कथा को एक नया रूप देने के लिए नृत्य करते। यही उत्तर भारत में कथक के रूप में जाना जाता है।
इस नृत्य के तीन प्रमुख घराने हैं। कछवा के राजपुतों के राजसभा में जयपुर घराने का, अवध के नवाब के राजसभा में लखनऊ घराने का और वाराणसी के सभा में वाराणसी घराने का जन्म हुआ। अपनी विशिष्ट रचनाओं के लिए एक कम प्रसिद्ध रायगढ़ घराना भी है।
छाऊ लोक नृत्य
छाऊ या छऊ एक लोक नृत्य है जो बंगाल, ओड़ीसा एवं झारखंड में प्रचलित है। इन राज्यों में यह नृत्य वार्षिक सूर्य पूजा के अवसर पर किया जाता है। इसके तीन प्रकार हैं- पुरुलिया छऊ, मयूरभंज छऊ और सेरैकेल्लै छऊ।
लोक नृत्य में छाऊ नृत्य रहस्यमय उद्भव वाला है। छाऊ नर्तक अपनी आंतरिक भावनाओं व विषय-वस्तु को, शरीर के आरोह-अवरोह, मोड़-तोड़, संचलन व गत्यात्मक संकेतों द्वारा व्यक्त करता है।
छाऊ की तीन विधाएं मौजूद हैं जो तीन अलग-अलग क्षेत्रों सेराईकेला (बिहार), पुरूलिया (पश्चिम बंगाल) और मयूरभंज (उड़ीसा) से शुरू हुई हैं। युद्ध जैसी चेष्टाओं, तेज लयबद्ध कथन और स्थान का गतिशील प्रयोग छाऊ की विशिष्टता है। यह नृत्य विशाल जीवनी शक्ति और पौरुष की श्रेष्ठ पराकाष्ठा है।
उरांवों के लोक नृत्य
आदिवासियों में उरांवों का स्थान झारखंड में महत्पूर्ण है। उरांव समाज बेहद संगीतप्रिय होता है। इनके नृत्य संगीत की विविधता देखते ही बनती है। इनकी कलात्मकता से तुलनात्मक रूप में शायद ही कोई टक्कर ले। मांदर, नगाड़ा, घंटी इनका लोकप्रिय वाद्य है। उरांवों के नृत्य भी वर्ष भर हर्षोल्लास से चलते रहते हैं।
उरांवों के प्रमुख नृत्य हैं- फग्गू गद्दी, डोडोंग, धुड़िया, धुड़िया सुरगुजिया, धुड़िया टुंटा, छेछारी, देशवाड़ी, जदिया, रवा करम, तुस्गो, डकमच आदि।
संथालों के लोक नृत्य
संथाल भी मुंडा कुल से ही आते हैं। यह आग्नेय परिवार का सबसे बड़ा अंग है। भाषा-संस्कृति की पर्याप्त समानताओं के होते हुए भी इनमें मौलिक भेद है। नृत्य संगीत में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इनके नृत्य भी सालों भर ऋतु परिवर्तन के साथ पर्वों उत्सवों के अनुसार चलते रहते हैं। मात्र सावन भादों के महीने कृषि कर्म की व्यवस्तता के कारण नृत्य संगीत बंद रहता है।
इनके मुख्य नृत्य हैं- डाहरा, दोड़ा, दोंगेड, आषाढ़िया, शिकारी, दसंय, सोहराई दोसमी, सकरात आदि। इनके नृत्य भी आकर्षक, सुंदर, मनोहारी और दिलकश होते हैं।
सदानी समाज के लोक नृत्य
ये झारखंडी समाज की संरचना आदिवासी और सदानी समाज की संभागिता से हुई है। दोनों की प्रकृति और संस्कृति एक है भाषा भले भिन्न हो। यहां का नाचना , गाना और बजाना आदिम प्रकृति की हैं। सदान समाज के प्रमुख नृत्य है- फगुआ, डमकच, लहसुआ, ठढ़िया, डंइडधरा, लुझरी, उधउवा, रसकिर्रा, पहिल सांझा, अधरतिया, भिनसरिया, उदासी, पावस, मरदानी, झूमर, जनानी झूमर, बंगला झूमर, अंगनइ, मंडा या भगतिया नृत्य, माठा, जदुरा, सोहराई, रास, पइका, नटुआ, कली घोड़ा नाच, छव नृत्य मइटकोड़न, पइनकाटन आदि।
कथकली नृत्य
कथकली मालाबार, कोचीन और त्रावणकोर के आसपास प्रचलित नृत्य शैली है। यह केरल की सुप्रसिद्ध शास्त्रीय रंगकला है। 17 वीं शताब्दी में कोट्टारक्करा तंपुरान ने जिस रामनाट्टम का आविष्कार किया था उसी का विकसित रूप है कथकली। यह रंगकला नृत्यनाट्य कला का सुंदरतम रूप है।
रंगीन वेशभूषा पहने कलाकार, गायकों द्वारा गाये जानेवाले कथा संदर्भों का हस्तमुद्राओं एवं नृत्य-नाट्यों द्वारा अभिनय प्रस्तुत करते हैं। इसमें कलाकार स्वयं न तो संवाद बोलता है और न ही गीत गाता है।
कथकली के साहित्यिक रूप को ‘आट्टक्कथा’ कहते हैं। गायक गण वाद्यों के वादन के साथ आट्टक्कथाएँ गाते हैं। कलाकार उन पर अभिनय करके दिखाते हैं। कथा का विषय भारतीय पुराणों और इतिहासों से लिया जाता है।
आधुनिक काल में पश्चिमी कथाओं को भी विषय रूप में स्वीकृत किया गया है। कथकली में तैय्यम, तिरा, मुडियेट्टु, पडयणि इत्यादि केरलीय अनुष्ठान कलाओं तथा कूत्तु, कूडियाट्टम, कृष्णनाट्टम आदि शास्त्रीय कलाओं का प्रभाव भी देखा जा सकता है।
