हिन्दी साहित्य का काल विभाजन | Hindi Sahity Ka Kal Vibhajan

हिन्दी साहित्य का काल विभाजन वर्गीकरण एवं और नामकरण को लेकर विद्वानों के विविध मत रहे हैं। काल विभाजन के सम्बन्ध में सबसे पहला वर्गीकरण ‘जॉर्ज ग्रियर्सन’ का है, जो हिन्दी साहित्यकारों ने अस्वीकार कर दिया। इनके अतिरिक्त मिश्रबंधुओं, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामकुमार वर्मा, गणपति चंद्र गुप्त, रामखेलावन, डॉ नगेन्द्र, डॉ बच्चन और रामस्वरूप चतुर्वेदी ने भी हिन्दी साहित्य का वर्गीकरण और नामकरण किया है। इनमें सबसे प्रसिद्ध रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी साहित्य काल वर्गीकरण एवं विभाजन है।

साहित्य के नामकरण के सन्दर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि-

सारे रचनाकाल को केवल आदि, मध्य, पूर्व और उत्तर इत्यादि खण्डों में आँख मूंदकर बांट देना, यह भी न देखना की खंड के भीतर क्या आता है, क्या नहीं, किसी वृत्तसंग्रह को इतिहास नहीं बना सकता |

आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में अपने द्वारा किये गए नामकरण के सन्दर्भ में लिखा है-

जिस कालविभाग के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ी है,वह एक अलग काल माना गया है और उनका नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरुप के आधार पर किया गया है |

शुक्ल जी ने नामकरण का आधार एक विशेष काल में विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता को आधार माना है | हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में काल-विभाजन के लिए प्राय चार पद्धतियों का अवलंब लिया गया है।

पहली पद्धति के अनुसार संपूर्ण इतिहास का विभाजन चार युग अथवा काल खंडों में किया गया है- (1)आदिकाल, (2)भक्तिकाल, (3)रीतिकाल, और (4)आधुनिककाल; आचार्य शुक्ल द्वारा और उनके अनुसरण पर नागरी प्रचारिणी सभा के इतिहासों में इसी को ग्रहण किया गया है।

अन्य विद्वानों के अनुसार केवल तीन युगों की कल्पना ही विवेक सम्मत है- (1)आदिकाल, (2)मध्यकाल, (3)आधुनिककाल; भारतीय हिंदी परिषद के इतिहास में इसे ही स्वीकार किया गया है और गणपति चंद्र गुप्त ने भी अपनी वैज्ञानिक इतिहास में इसी का अनुमोदन किया है।

साहित्य के काल विभाजन करने की पद्धतियों के अपने-अपने गुण दोष हैं, परंतु यहां भी समन्वयात्मक दृष्टिकोण ही श्रेयस्कर है। जैसा कि हमने पूर्व विवेचन में स्पष्ट किया है साहित्य के इतिहास में युग चेतना और साहित्य चेतना का अनिवार्य योग रहता है।

अतः साहित्य के विभाजन में भी ऐतिहासिक काल-क्रम और साहित्य विधा दोनों का आधार ग्रहण करना होगा। साहित्य के कथ्य अर्थात संवेद्य तत्व के विकास का निरूपण करने के लिए संपूर्ण युगों को आधार मानकर चलना होगा और उसके रूप का विकास क्रम समझने के लिए अलग-अलग विधाओं को इस समन्विति पद्धति को स्वीकार कर लेने पर हिंदी साहित्य के काल विभाजन की समस्या बहुत कुछ हल हो सकती है।

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Hindi Sahity Ka Kal Vibhajan

विभिन्न विद्वानों के अनुसार हिन्दी साहित्य का काल विभाजन निम्नलिखित है-

जॉर्ज ग्रियर्सन का काल विभाजन व नामकरण

यद्यपि हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत गार्सा द तासी से होती है। लेकिन काल विभाजन और नामकरण का पहला प्रयास जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अंग्रेजी भाषा में किया था। जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने साहित्य इतिहास को 11 काल खंडों में विभाजित किया है-
  1. चारण काल
  2. 15वीं सदी का धार्मिक पुनर्जागरण काल
  3. जायसी की प्रेम कविता
  4. कृष्ण संप्रदाय
  5. मुगल दरबार
  6. तुलसीदास
  7. प्रेम काव्य
  8. तुलसीदास के अन्य परवर्ती
  9. 18वीं शताब्दी
  10. कंपनी के शासन में हिंदुस्तान
  11. विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान

