शरद जोशी का जीवन परिचय
शरद जोशी ने सामाजिक परिवर्तनों, राजनीतिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल को बड़ी बारीकी से समझा और देखा था। शरद जोशी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर गहरा असर पड़ा। शरद जोशी वर्तमान व्यवस्था से बहुत क्षुब्ध थे। वे स्वयं कदम-कदम पर दिखने वाले व्यवस्था के खोखलेपन को एक पल भी सहने के लिए तैयार नहीं होते थे। वे हमेशा व्यवस्था को बदलने की भावना एवं विचारों से उद्वेलित रहते थे। उनके विचारों में गहरा सच्चा और खरा अनुभव झलकता था। गहरे चिंतन मनन और परीक्षण के बाद उन्होंने अपनी आस्थाओं की बुनियाद डाली थी। विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता की सेवा की।
परिवार क्रम उज्जैन नगरी मालवा की संस्कार धानी है। यह महाकालेष्वर की पवित्र भूमि है यह भूमि साहित्य के लिए उर्वरा रही है। साहित्य के कई अनमोल रत्नों को इस भूमि ने जना और तराशा है। व्यंग्य कार और हिन्दी व्यंग्य के षिकार पुरुष व्यंग्यार्शि शरद जोशी का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में 21 मई 1931 को हुआ था।
शरद जोशी के पिता श्री निवास जोशी मध्य प्रदेश रोडवेज में डिपों मैनेजनर के पद पर कार्यरत थे। शरद जोशी की माता-का नाम शांति था। उनके परिवार में शरद जोशी को मिलकर कुल 6 भाई-बहन थे। शरद जोशी की मृत्यु5 सितम्बर 1991 मुंबई में हुई।
अपने परिवार के बारे में जानकारी देते हुए स्वयं शरद जोशी ने लिखा है- ‘‘हम कुल छ: भाई-बहन हैं। सब एक-दूसरे से प्रकृति में अलग हैं। छोटे थे तो मारपीट करते थे। अब एक-दूसरे को बेवकूफ समझते हैं। सबका अपना व्यक्तित्व है, अपनी भाषा और अपना कार्यक्षेत्र। मेरी बड़ी बहन पार्थिव पूजे बिना खाना नहीं खाती और मेरे सामने कोई ईश्वर का नाम ले लें, तो मूड ऑफ हो जाता है।’’ शरद जोशी के पिता सरकारी नौकरी में थे। वे जब तक शहर में अपने पाँव जमाते थे तब तक किसी दूसरे शहर में उनका तबादला हो जाता था।
शरद जोशी का परिवार मूलत: गुजराती परिवार है। इनका परिवार चार पीढ़ियों पहले गुजरात से मालवा आया था और इस परिवार में मालवी संस्कृति को अपने भीतर आत्मसात कर लिया था शरद जोशी के दादा, परदादा, उज्जैन में ही रहे। ‘शरद जोशी’ के बचपन का नाम ‘बच्चू’ था। उनके पिता श्री निवास जोशी उस समय रोडवेज में डिपो मैनेजर के पद पर कार्यरत थे। विभागीय कर्मचारियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा उनकी देख-रेख में था कर्मचारी उन्हें बच्चू को छोटे मैनेजर साहब कहते थे। उनके दादा परदादा यहीं के बाशिंदे थे। शरद जोशी के पिता स्वयं सरकारी नौकरी में थे इसीलिए उनकी इच्छा थी कि घर का बड़ा बेटा यानी शरद जोशी भी सरकारी नौकरी करें।
