हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक महादेवी आधुनिक मीरा के नामसे भी जानी जाती हैं। महाकवि निराला ने उन्हें हिंदी के विशाल मन्दिर की सरस्वती भी कहा है।
महादेवी वर्मा का जीवन परिचय (Mahadevi Verma Biography in Hindi):
नाम | महादेवी वर्मा |
जन्म | 26 मार्च, 1907, फ़र्रुख़ाबाद, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 11 सितंबर 1987 (उम्र 80), इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
शिक्षा | मिशन स्कूल इंदौर, क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज |
पेशा | कवयित्री, उपन्यासकार, लघुकथा लेखिका |
प्रमुख रचनाएं | निहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1933), संध्यागीत (1935), प्रथम अयम (1949), सप्तपर्णा (1959), दीपशिखा (1942), अग्नि रेखा (1988) |
माता – पिता | श्री गोविंद प्रसाद वर्मा (पिता), हेमरानी देवी (माता) |
पुरस्कार | पद्म भूषण 1956, पद्म विभूषण 1988, ज्ञानपीठ पुरस्कार आदि। |
महादेवी वर्मा का जीवन परिचय
महादेवी वर्माका जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले के एकसंपन्न परिवार में26 मार्च 1907 ई. मेंहुआ था। उनके पिताजी श्री गोविंद प्रसाद वर्मा कॉलेजिएट स्कूल, भागलपुर में कई वर्षों तक हेड मास्टर थे। इसलिए महादेवी जी अपने पिता और परिवार से मिलन भागलपुर आया करती थी। और लगातार कई दिनों तक रुका करती थी तथा कभी-कभार उस स्कूल के छात्रों को पढ़ा भी दिया करती थी, इसलिए कवित्री के मन में और उसके भाव जगत में बिहार प्रवास का संस्कार रचा बसा हुआ था।
हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल छायावाद है और उसी ने आधुनिक प्रगतिशील और प्रयोगधर्मी साहित्य को जन्म दिया। इस युग में बहुत लेखक और कवि हुए लेकिन जिन्होंने मजबूती से भारतीय साहित्य को व्यापकता दी उनमें चार महान विभूतियां हैं- जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा।
उनकीउच्चतर शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय मेंहुई जहाँ से उन्होंनेसंस्कृत में एम.ए.की उपाधि प्राप्तकी। महादेवी वर्मा जीका जीवन साहित्यऔर कला के प्रतिहमेशा समर्पितरहा। 1932 में जबउन्होंने इलाहाबादविश्वविद्यालय सेसंस्कृत में एम.ए. किया तब तक उनकी दो कवितासंग्रह ‘‘निहार’’ तथा ‘‘रश्मि’’ प्रकाशित हो चुकी थी।
महादेवी वर्मा का कार्य क्षेत्र लेखन, संपादन औरअध्यापन रहा । साहित्य में महादेवी वर्मा काआविर्भाव उस समय हुआ जब खड़ी बोली काआकार परिष्कृत हो रहा था। उन्होंने हिन्दी कविताको बृजभाषा की कोमलता दी, छंदों के नये दौर कोगीतों का भंडार दिया और भारतीय दर्शन को वेदनाकी हार्दिक स्वीकृति दी। इस प्रकार उन्होंने भाषा,साहित्य और दर्शन तीनों क्षेत्रों में ऐसा महत्त्वपूर्णकाम किया, जिसने आनेवाली एक पूरी पीढ़ी कोप्रभावित किया। उन्होंने अपने गीतों की रचना शैलीऔर भाषा में अनोखी लय और सरलता भरी है, साथही प्रतीकों और बिंबों का ऐसा सुंदर और स्वाभाविकप्रयोग किया है जो पाठक के मन में चित्र सा खींचदेता है।
महादेवी वर्मा की प्रमुख रचनाएं
उनके प्रमुख कृतियों में ‘नीरजा’, ‘सांध्यगीत’और ‘दीपशिखा’ मानी जाती है।
1. कविता संग्रह
- नीहार (1930)
- रश्मि (1932)
- नीरजा (1934)
- सांध्यगीत (1936)
- दीपशिखा (1942)
- सप्तपर्णा (अनुदित-1959)
- प्रथम आयाम (1974)
- अग्निरेखा (1990)
महादेवी वर्मा के अन्य अनेक काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं, जैसे आत्मिका, परिक्रमा, सन्धिनी, यामा, गीतपर्व, स्मारिका, नीलाम्बरा आदि।
2. गद्य साहित्य
- रेखाचित्र: अतीत के चलचित्र (1941) और स्मृति की रेखाएं (1943),
- संस्मरण: पथ के साथी (1956) मेरा परिवार (1972) और संस्मरण (1983)
- चुने हुए भाषणों का संकलन: संभाषण (1974)
- निबंध: शृंखला की कडि़यां (1942), विवेचनात्मक गद्य (1942), साहित्यकार कीआस्था तथा अन्य निबंध (1962), संकल्पिता (1969)
- ललित निबंध: क्षणदा (1956)
- कहानियां: गिल्लू
- संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह: हिमालय (1963)
वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चांद’ तथा ‘साहित्यकार’ मासिक की भी संपादक रहीं।