मिश्र बंधु का काल विभाजन और नामकरण

मिश्र बंधु ने अपने संपूर्ण साहित्य को पांच काल खंडों में विभाजित किया है। मिश्र बंधु के साहित्य इतिहास को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बड़ा भारी कवि वृत्त संग्रह कहा है। इन्होंने अपने साहित्य इतिहास के विभाजन के लिए संवत् काल को चुना है-

  1. आरंभिक काल
    • क)- पूर्व आरंभिक काल(संवत् 700-1343)
    • ख)- उत्तर आरंभिक काल(संवत् 1343-1444)
  2. माध्यमिक काल
    • क)- पूर्व माध्यमिक काल(संवत् 1445-1560)
    • ख)- प्रौढ़ माध्यमिक काल(संवत् 1561-1680)
  3. अलंकृत काल
    • क)- पूर्व अलंकृत काल(संवत् 1681-1790)
    • ख)- उत्तर अलंकृत काल(संवत् 1791-1889)
  4. परिवर्तन काल(संवत् 1890-1925)
  5. वर्तमान काल(संवत् 1925 से आगे)

आचार्य रामचंद्र का काल विभाजन और नामकरण

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने साहित्य इतिहास को चार भागों में विभाजित किया है-

  1. वीरगाथा काल (संवत् 1050-1375)
  2. भक्ति काल ( संवत् 1375-1700)
  3. रीतिकाल (संवत् 1700-1900)
  4. आधुनिक काल ( संवत् 1900 से आगे)

टिप्पणी-: शुक्ल जी ने आधुनिक काल को ही गद्य काल कहा है। इसे दो भागों में विभक्त किया है। ‘गद्य खंड’ और ‘काव्य खंड’ पुनः शुक्ल जी ने काव्य खण्ड को ‘पुरानी-काव्य-धारा’ और ‘नई-काव्य-धारा’ नाम से विभाजित किया है।

आधुनिक काल ( संवत् 1900 से आगे):

  1. गद्य खंड
  2. काव्य खंड
    1. पुरानी-काव्य-धारा
    2. नई-काव्य-धारा

शुक्ल जी ने आधुनिक काल के तीन उत्थानों की चर्चा की है जो निम्नवत् है-

  1. प्रथम उत्थान- ( संवत् 1925-1950)
  2. द्वितीय उत्थान- (संवत् 1950-1975)
  3. तृतीय उत्थान- (संवत् 1975 से आगे)

हजारी प्रसाद द्विवेदी का काल विभाजन व नामकरण

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने साहित्य इतिहास के नामकरण व काल विभाजन का आधार संवत् के स्थान पर पूरी सदी को माना है।

  1. आदिकाल (सन् 1000-1400 ई.)
  2. भक्तिकाल (सन् 1400-1700 ई.)
  3. रीतिकाल (सन् 1700-1900 ई.)
  4. आधुनिक काल (1900 से आगे)

डॉ रामकुमार वर्मा का काल विभाजन व नामकरण

  1. संधिकाल (संवत् 700-1000)
  2. चारणकाल (संवत् 1000-1375)
  3. भक्तिकाल (संवत् 1375-1700)
  4. रीतिकाल (संवत् (1700-1900)
  5. आधुनिक काल (संवत् 1900 से आगे)

श्यामसुंदर दास का काल विभाजन व नामकरण

  1. वीरगाथा युग (संवत् 1050-1400)
  2. भक्तियुग (संवत् 1400-1600)
  3. रीतियुग (संवत् 1600-190)
  4. नवीन विकास युग (संवत् 1900 से आगे)