शरद जोशी का जन्म एक ऐसे ब्राह्मण परिवार में हुआ था जहां जात-पांत और कर्मकाण्ड को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया जाता था। उनके घर का का माहौल काफी अनुशासित था। कर्मकाण्डों ब्राह्मण परिवार में छुटपन में घर पर उनको कठोर नियंत्रण में रखा जा रहा था। शरद जोशी से यह अपेक्षा की जा रही थी कि वह दिन रात-खूब पढ़ाई करके क्लास में अब्बल आएं। उन्हें कोर्स के अतिरिक्त पुस्तकें पढ़ने की घर में इजाजत नहीं थी।
उन्होंने बचपन में प्रेमचन्द, शरदचन्द्र व देवकी नन्दन खत्री की पुस्तकों को अपने घरवालों से छुपाकर पढ़ा था। घर के बंदिशों वाले माहौल में वे एक प्रकार की घुटन महसूस किया करते थे। उन्हें अपने घर का माहौल किसी जेलखाने से कम नहीं लगता था। तब किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि जिस बच्चू को बचपन में कठोर अनुशासन और बंदिशों के बीच रखा गया है वह बड़ा होकर शरद जोशी के रूप में हिन्दी व्यंग्य साहित्य का महान लेखक साबित होगा।
शरद जोशी स्वभाव से हंसमुख, दृढ़-निष्चयी तथा स्वाभिमानी थे। पढ़ाई के सिलसिले में वे कभी उज्जैन, कभी नीमच कभी देवास, कभी महू तो कभी इंदौर भटकते रहे। शरद जोशी के शौक और व्यसन करीब-करीब एक जैसे थे। उन्हें किताबें पढ़ना-घूमना, बातचीत करना, पैसे खर्च करना, लिखना और खूब लिखते रहने का शौक था। शरद जोशी बचपन से लिखते रहे थे। जोशी के परिवार में पाठ्य पुस्तकों के अलावा कुछ भी पढ़ने या लिखने की इजाजत नहीं थी शरद जोशी इस मामले में विद्रोही प्रकृति के साबित हुए।
उन्होंने बचपन से ही जमकर लिखना शुरू कर दिया। लिखने के शौक को घरवालों से छुपकर पूरा किया। बचपन में ही उनके लेख अखबारों और पत्रिकाओं में छपने लगे। कुछ समय ‘‘छदम्’’ नाम से भी लिखा। दोस्तों के साथ मिलकर हस्तलिखित पत्रिकाएँ निकाली शरद जोशी ने अपनी पहली कमाई लेखन से ही की थी। उन्होंने एक अखबार में लेख लिखा था, और उन्हें मेहनताना मिला था। 1953 में शरद जोशी ने इदौर के दैनिक अखबार ‘नई दुनिया’ में एक स्तंभ लिखना शुरू किया।
शरद जोशी कहते हैं- ‘‘जब मैं नई दुनिया इंदौर में सप्ताह में तीन की गति से कॉलम लिखताथा मुझे तीस रूपए प्रतिमाह मिलते थे अर्थात् माह में बारह कॉलम के प्रति कॉलम ढाई रूपए। कहानी लिखने पर बारह रूपए से बीस रूपया तक प्राप्त होते थे।’’ 1953 में उन्होंने नई दुनिया इंदौर में ‘‘परिक्रमा’’ नामक स्तंभ लिखना शुरू कर दिया और एक युवा व्यंग्यकार के रूप में उभरे। 1957 में इन्हीं लेखों का संग्रह परिक्रमा के नाम से ही प्रकाशित हुआ। शुरूआती दौर में उन्होंने कहानियां भी लिखीं। 1955 में वे आकाशवाणी इंदौर में पांडुलिपि लेखक के रूप में काम करने लगे। 1956-66 के दौरान उन्होंने म0 प्र0 सूचना विभाग में सरकारी नौकरी की।