3. बाल साहित्य
- ठाकुरजी भोले हैं
- आज खरीदेंगे हम ज्वाला।
प्रमुख सम्मान
काव्य संग्रह ‘यामा’ के लिये 1982 में ज्ञानपीठ सम्मान, मंगलाप्रसाद पारितोषिक, पद्मभूषण, सक्सेरिया पुरस्कार, द्विवेदी पदक, भारत भारती (1943), पद्म विभूषण (1988, मरणोपरांत) आदि अनेक सम्मानों से सम्मानित। उनकी प्रसिद्ध ‘यामा’ काव्य संग्रह के लिए साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया था । इसके पूर्व उन्हें अनेक सम्मान एवं पुरस्कार दिए गए। भारत सरकार ने 1956 में पद्म भूषण की उपाधि दी तथा 1988 में मरणोपरांत भारत सरकार की ओर से उन्हें पद्म विभूषण देकर सम्मानित किया गया ।
प्रारंभिक और पारिवारिक जीवन
महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को प्रातः 8 बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः दादा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और उन्हें घर की देवी मानते हुए उनका नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। ऐसा माना जाता है कि अपनी मां के द्वारा ही महादेवी वर्मा में संगीत के प्रति रूचि जागी। अपने बचपन की जीवनी “मेरे बचपन के दिन” वर्मा ने लिखा है कि वह एक उदार परिवार में पैदा होने के लिए बहुत भाग्यशाली थीं, ऐसे समय में जब एक लड़की को परिवार पर बोझ माना जाता था।
उनके दादा की कथित तौर पर उन्हें एक विद्वान बनाने की महत्वाकांक्षा थी, लेकिन 9 साल की उम्र में ही उनकी शादी स्वरूप नारायण वर्मा से कर दी जाती है। नारायण जी उस समय 10वीं के छात्र थे। महादेवी का विवाह जब हुआ था तब वे विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। उनको ये भी पता नहीं था कि उनका विवाह हो रहा है। मानस बंधुओं में सुमित्रानन्दन पन्त एवं निराला का नाम लिया जा सकता है, जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं।
शिक्षा और करियर
महादेवी वर्मा को मूल रूप से एक कॉन्वेंट स्कूल में भर्ती कराया गया था, लेकिन विरोध और अनिच्छुक रवैये के कारण, उन्होंने इलाहाबाद के क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज में प्रवेश लिया। वर्मा के अनुसार, उन्होंने क्रॉस्थवेट के छात्रावास में रहकर एकता की ताकत सीखी। यहां विभिन्न धर्मों के छात्र एक साथ रहते थे। वहां वे गुप्त रूप से कविता लिखने लगीं, लेकिन उनकी रूममेट और सीनियर सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा उनकी छिपी हुई कविताओं की खोज के बाद, उनकी छिपी साहित्यिक प्रतिभा का खुलासा हुआ।
जबकि दूसरे लोग बाहर खेलते थे, मैं और सुभद्रा एक पेड़ पर बैठते थे और हमारे रचनात्मक विचारों को एक साथ बहने देते थे … वह खारीबोली में लिखती थी , और जल्द ही मैंने भी खारीबोली में लिखना शुरू कर दिया … इस तरह, हम इस्तेमाल करते थे दिन में एक या दो कविताएँ लिखने के लिए…
~ महादेवी वर्मा, स्मृति चित्र
वह और सुभद्रा साप्ताहिक पत्रिकाओं जैसे प्रकाशनों में भी कविताएँ भेजते थे और उनकी कुछ कविताएँ प्रकाशित होने में सफल रहीं। दोनों नवोदित कवियों ने कविता संगोष्ठियों में भी भाग लिया, जहाँ वे प्रख्यात हिंदी कवियों से मिले और दर्शकों को अपनी कविताएँ सुनाई। यह साझेदारी तब तक जारी रही जब तक सुभ्रादा ने क्रॉस्थवेट से ग्रेजुएशन नहीं किया। 1929 में उन्होंने ग्रेजुएशन पूरा किया।
1930 में, निहार, 1932 में, रश्मि, 1933 में, नीरजा की रचना उनके द्वारा की गई थी। 1935 में, संध्यागीत नामक उनकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ था। 1939 में, यम शीर्षक के तहत उनकी कलाकृतियों के साथ चार काव्य संग्रह प्रकाशित किए गए थे। इनके अलावा, उन्होंने 18 उपन्यास और लघु कथाएँ लिखी थीं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की राहे, पथ के साथी श्रींखला के करिये (श्रृंखला की कड़ी) और अतित के चलचरितो प्रमुख हैं। उन्हें भारत में नारीवाद की अग्रदूत भी माना जाता है।