कथकली के प्रारंभ में कतिपय आचार अनुष्ठान किये जाते हैं। वे हैं- केलिकोट्टु, अरंगुकेलि, तोडयम, वंदनश्लोक, पुरप्पाड, मंजुतल। धनाशि नाम के अनुष्ठान के साथ कथकली का समापन होता है।
मोहिनीअट्टम नृत्य
मोहिनीअट्टम भारत के केरल राज्य के दो शास्त्रीय नृत्यों में से एक है, जो अभी भी काफी लोकप्रिय है केरल की एक अन्य शास्त्रीय नृत्य कथकली भी है। मोहिनीअट्टम शब्द मोहिनी के नाम से बना है, मोहिनी रूप हिन्दुओ के देव भगवान विष्णु ने धारण इसलिए किया था ताकि बुरी ताकतों के ऊपर अच्छी ताकत की जीत हो सके।
मोहिनीअट्टम की विशेषता बिना किसी अचानक झटके अथवा उछाल के लालित्यपूर्ण, ढलावदार शारीरिक अभिनय है। यह ‘लस्प’ शैली से संबंधित है जो स्त्रीत्वपूर्ण, मुलायम और सुन्दर है। अभिनय में सर्पण द्वारा बल दिया जाता है तथा पंजो पर ऊपर और नीचे अभिनय होता है, जो समुद्र की लहरों तथा कोकोनट वृक्षों अथवा खेत में धान पौधों के ढलान से मिलता-जुलता है। बहुत से अभिनय मंदिर नृत्यों से नकल किए गए हैं जैसे कि ननगियर कुथु और लोक नृत्य जैसे कि ‘कईकोत्तीकली’ जिसे तिरुवतिराकली के नाम से भी जाना जाता है। ‘तिरुवतिराकली’ एक विशुद्ध नृत्य है।
छलिया नृत्य
छलिया नृत्य उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र का एक प्रचलित लोकनृत्य है। यह एक तलवार नृत्य है, जो प्रमुखतः शादी-बारातों या अन्य शुभ अवसरों पर किया जाता है। यह विशेष रूप से कुमाऊँ मण्डल के पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर और अल्मोड़ा जिलों में लोकप्रिय है।
चंग लोकनृत्य
चंग लोकनृत्य राजस्थान का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र (चुरु, झुंझुनू, सीकर जिला) व बीकानेर जिला इसके प्रमुख क्षेत्र हैं। यह पुरुषों का सामूहिक लोकनृत्य है। इसका आयोजन महाशिवरात्रि पर्व पर होता है और महाशिवरात्रि से लेकर होली तक चलता है। यह लोकनृत्य खुले स्थान में ‘चंग’ नामक वाद्ययंत्र के साथ शरीर की तालबद्ध गति के साथ अभिव्यक्त किया जाता है। इस लोकनृत्य की अभिव्यक्ति इतनी प्रभावशाली होती है कि चंग पर थाप पड़ते ही लोगों को चंग पर लगातार नाचने व झूमने पर मजबूर कर देती है। चंग लोकनृत्य में गायी जाने वाली लोकगायकी को ‘धमाल’ के नाम से जाना जाता है।
गणगौर नृत्य
गणगौर नृत्य मध्य प्रदेश के निमाड़ अंचल का प्रमुख नृत्य है। इस नृत्य में नर्तकियाँ एक दूसरे का हाथ पकड़े वृत्ताकर घेरे में गौरी माँ से अपने पति की दीर्घायु होने की प्रार्थना करती हुई नृत्य करती हैं। इस नृत्य के गीतों का विषय शिव-पार्वती, ब्रह्मा-सावित्री तथा विष्णु-लक्ष्मी की प्रशंसा से भरा होता है।
गरबा
गरबा गुजरात, राजस्थान और मालवा प्रदेशों में प्रचलित एक लोकनृत्य है जिसका मूल उद्गम गुजरात है। आजकल गरबा को पूरे देश में आधुनिक नृत्यकला में स्थान प्राप्त हो गया है। आरंभ में देवी के निकट सछिद्र घट में दीप ले जाने के क्रम में यह नृत्य होता था। इस प्रकार यह घट दीपगर्भ कहलाता था। वर्णलोप से यही शब्द गरबा बन गया। गरबा नृत्य में ताली, चुटकी, खंजरी, डंडा, मंजीरा आदि का ताल देने के लिए प्रयोग होता है तथा स्त्रियाँ दो अथवा चार के समूह में मिलकर विभिन्न प्रकार से आवर्तन करती हैं और देवी के गीत अथवा कृष्णलीला संबंधी गीत गाती हैं।
मुंडारी लोक नृत्य
झारखंड में मुंडा समाज की अपनी पहचान उनकी भाषा संस्कृति को लेकर है। इनके नृत्य भी ऋतुपरिवर्तन के अनुरूप पृथक-पृथक राग व ताल पर साल भर चलते रहते हैं। पर्व-त्योहार के अवसरों पर नृत्य संगीत के बिना इनका उत्सव संभव ही नहीं होता। मुंडा समाज के प्रमुख नृत्य हैं- जदुर, ओरजदुर, निरजदुर, जापी, गेना, चिटिद, छव, करम, खेमटा, जरगा, ओरजरगा, जतरा, पइका, बुरू, जाली नृत्य आदि। इनकी विशेषता है कि महिला दल में पुरुष जुड़ कर नहीं नाचते।
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