1960 के दषक में उन्होंने साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ में ‘‘बैठे ठाले,’’ स्तंभ लिखना शुरू किया और व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में उनका नाम महत्त्वपूर्ण हो गया। 1980 में वे ‘हिन्दी एक्सप्रेस के संपादक बने लेकिन यह पत्रिका चल नहीं पाई। 1985 से वे नवभारत टाइम्स में ‘प्रतिदिन’ स्तंभ लिखते रहे। इससे पहले ‘रविवार’ दिनसार और अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने व्यंग्य लिखे। शरद जोशी यथार्थवादी थे। उन्होंने सत्य स्थितियों से कभी मुंह नहीं मोड़ा वे अपने परिवार, मित्र लेखन, मंचीन पाठ तथा समाज के प्रति बेहद ईमानदार थे। वे बहुत ज्यादा संवेदनशील थे। उनके अनुभवों का आकाश बड़ा बिषाल था। इसलिए उनका स्वभाव भी सरल था। वे सच्चे प्रगतिशील थे। अपने जीवन में जितने साहसी निर्णय शरद जोशी लिए, उतना साहसी कदम उठाने की क्षमता बहुत कम लोगों में होती है। जो गलत हैं, उसे गलत कहने की हिम्मत शरद जोशी हमेशा जुटाए रहे। शरद जोशी का जन्म भले ही भरी गर्मियों में हुआ लेकिन हिन्दी साहित्य में शरद जोशी शीतल और मन को मोहने वाली बयार बनकर सबको हर्षित करते रहे। वे आजीवन लेखन के प्रति प्रतिबद्ध रहे।
आमतौर पर शरद जोशी अपनी किताबों में आत्मकथ्य, भूमिका या दो शब्द लिखना पसन्द नहीं करते थे। ‘‘जादू की सरकार’’ में उन्होंने अपने लेखन के बारे में लिखा है, ‘‘लिखना मेरे लिए जिन्दगी जी लेने की एक तरकीब है। इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ यही कह पाता हूँ कि चलो इतने वर्षों जी लिया। यह एक मुझे बढ़िया बहाना मिल गया। यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता, अब सोचना कठिन है। लेखन मेरा एक निजी उद्देश्य है। कोई अब मुझे इससे बचा नहीं सकता मैं इससे बचकर जी भी नहीं सकता। चूंकि यह मेरे जीवन जीने का सहारा रहा है, इसलिए मेरी इससे कोई शिकायत नहीं है। मेरी सारी शिकायत स्वयं से अपने जीवन से और निरंतर लड़खड़ाते भाग्य से हो सकती है और प्रायः बेसबब हंस देने की आदत न होती तो शिकायत करता भी या उससे अधिक भी कुछ करता। पर धीरे-धीरे यह सब भी हंस कर टाल देने का मामला बन गया है, अब जीवन के आगे किसी प्रकार का विशेषण लगाना मुझे अजीब लगता है। चढ़-बढ़ कर यह कहा कि जीवन संघर्षमय रहा लेखक होने के कारण जिसे मैंने दु:खी-सुखी जिया, फिजूल है। जीवन होता ही संघर्षमय है। किसका नहीं होता ? लिखने वाले का होता है तो क्या अजब होता है।
शरद जोशी की रचनाएँ
हिन्दी व्यंग्य साहित्य को शिखर तक पहुँचाने वाले व्यंग्यार्शि शरद जोशी का समस्त साहित्य व्यंग्यमय है। उन्होंने कहानी उपन्यास, निबंध और नाटक लिखे, सभी रचनाओं में व्यंग्य का निर्वाह किया। उन्होंने अपने व्यंग्य लेखन के माध्यम से राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक और प्रशासन की विकृतियों का पर्दाफाश किया है। एक तरफ से शरद जोशी का नाम तल्ख व्यंग्य का पर्याय बन गया। शरद जोशी की प्रकाशित कृतियाँ हैं-
- परिक्रमा
- किसी बहाने
- जीप पर सवार इल्लियाँ
- रहा किनारे बैठ
- तिलस्म
- दूसरी सतह
- पिछले दिनों
- मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ
- यथासंभव
- यथासमय
- हम भ्रश्टन के भ्रष्ट हमारे
- मुद्रिका रहस्य