वर्मा का करियर हमेशा लेखन, संपादन और शिक्षण के इर्द-गिर्द घूमता रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस प्रकार की जिम्मेदारी उस समय महिला शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम माना जाता था। वे इसकी प्राचार्य भी रह चुकी हैं। 1923 में, उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका चांद को संभाला। 1955 में वर्मा ने इलाहाबाद में साहित्यिक संसद की स्थापना की और इलाचंद्र जोशी की मदद से इसके प्रकाशन का संपादन किया। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव रखी।
महादेवी बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव में, उन्होंने एक सार्वजनिक सेवा की ओर रूख किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए झांसी में काम किया। 1937 में, महादेवी वर्मा ने नैनीताल से 25 किमी दूर उमागढ़, रामगढ़, उत्तराखंड नामक गाँव में एक घर बनाया। उन्होंने इसका नाम मीरा मंदिर रखा। उन्होंने गाँव के लोगों के लिए और उनकी शिक्षा के लिए काम करना शुरू कर दिया।
उन्होंने विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए बहुत काम किया। आज इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। प्रयासों की श्रृंखला में, वह महिलाओं की मुक्ति और विकास के लिए साहस और दृढ़ संकल्प को बढ़ाने में सक्षम थी। जिस तरह से उन्होंने सामाजिक रूढ़िवादिता की निंदा की है, उससे उन्हें एक महिला मुक्तिवादी के रूप में जाना जाता है। महिलाओं के प्रति विकास कार्य और जनसेवा और उनकी शिक्षा के कारण उन्हें समाज सुधारक भी कहा जाता था और इसी तरह उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन साहित्य और समाजिक कार्यों में समर्पित कर दिया।
महादेवी वर्मा : छायावादी युग स्तंभ
साहित्य में महादेवी वर्मा का उदय किसी क्रांति से कम नहीं था। उन्होंने हिंदी कविता में ब्रजभाषा कोमलता का परिचय दिया, जो उस समय बहुत बड़ी बात थी। हमें भारतीय दर्शन को दिल से स्वीकार करने वाले गीतों का भंडार, महादेवी वर्मा द्वारा ही प्राप्त हुआ है। अपनी कृतियों के जरिए उन्होंने भाषा, साहित्य और दर्शन के तीन क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण कार्य किया जिसने बाद में एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया।
छायावादी कविता की सफ़लता में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। जयशंकर प्रसाद ने छायावादी कविता को प्रकृतिकरण दिया, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने उसमें मुक्ति को मूर्त रूप दिया और सुमित्रानंदन पंत ने नाजुकता की कला लाई, वहीं वर्मा ने छायावादी कविता को जीवन दिया। आज भी महादेवी छायावादी युग के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में विख्यात हैं।
आधुनिक मीरा ‘महादेवी’
महादेवी ने संपूर्ण जीवन साहित्य की साधना की और आधुनिक काव्य जगत को अपने योगदान से आलोकित किया। उनके काव्य में उपस्थित विरह वेदना और भावनात्मक गहनता के चलते ही उन्हें आधुनिक युग की मीरा कहा गया।
विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना परिचय इतना, इतिहास यही- उमड़ी कल थी, मिट आज चली! ~ महादेवी वर्मा
आधुनिक हिंदी साहित्य में स्त्री वेदना को चित्रित करने वाली महादेवी वर्मा की कविता ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ की यह आखिरी पंक्तियां यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि, उन्हें आधुनिक युग की मीरा क्यों कहा जाता है। क्या आप जानते हैं कि महादेवी का जन्म संयोग से होली के दिन हुआ था। न जाने होलिका का असर था या महादेवी की नियती थी, वह जीवन भर वेदना की आंतरिक अग्नि में जलती रहीं। ‘बीन भी हूं, मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं’ कविता में वह अपनी मनोदशा का इजहार कुछ यूं करती हैं-
नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण-कण में, प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में, प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में, शाप हूं जो बन गया वरदान बंधन में कूल भी हूं कूलहीन प्रवाहिनी भी हूं! बीन भी हूं मैं…तुम्हारी रागिनी भी हूं।
महादेवी वर्मा का साहित्य जगत में योगदान
हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग के उपरांत कविताओं में जो धारा प्रवाहित हुई, उसे हम छायावादी कविताओं के नाम से जानते हैं और महादेवी छायावादी युग की एक महान कवियित्री थीं। उनकी कविता की सबसे प्रमुख विशेषता भावुकता और भावना की तीव्रता है। हृदय की सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अभिव्यक्तियों की ऐसी जीवंत और मूर्त अभिव्यक्ति ‘वर्मा’ को छायावादी कवियों में सर्वश्रेष्ठ बनाती है। उन्हें हिंदी में उनके भाषणों के लिए सम्मान के साथ याद किया जाता है। उनके भाषण आम आदमी के लिए करुणा और सच्चाई की दृढ़ता से भरे हुए थे।
मूल रचनाओं के अलावा, वह अपने अनुवाद ‘ सप्तपर्णा’ (1980) जैसी रचनाओं के साथ एक रचनात्मक अनुवादक भी थीं। अपनी सांस्कृतिक चेतना की सहायता से उन्होंने वेदों, रामायण, थेरगाथा और अश्वघोष, कालिदास, भवभूति और जयदेव की कृतियों की पहचान स्थापित कर अपनी कृतियों में हिंदी काव्य की 39 चुनी हुई महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रस्तुत की हैं।
‘अपना बात ‘ में, उन्होंने भारतीय ज्ञान और साहित्य की इस अमूल्य विरासत के संबंध में गहन शोध किया है, जो केवल सीमित महिला लेखन ही नहीं, बल्कि हिंदी की समग्र सोच और उत्तम लेखन को समृद्ध करती है। साहित्य जगत में उनका योगदान इस बात से ही स्पष्ट है कि है कि वे आज भी हिंदी साहित्य की एक महान कवयित्री के रूप में याद की जाती हैं।
प्रमुख कृतियां
महादेवी ने साहित्य जगत को कई मनमोहक कृतियां प्रदान की हैं। वर्मा एक कवि होने के साथ-साथ एक प्रतिष्ठित गद्य लेखक भी थीं। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-
काव्य संग्रह
महादेवी वर्मा ने कई काव्य संग्रहों की रचना की हैं, जिनमें नीचे दी गई रचनाओं से कई चयनित गीतों का संकलन किया गया है। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं –
- निहार (1930)
- रश्मि (1932)
- नीरजा (1933)
- संध्यागीत (1935)
- प्रथम अयम (1949)
- सप्तपर्णा (1959)
- दीपशिखा (1942)
- अग्नि रेखा (1988)
गद्य और रेखाचित्र
उनकी प्रमुख गद्य रचनाओं में शामिल हैं –
- अतीत के चलचित्र (1961, रेखाचित्र)
- स्मृति की रेखाएं (1943, रेखाचित्र)
- पाठ के साथी (1956)
- मेरा परिवार (1972)
- संस्कारन (1943)
- संभासन (1949)
- श्रींखला के करिये (1972)
- विवेचामनक गद्य (1972)
- स्कंधा (1956)
- हिमालय (1973)
अन्य
महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन इस प्रकार हैं-
- ठाकुरजी भोले हैं
- आज खरीदेंगे हम ज्वाला
पुरस्कार और सम्मान
महादेवी वर्मा, मानव मन की भावनाओं को जिकर उन्हें शब्दों में पिरोती थीं। यह उनकी रचनाओं में देखने को मिलता था। उनकी उन जीवंत रचनाओं और समाजिक कार्यों के लिए उन्हें प्रशासनिक, अर्धप्रशासनिक और व्यक्तिगत सभी संस्थाओं से विभिन्न पुरस्कार व सम्मान मिले। उनमें से कुछ प्रमुख पुरस्कार और सम्मान इस प्रकार हैं –
- 1943 में उन्हें ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ एवं ‘भारत भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये ‘पद्म भूषण’ की उपाधि दी।
- 1971 में साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं। 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया।
- सन 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय, 1977 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, 1980 में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा 1984 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया।
- इससे पूर्व महादेवी वर्मा को ‘नीरजा’ के लिये 1934 में ‘सक्सेरिया पुरस्कार’, 1942 में ‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये ‘द्विवेदी पदक’ प्राप्त हुए।
- ‘यामा’ नामक काव्य संकलन के लिये उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। वे भारत की 50 सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं।
- 1968 में सुप्रसिद्ध भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन ने उनके संस्मरण ‘वह चीनी भाई’ पर एक बांग्ला फ़िल्म का निर्माण किया था जिसका नाम था नील आकाशेर था।
- 16 सितंबर 1991 को भारत सरकार के डाकतार विभाग ने जयशंकर प्रसाद के साथ उनके सम्मान में 2 रुपये का एक युगल टिकट भी जारी किया है।
महादेवी वर्मा कैसे बनीं महिला सशक्तिकरण की मिसाल?