गणपति चंद्र गुप्त का काल विभाजन व नामकरण

  1. प्रारंभिक काल या उन्मेष काल ( सन् 1184-1350)
    • क)- धार्मिक रास काव्य परम्परा (जैन कवियों के काव्य का उल्लेख)
    • ख) संत काव्य (संत कवियों के काव्य का उल्लेख)
  2. मध्यकाल या विकास काल (सन् 1350-1857)
    • क)- पूर्व मध्य काल या उत्कर्ष काल (सन्1300-1500)
    • ख)- मध्यकाल या चरमोत्कर्ष काल (सन् 1500-1600)
    • ग)- उत्तर मध्य काल या अपकर्ष काल (सन् 1600-1857)
  3. आधुनिक काल (1857 से आगे) आधुनिक काल के विभाजन में गुप्त जी ने परंपरा का ही पालन किया है-
    • क)- भारतेंदु युग (1857-1900)
    • ख)- द्विवेदी युग (190-1920)
    • ग)- छायावाद युग (1920-1937)
    • घ)- प्रगतिवादी युग (1937-1945)
    • अं)- प्रयोगवाद युग (1945-1965)

रामखेलावन पांडे का काल विभाजन व नामकरण

  1. संक्रमण काल या प्रवर्तन काल (1000-1400 ई.)
  2. संयोजन काल (1401-1600 ई.)
  3. संवर्धन काल (1601-1800 ई.)
  4. संचयन काल (1801-1900 ई.)
  5. संबोधित काल (1901-1947 ई.)
  6. संचरण काल (1947 से आगे)

रामस्वरूप चतुर्वेदी का काल विभाजन व नामकरण

  1. वीरगाथा काल (1000-1350 ई.)
  2. भक्ति काल (1350-1650 ई.)
  3. रीतिकाल (1650-1850 ई.)
  4. गद्य काल (1850 से आगे) 

Hindi Sahitya Ka Kal Vibhajan

हिन्दी साहित्य का आदर्श काल विभाजन

हिन्दी साहित्य के विकास को अध्ययन की सुविधा के लिये चार ऐतिहासिक भागों में वर्गीकृत या विभाजित करते हैं, जो इस प्रकार हैं- ‘आदिकाल (वीरगाथा काल)’, ‘भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल)’, ‘रीति काल (उत्तर मध्य काल)’ और ‘आधुनिक काल (गद्यकाल)’।

  1. आदिकाल (वीरगाथा काल) – 1000 ई. से 1350 ई. तक।
  2. भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल) – 1350 ई. से 1650 ई. तक।
  3. रीति काल (उत्तर मध्य काल) – 1650 ई. से 1850 ई. तक।
  4. आधुनिक काल (गद्यकाल) – 1850 ई. से अब तक।

1. आदिकाल या वीरगाथा काल (1000 ई० -1350 ई०)

हिन्दी साहित्य के इतिहास में लगभग 10वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को आदिकाल कहा जाता है। यह नाम (आदिकाल) डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है।

आदिकाल को ग्रियर्सन ने “चारण काल“, मिश्र बंधु ने “प्रारंभिक काल“, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “बीज वपन काल“, शुक्ल ने आदिकाल को “वीरगाथा काल”, राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध “सामंत काल“, रामकुमार वर्मा ने “संधिकाल व चारण काल“, और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “आदिकाल” की संज्ञा दी है।

आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृतियां मिलती हैं- धार्मिकता, वीरगाथात्मकताश्रृंगारिकता

आदिकाल की कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ ये हैं- (i) खुमान रासो (ii) वीसलदेव रासो (iii) पृथ्वीराज रासो (iv) खुसरो की रचनाएँ और विद्यापति की पदावली।

2. पूर्व-मध्यकाल या भक्तिकाल (1350 ई० – 1650 ई०)

हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति काल महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को ‘पूर्व मध्यकाल’ भी कहा जाता है। कुछ एक विद्वान इसकी समयावधि 1375 वि.सं से 1700 वि.सं तक बताते हैं। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी में प्राप्त होती हैं।

दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः

जाति-पांति पूछे नहिं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।

रामानंद ने विष्णु के अवतार राम की उपासना पर बल दिया। रामानंद ने और उनकी शिष्य-मंडली ने दक्षिण की भक्तिगंगा का उत्तर में प्रवाह किया। समस्त उत्तर-भारत इस पुण्य-प्रवाह में बहने लगा। भारत भर में उस समय पहुंचे हुए संत और महात्मा भक्तों का आविर्भाव हुआ।

महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया।

इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं।

भक्तिकाल के कवियों में सूरदास, संत शिरोमणि रविदास, ध्रुवदास, रसखान, व्यासजी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधरभट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, परमानंद, कृष्णदास, श्रीभट्ट, सूरदास, मदनमोहन, नंददास, चैतन्य महाप्रभु आदि कवि आते हैं।

भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं :

  • सगुण भक्ति– सगुण काव्य धारा के कवि ईश्वर के सगुण अर्थात साकार रूप की आराधना करते थे। सगुण काव्य धारा के कवियों को मुख्यतः दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।
    1. रामाश्रयी शाखा (रामभक्ति काव्यधारा)
    2. कृष्णाश्रयी शाखा (कृष्णभक्ति काव्यधारा)
  • निर्गुण भक्ति– निर्गुण काव्य धारा के कवि ईश्वर में निर्गुण अर्थात निराकार रूप की आराधना करते थे। निर्गुण काव्य धारा के कवियों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।
    1. ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्यधारा)
    2. प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्यधारा)

3. उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल (1650 ई०- 1850 ई०)

नामांकरण की दृष्टि से उत्तर-मध्यकाल हिंदी साहित्य के इतिहास में विवादास्पद है। इसे मिश्र बंधु ने- ‘अलंकृत काल‘, तथा रामचंद्र शुक्ल ने- ‘रीतिकाल’, और विश्वनाथ प्रसाद ने- ‘श्रृंगार काल‘ कहा है।

रीतिकालीन कविता में लक्ष्मण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृतियां मिलती है उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थी। हिंदी में “रीति” या “काव्यरीति” शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को “रीतिकाव्य” कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार संस्कृत के प्राचीन साहित्य विशेषता रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तर कालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया। लक्ष्मण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार और संचारी भावों के पूर्व निर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर यह कवि बधी सधी बोली में बंधे सदे भाव की कवायद करने लगे।।

इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार रस की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए।

कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई।

4. आधुनिक काल या गद्यकाल (1850 ईसवी से अब तक)

आधुनिक काल रीतिकाल के बाद का काल है। आधुनिक काल को हिंदी भाषा साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग माना जा सकता है। जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, कहानी, समालोचना, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ। जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, समालोचना, कहानी, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ।

1800 विक्रम संबत के उपरांत भारत में अनेक यूरोपीय जातियां व्यापार के लिए आईं। उनके संपर्क से यहां पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पड़ना प्रारंभ हुआ। विदेशियों ने यहां के देशी राजाओं की पारस्परिक फूट से लाभ उठाकर अपने पैर जमाने में सफलता प्राप्त की। जिसके परिणाम-स्वरूप यहां पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई। अंग्रेजों ने यहां अपने शासन कार्य को सुचारु रूप से चलाने एवं अपने धर्म-प्रचार के लिए जन-साधारण की भाषा को अपनाया। इस कार्य के लिए गद्य ही अधिक उपयुक्त होती है। इस कारण आधुनिक युग की मुख्य विशेषता गद्य की प्रधानता रही।

इस काल में होने वाले मुद्रण कला के आविष्कार ने भाषा-विकास में महान योगदान दिया। स्वामी दयानंद ने भी आर्य समाज के ग्रंथों की रचना राष्ट्रभाषा हिंदी में की और अंग्रेज़ मिशनरियों ने भी अपनी प्रचार पुस्तकें हिंदी गद्य में ही छपवाईं। इस तरह विभिन्न मतों के प्रचार कार्य से भी हिंदी गद्य का समुचित विकास हुआ।