- दो व्यंग्य नाटक
- जादू की सरकार
- मैं, मैं और केवल मैं
- प्रतिदिन
- प्रतिदिन (समग्र तीन खण्ड)
- यत्र तत्र सर्वत्र
- झरता नीम, शाश्वत थीम
- नाटक के तीर
- भारत में जातिवाद एवं अन्य निबन्ध (अनुवाद)
शरद जोशी की अन्य रचनाएं ‘‘दूध पीने की कला’’, ‘‘कोई एक आएगा’’, ‘‘खतरा’’, ‘‘‘ट्रिक’’’, जिसके हम मामा हैं, बिना शीर्शक, ‘‘संदेह से घिरी शराफत’’, ‘‘बदतेदिल’’ और ‘‘सोफों की ट्रेजेडी’’, शर्म- तुमको मगर आती है, ‘‘खोखला घर’’, बौद्धिक असहमति, अतृप्त आत्माओं की रेल यात्रा, तिलिस्मा मुद्रिका रहस्य, बुद्ध के दांत’ हिटलर और आंचू तबाखू वाला, भगवान और मुर्गा, वर्जीनिया तुल्फ से सब डरते हैं, पुलिया पर बैठा आदमी, सारी बहस से गुजरकर, और ‘कैसा जादू डाला’, भी महत्त्वपूर्ण कहानियां हैं।
शरद जोशी ने लघु कथाएं भी लिखी हैं। शरद जोशी ने अपनी कहानियों में बहुत कम ही सही, पर ऐतिहासिक मिथकों का भी सहारा लिया है। शरद जोशी ऐतिहासिक पात्रों को आधार बनाकर भी कहानियॉं लिखते नजर आते हैं।
शरद जोशी के उपन्यास एवं नाटक
शरद जोशी जी ने नाट्य लेखन में 1. एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ 2. अंधों का हाथी। ये दोनों ही नाटक राजकमल दिल्ली ने वर्ष 1979 में प्रकाशित किए हैं। शरद जोशी को व्यंग्यकार के रूप में स्थापित करने और लोकप्रिय बनाने में स्तंभ लेखन का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है। शरद जोशी ने अपनी रचनाधर्मिता के प्रारंभिक काल में ही स्तंभ लेखन प्रारंभ कर दिया था। जोशी ने नई दुनिया (इंदौर), धर्मयुग, (बम्बई), सप्ताहिक हिन्दुस्तान (दिल्ली) रविवार (कलकत्ता) तथा नवभारत टाइम्स (बम्बई) के नियमित स्तंभ लिखे। नई दुनिया में वर्ष 1953 में उन्होंने छद्म नाम से स्तंभ लेखन शुरू किया। ‘‘परिक्रमा’’ नामक यह स्तंभ वे ‘‘ब्रह्मपुत्र‘‘ के छद्म नाम से लिखते थे।
1960 के दषक से साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ के ‘बैठे ठाले’ में स्तंभ लिखना शुरू कर दिया। इसके बाद वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान के ताल-बेताल स्तंभ में लिखते रहे। ‘‘ताल बेताल’’ और ‘‘बैठे ठाले’’ स्तंभ में कई व्यंग्य लेखकों के व्यंग्य छपते थे। शरद जोशी इन लेखकों में से सबसे ज्यादा नियमित थे। रविवार ने ‘नावक के तीर’ नामक स्तंभ शुरू हुआ था। स्तंभ लेखा में नवभारत टाइम्स में रोजाना छपने वाला ‘‘प्रतिदिन’’ स्तंभ शरद जोशी के कृतित्व के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। यह स्तंभ वर्ष 1985 में छपना शुरू हुआ और शरद जोशी के जीवन के आखिरी दिन यानी 5 सितम्बर 1991 तक यह स्तंभ प्रतिदिन छपता रहा। अपनी युवा अवस्था में शरद जोशी ‘नई दुनिया’ अखबार में स्तंभ लिखना चाहते थे। उनकी कुछ कहानियाँ इस अखबार में प्रकाशित हो चुकी थीं, पर शरद जोशी की मंषा थी कि वे नियमित लिखे।
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