महादेवी एक प्रभावशाली सक्रिय महिला कार्यकर्ती थीं। उन्होंने अपनी रचना ‘श्रृंखला की कड़ियों’ में भारतीय नारी की दयनीय दशा, उनके कारणों और उनके सहज नूतन सम्पन्न उपायों के लिए अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने उन विचारों पर स्वयं जी कर भी दिखाया है। महादेवी एक जानी-मानी चित्रकार भी थीं। उन्होंने अपनी कृति ‘दीप शिखा’ के लिए बहुत से वर्णन चित्रित किए।
महादेवी कहतीं हैं कि ‘भारतीय शास्त्रों में महिलाएं पुरुष की संगिनी रही है, छाया मात्र नहीं’
उन्होंने नारी जगत को भारतीय संदर्भ में मुक्ति का संदेश दिया। नारी मुक्ति के विषय में उनका विचार है कि भारत की स्त्री तो भारत माँ की प्रतीक है। वह अपनी समस्त सन्तान को सुखी देखना चाहती है। उन्हें मुक्त करने में ही उनकी मुक्ति है। मैत्रेयी, गोपा, सीता और महाभारत के अनेक स्त्री पात्रों का उदाहरण देकर वह निष्कर्ष निकालती हैं कि उनमें से प्रत्येक पात्र पुरुष की संगिनी रही है, छाया मात्र नहीं। छाया और संगिनी का अंतर स्पष्ट है – ‘छाया का कार्य, आधार में अपने आपको इस प्रकार मिला देना है जिसमें वह उसी के समान जान पड़े और संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनाना।’
‘हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ’ लेख उन्होंने साल 1931 में लिखा था। स्त्री और पुरुष के पति-पत्नी संबंध पर विचार करते हुए महादेवी जी ललकार भरे स्वर में सवाल उठाती हैं – अपने जीवनसाथी के हृदय के रहस्यमय कोने-कोने से परिचित सौभाग्यवती सहधर्मिणी कितनी हैं? जीवन की प्रत्येक दिशा में साथ देनेवाली कितनी हैं?