इस काल में राष्ट्रीय भावना का भी विकास हुआ। इसके लिए श्रृंगारी ब्रजभाषा की अपेक्षा खड़ी बोली उपयुक्त समझी गई। समय की प्रगति के साथ गद्य और पद्य दोनों रूपों में खड़ी बोली का पर्याप्त विकास हुआ। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र तथा बाबू अयोध्या प्रसाद खत्रीने खड़ी बोली के दोनों रूपों को सुधारने में महान प्रयत्न किया। उन्होंने अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा द्वारा हिंदी साहित्य की सम्यक संवर्धना की।

इस काल के आरंभ में राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, जगन्नाथ दास रत्नाकर, श्रीधर पाठक, रामचंद्र शुक्ल आदि ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की। इनके उपरांत भारतेंदु जी ने गद्य का समुचित विकास किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसी गद्य को प्रांजल रूप प्रदान किया। इसकी सत्प्रेरणाओं से अन्य लेखकों और कवियों ने भी अनेक भांति की काव्य रचना की। इनमें मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, नाथूराम शर्मा शंकर, ला. भगवान दीन, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, गोपाल शरण सिंह, माखन लाल चतुर्वेदी, अनूप शर्मा, रामकुमार वर्मा, श्याम नारायण पांडेय, दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रभाव से हिंदी-काव्य में भी स्वच्छंद (अतुकांत) छंदों का प्रचलन हुआ।

FAQs

Que 1. आदिकाल के अन्य नाम क्या हैं?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ‘वीरगाथा काल‘ तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे ‘वीरकाल‘ नाम दिया है। इस काल के समय के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले मिश्र बंधुओं ने इसका नाम “आरंभिक काल” किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘बीजवपन काल‘। डॉ॰ रामकुमार वर्मा ने इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर इसको “चारण-काल” कहा है और राहुल संकृत्यायन ने “सिद्ध-सामन्त काल“।

Que 2. हिंदी साहित्य का विभाजन विभाजन कितने काल खंडों में किया गया है?

हिंदी साहित्य का विभाजन चार काल खंडों में किया गया है- (1)आदिकाल (2)भक्तिकाल (3)रीतिकाल (4)आधुनिक काल

Que 3. “हिंदी साहित्य का इतिहास” कब और किसने लिखा?

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘ को सबसे प्रामाणिक तथा व्यवस्थित इतिहास माना जाता है। आचार्य शुक्ल जी ने इसे “हिन्दी शब्दसागर की भूमिका” के रूप में लिखा था जिसे बाद में स्वतंत्र पुस्तक के रूप में 1929 ई० में प्रकाशित आंतरित कराया गया।

Que 4. हिंदी साहित्य के जनक कौन है?

भारतेंदु हरिश्चंद्र (9 सितंबर 1850 – 6 जनवरी 1885) को हिंदी साहित्य के जनक के रूप में जाना जाता है। 18 साल की उम्र में, उन्होंने बंगाली नाटक ‘विद्यासुंदर’ का हिंदी अनुवाद लिखा। हरिश्चंद्र ने हिंदी को स्थापित करने के लिए जो गद्य लिखा था, उसमें से अधिकांश आज हम कविवचनसुधा और हरिश्चंद्र पत्रिका में जानते हैं, जिसकी स्थापना उन्होंने 1873 में की थी। उन्होंने कलम नाम ‘रासा’ के तहत लिखा, देश की गरीबी, अमानवीय शोषण और विभिन्न अन्य सामाजिक कल्याण से जुड़े विषयों पर प्रकाश डाला।

Que 5. हिंदी साहित्य का आरंभ कब हुआ?

हिंदी साहित्य का आरंभ 8वीं शताब्दी में आदिकाल के साथ माना जाता है। हिन्दी का आरम्भिक साहित्य अपभ्रंश में मिलता है। हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत तक जातीं हैं। परन्तु मध्ययुगीन भारत के अवधी, मागधी, अर्धमागधी तथा मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी का आरम्भिक साहित्य माना जाता हैं।