मौजूदा समय में भी इन सवालों के जवाब संतोष प्रदान करने लायक नहीं हो सकते। रामायण की सीता पतिव्रता रहने के बावजूद पति की परित्यक्ता बन गयी। नारी की नियति ऐसी क्यों? महादेवीजी इसे नारीत्व का अभिशाप मानती है। साल 1933 में उन्होंने नारीत्व के अभिशाप पर लिखा है – ‘अग्नि में बैठकर अपने आपको पतिप्राणा प्रमाणित करने वाली स्फटिक सी स्वच्छ सीता में नारी की अनंत युगों की वेतना साकार हो गयी है।’ सीता को पृथ्वी में समाहित करते हुए राम का हृदय विदीर्ण नहीं हुआ।
‘भारतीय संस्कृति और नारी’ शीर्षक निबंध में उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्त्री के महत्वपूर्ण स्थान पर गंभीर विवेचना की है। उनके अनुसार मातृशक्ति की रहस्यमयता के कारण ही प्राचीन संस्कृति में स्त्री का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, भारतीय संस्कृति में नारी की आत्मरूप को ही नहीं उसके दिवात्म रूप को प्रतिष्ठा दी है।
महादेवी आधुनिक नारी की स्थिति पर नज़र डालते हुए भारतीय नारी के लिए समाज में पुरुष के समकक्ष स्थान पाने की ज़रूरत पर जोर देती हैं। साल 1934 में लिखित ‘आधुनिक नारी-उसकी स्थिति पर एक दृष्टि’ लेख में वे कहती हैं – ‘एक ओर परंपरागत संस्कार ने उसके हृदय में यह भाव भर दिया है कि पुरुष विचार, बुद्धि और शक्ति में उससे श्रेष्ठ है और दूसरी ओर उसके भीतर की नारी प्रवृत्ति भी उसे स्थिर नहीं करने देती।’
महादेवी जीवन भर अपनी लेखनी से सजगता और निडरता के साथ भारत की नारी के पक्ष में लड़ती रहीं। नारी शिक्षा की ज़रूरत पर जोर से आवाज़ बुलंद की और खुद इस क्षेत्र में कार्यरत रहीं। उन्होंने गांधीजी की प्रेरणा से संस्थापित प्रयाग महिला विद्यापीठ में रहते हुए अशिक्षित जनसमूह में शिक्षा की ज्वाला फैलायी थी।
वह लिखती हैं – ‘वर्तमान युग के पुरुष ने स्त्री के वास्तविक रूप को न कभी देखा था, न वह उसकी कल्पना कर सका। उसके विचार में स्त्री के परिचय का आदि अंत इससे अधिक और क्या हो सकता था कि वह किसी की पत्नी है। कहना न होगा कि इस धारणा ने ही असंतोष को जन्म देकर पाला और पालती जा रही है।’ अपने लेखों में उन्होंने सदैव नरी- हित पर जोर दिया और नारी सशक्तिकरण की मिसाल बनीं।
मृत्यु
महादेवी वर्मा जी ने अपना पूरा जीवन इलाहाबाद में बिताया और फिर 11 सितंबर 1987 वे इस दुनिया की मोह माया को त्याग कर चल बसीं, इन्होंने अपनी कविताओं में महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार को ही नहीं बल्कि समाज के गरीब और जरूरतमंद तथा दलित लोगों के भाव को भी चित्रित किया।
इसके साथ ही महादेवी वर्मा जी के व्यक्तित्व और स्वभाव को देखकर बहुत से रचनाकार और लेखक उनसे प्रभावित हुए। हिंदी साहित्य में महादेवी जी का योगदान हमेशा यादगार रहेगा, साथ ही उनकी दूरदर्शी सोच के भी सभी कायल थे इसलिए इन्हें साहित्य सम्राज्ञी का दर्ज़ा दिया गया। मरकर भी आज वे समाज के प्रति किए गए कार्यों और अपनी जीवंत रचनाओं में अमर हैं।
उनके महान विचार
महादेवी “सादा जीवन, उच्च विचार” के कथन को सिद्ध करती हैं। उन्होंने जितना सादा जीवन व्यतीत किय, उनके विचार उतने ही साफ और उच्च थे। उनके द्वारा कहे गए कुछ कथन, जिनसे उनके महान विचार साफ झलकते हैं, इस प्रकार हैं –
- “जीवन के सम्बन्ध में निरन्तर जिज्ञासा मेरे स्वभाव का अंग बन गई है। ”
- “आज हिन्दु – स्त्री भी शव के समान निःस्पंद है।”
- “अर्थ ही इस युग का देवता है। ”
- “मैं किसी कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं करती… मैं मुक्ति को नहीं, इस धूल को अधिक चाहती हूँ।”
- “अपने विषय में कुछ कहना पड़े : बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को।”
- “कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं, जो साहस के साथ उनका सम्मान करते है ।”
- “कवि कहेगा ही क्या, यदि उसकी इकाई बनकर अनेकता नहीं पा सकी और श्रोता सुनेंगे ही क्या, यदि उन सबकी विभिन्नताएँ कवि में एक नहीं हो सकी।”
- “मेरे संकल्प के विरूद्ध बोलना उसे और अधिक दृढ़ कर देना है।”
- “पति ने उनका इहलोक बिगाड़ दिया है, पर अब उसके अतिरिक्त किसी और की कामना करके वे परलोग नहीं बिगाड़ना चाहती।”
- “गृहिणी का कर्त्तव्य कम महत्वपूर्ण नहीं है, यदि स्वेच्छा से स्वीकृत है।”
- “क्या हमारा जीवन सबका संकट सहने के लिए है?”
- “प्रत्येक गृह स्वामी अपने गृह का राजा और उसकी पत्नी रानी है कोई गुप्तचर, चाहे देश के राजा का ही क्यों न हो, यदि उसके निजी वार्ता का सार्वजनिक घटना के रूप मे प्रचारित कर दे, तो उसे गुप्तचर का अधिकार दुष्टाचरण ही कहा जाएगा।”
- “विज्ञान एक क्रियात्मक प्रयोग है।”
- “वे मुस्कुराते फूल, नही जिनको आता है मुरझाना, वे तोरो के दीज नही जिनको भाता है बुझ जाना।”
- “प्रतिवाद के उपरांत तो मत परिवर्तन सहज है, पर मौन मे इसकी कोई संभावना शेष नहीं रहती।”
- “मैंने हँसी में कहा – ‘तुम स्वर्ग में कैसे रह सकोगे बाबा! वहाँ तो न कोई तुम्हारे कूट पद और उलटवासियाँ समझेगा और न आल्हा-ऊदल की कथा सुनेगा । स्वर्ग के गन्थर्व और अप्सराओ मे तुम कुछ न जँचोगे।”
- “पैताने की ओर यंत्र से रखी हुई काठ और निवाड़ से बनी खटपटी कह रही थी कि जूते के अछूतेपन और खड़ाऊँ की ग्रामीणता के बीच से मध्यमार्ग निकालने के लिए ही स्वामी ने उसे स्वीकार किया है।”
- “प्रत्येक विज्ञान मे क्रियात्मक कला का कुछ अंश अवश्य होता है ।”
- “कला का सत्य जीवन की परिधि में, सौंदर्य के माध्यम द्वारा व्यक्त अखण्ड सत्य है।”
- “व्यक्ति समय के सामने कितना विवश है समय को स्वीकृति देने के लिए भी शरीर को कितना मूल्य देना पड़ता है।”
- कोई भी कला सांसारिक और विशेषतः व्यावसायिक बुद्धि को पनपने ही नहीं दे सकती और बिना इस बुद्धि को पनपने ही नहीं दे सकती और बिना इस बुद्धि के मनुष्य अपने आपको हानि पहुँचा सकता है, दूसरो को नहीं।”
- “एक निर्दोष के प्राण बचानेवाला, असत्य उसकी अहिंसा का कारण बनने वाले सत्य से श्रेष्ठ होता है।”
- “कवि अपनी श्रोता – मण्डली में किन गुणों को अनिवार्य समझता है, यह प्रश्न आज नहीं उठता पर अर्थ की किस सीमा पर वह अपने सिद्धांतों का बीज फेंककर नाच उठेगा, इसका उत्तर सब जानते हैं।”
महादेवी वर्मा के जीवन से जुड़े अनसुने और रोचक तथ्य
कवियित्री महादेवी वर्मा के जीवन से जुड़े कुछ अनसुने और रोचक तथ्य यहां दिए गए हैं –
- महादेवी वर्मा की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई और साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा उन्होंने अपने घर पर पूरी की थी। 1919 में विवाहोपरान्त उन्होंने क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं।
- वह पढ़ाई में काफी निपूर्ण थी इसलिए उन्होंने 1921 में आठवीं कक्षा में प्रांत भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया था और क्या आप जानते हैं कि यहीं से उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत भी की, 7 वर्ष की अवस्था से ही उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था। 1925 में जब तक उन्होंने मैट्रिक पास की तब तक वह काफी सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थी।
- “मेरे बचपन के दिन” कविता में उन्होंने लिखा है कि जब बेटियाँ बोझ मानी जाती थीं, उनका सौभाग्य था कि उनका जन्म एक खुले विचार वाले परिवार में हुआ। उनके दादाजी उन्हें विदुषी बनाना चाहते थे। उनकी माँ संस्कृत और हिन्दी की ज्ञाता थीं और धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। माँ ने ही महादेवी को कविता लिखने, और साहित्य में रुचि लेने के लिए प्रेरित किया।
- महादेवी वर्मा ने 1932 में प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए किया और तब तक उनकी दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुकी थीं। वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य बनीं।
- विवाह के बाद भी वे क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में रहीं।उनका जीवन तो एक सन्यासिनी का जीवन था. उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा।
- उनका सबसे क्रांतिकारी कदम था महिला-शिक्षा को बढ़ावा देना और इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान। उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार 1932 में संभाला। 1930 में नीहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए।
- उन्होंने नए आयाम गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में स्थापित किये। इसके अलावा उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें प्रमुख हैं: मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र।
- उन्होंने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना 1955 में की थी। भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव भी उन्होंने ही रखी और 15 अप्रैल 1933 को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में पहला अखिल भारतवर्षीय कवि सम्मेलन संपन्न हुआ।
- क्या आप जानते हैं कि महादेवी वर्मा बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया था। उनको आधुनिक मीरा’ भी कहा जाता है।
- महादेवी वर्मा को 27 अप्रैल, 1982 में काव्य संकलन “यामा” के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1979 में साहित्य अकादमी फेलोशिप, 1988 में पद्म विभूषण और 1956 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
FAQs
महादेवी वर्मा कौन हैं?
महादेवी वर्मा एक भारतीय हिन्दी -भाषा की कवयित्री, निबंधकार, रेखाचित्र कथाकार और हिन्दी साहित्य की प्रख्यात हस्ती हैं। उन्हें हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माना जाता है। वह उन कवियों में से एक थीं जिन्होंने भारत के व्यापक समाज के लिए काम किया। कवि निराला ने एक बार उन्हें “हिंदी साहित्य के विशाल मंदिर की सरस्वती” भी कहा था। न केवल उनकी कविता बल्कि उनके सामाजिक उत्थान कार्य और महिलाओं के बीच कल्याणकारी विकास को भी उनके लेखन में गहराई से चित्रित किया गया था।
महादेवी वर्मा का साहित्य में क्या स्थान है?
कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ, एक कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक की थी। आधुनिक गीत काव्य में महादेवी वर्मा का स्थान सर्वोपरि है। यह एक महान कवयित्री होने के साथ-साथ हिंदी साहित्य जगत में एक बेहतरीन गद्य लेखिका के रूप में भी जानी जाती है।
महादेवी का जन्म कब और कहां हुआ था?
महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को प्रातः 8 बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ।
महादेवी वर्मा का नाम महादेवी किसने और क्यों रखा?
महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को प्रातः 8 बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः दादा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और उन्हें घर की देवी मानते हुए उनका नाम महादेवी रखा।
महादेवी वर्मा की प्रमुख रचना कौन सी है?
महादेवी के लेखन की प्रमुख विधा कविताएं हैं, महादेवी वर्मा के आठ कविता संग्रह हैं- नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1934), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), सप्तपर्णा (अनूदित 1959), प्रथम आयाम (1974), और अग्निरेखा (1990)।
महादेवी वर्मा के पति का क्या नाम है?
महादेवी वर्मा के पति का नाम स्वरूप नारायण वर्मा है।
साबिया किसकी कृति है?
साबिया महादेवी वर्मा की कृति है।
महादेवी वर्मा का गद्य में योगदान क्या है?
महादेवी वर्मा ने गद्य साहित्य में भी अपना योगदान दिया है। अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, शृंखला की कड़ियाँ, पथ के साथी और मेरा परिवार उनके प्रमुख गद्य साहित्य हैं।
आधुनिक युग की मीरा किसे कहा जाता है?
हिंदी छायावाद युग की महत्त्वपूर्ण स्तंभ महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च, 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था। अपने काव्य में उपस्थित विरह वेदना और भावनात्मक गहनता के चलते ही उन्हें आधुनिक युग की मीरा कहा जाता है।
महादेवी वर्मा को कौन कौन से पुरस्कार से सम्मानित किया?
महादेवी को भारतीय साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार उन्हें उनकी कविताओं के संकलन यामा के लिए 1982 में दिया गया। 1956 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।
यामा काव्य संग्रह का प्रकाशन कब हुआ?
यामा महादेवी वर्मा द्वारा रचित एक प्रसिद्ध काव्य संग्रह है। जिसका पहला प्रकाशन सन् 1946 ई० में हुआ था।
महादेवी इतिहास के पन्नों में अमर हैं, उनकी रचनाएं हमें सदैव उनकी याद दिलाती रहेंगी। जब तक हिन्दी साहित्य जीवित है, तब तक “हिंदी साहित्य के विशाल मंदिर की सरस्वती” को पूजा जाएगा। उन महान कवियित्री को हमरा शत् शत् नमन है।
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