आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य कौन-कौन से हैं?

आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य

आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य, आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य कौन-कौन से हैं?

धनवन्तरि तथा दिवोदास

पौराणिक इतिहास में भी दिवोदास नाम के अनेक व्यक्ति मिलते है।
हरिवंश पुराण के 29 वे अध्याय में काश वंश में धन्वन्तरि तथा दिवोदास का
काशीराज के रूप में उल्लेख मिलता है। यह वंशावली निम्न प्रकार है –

काश
दीर्घतया
धैन्व
धन्वन्तरि
केतुमान
भीमरथ
दिवोदास
प्रतर्दन
वत्स
अलंर्क

कांश के पौत्र धन्व नाम वाले राजा ने समुद्र मन्थन से उत्पन्न अब्ज
(कमल) नाम देवता की आराधना करके कमल के अवतार रूप धन्वन्तरि
नामक पुत्र को प्राप्त किया। उस धन्वन्तरि ने भारद्वाज से आयुर्वेद का ज्ञान
प्राप्त करके उसे आठ भागों में विभक्त करके शिष्यों को उपदेश दिया।
इसके प्रपौत्र दिवोदास ने वाराणसी नगरी की स्थापना की। दिवोदास का
पुत्र प्रतर्दन तथा दिवोदास के समय शून्य हुई वाराणसी को प्रतर्दन के पात्रै
कौशलराज अलर्क ने पुन: बसाया। ऐसा हरिवंश पुराण से प्रतीत होता है।

महाभारत मे भी चार स्थानों पर दिवोदास का नाम आता है। महाभारत मे दिवोदास का काशीराज होना, वाराणसी की स्थापना होना, द्वारा पराजित
होकर भारद्वाज की शरण में जाना उसके द्वारा किये हुए पुत्रेष्टि यज्ञ में
प्रतर्दन नामक वीर पुत्र की उत्पत्ति आदि मिलते जुलते विषय ही मिलते हैं।
जिससे हरिवंश पुराण तथा महाभारत में वर्णित दिवोदास की एकता प्रतीत
होती है। अग्नि पुराण तथा गरुु ड पुराण मे  भी वैद्य धन्वन्तरि की चाथ्ै ाी
पीढ़ीं में दिवोदास का उल्लेख है। और यास्क निरुक्त (1-9) कौषितकी
ब्राह्यण के अनेक अश्ं ा व्याख्यात हैं। 

यास्क का समय विद्वानों के अनुसार
800 ई.पू. माना है। बुद्ध तथा महावीर के सम्प्रदाय का एक भी विषय न
मिलने से वेलवल्कर तथा भण्डार कर ने पाणिनि का समय (700-800
ई.पू.) माना है। विभिन्न मतों के दिखाई देने पर भी पाणिनी तथा उससे
भी पूर्ववर्ती यास्क द्वारा ग्रहित कौषितकी ब्राह्यण का समय बहुत पहले का
प्रतीत होता है। बुद्ध के बाद का तो नही है। 
इस प्रकार एतरेय तथा
कौषितकी ब्राह्यण के मध्य का होने से यह दिवोदास उपनिषद् कालीन
प्रतीत होता है। आरै धन्वन्तरि को अपन े से भी प्राचीन सिद्ध करता है।

सुश्रुत

सुश्रुत उपनिषद कालीन दिवोदास के शिष्य रूप में उल्लेख होने से
तथा सुश्रुत संहिता में कृष्ण का नाम मिलने से पव्म्ं हेमराज जी के प्रमाणों
में इसको पाणिनि से पूर्व उपनिषदकालीन मानते हैं। साथ ही उनका कहना है कि सुश्रुत मे बौद्ध विचार नही हैं किन्तु सुश्रुत में  भिक्षु संघटी शब्द आता है। इसमें डल्हण ने भिक्षु का शाक्य भिक्षु ही अर्थ किया है। सघ्ं ााटी भिक्षुओं  की दोहरी चादर होती है। जिससे वह ऊपर से आढे ़ते है इस आधार पर
इसका काल बौद्ध काल के अन्नतर निश्चित होता है।

सुश्रुत संहिता में लिखा है कि सुश्रुत का संहिता निर्माता विश्वामित्र
का पुत्र सुश्रुत है। चन्द्रदत्त ने भी टीका में ऐसा ही लिखा है। विश्वामित्र
द्वारा अपने पुत्र सुश्रुत को काशीराज धन्वन्तरि के पास अध्ययन के लिये
भेजने का जो उल्लेख भाव प्रकाश में है वह इसी उपलब्ध सुश्रुत के आधार
पर है। आग्नेय पुराण में (279-292) नर, अश्व और गायो से सम्बन्धित
आयुर्वेद का ज्ञान भी सुश्रुत और धन्वन्तरि के बीच शिष्य रूप गुरु में वर्णित
है।

लगभग दो सहस्र वर्ष प्राचीन दार्शनिक आचार्य नागार्जुन का उपाय
हृदय नामक दार्शनिक ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है। इसमें भैषज्य विद्या के
आचार्य के रूप में सम्मान एवं गारै व के साथ सुश्रुत का नाम दिया है। इस
प्रकार लगभग दो सौ वर्ष पूर्व आचार्य नागार्जुन द्वारा भी आचार्य रुप में
सुश्रुत का नाम दिया होना इसकी अर्वाचीनता के प्रतिवाद के लिए पर्याप्त
प्रमाण है।

मैकडोनल नामक विद्वान लिखता है कि सुश्रुत ई.पू. चतुर्थ शताब्दी
से पहले का प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि बाबर मनै ुस्क्रिपट के प्रकरण
चरक सुश्रुत के साथ केवल भाषा में ही समानता नहीं रखते अपितु उनमें
शब्दों की भी समानता मिलती है।

नागार्जुन

राजतरंगिणी के लेखक कल्हण ने बुद्ध के अविर्भाव से 150 वर्ष पूर्व
नागार्जुन नामक प्रसिद्ध विद्वान के होने का निर्देश किया है। सातवाहन
राजा के समकालीन एक महाविद्वान बोधि सत्व नागार्जुन का उल्लेख हर्ष
चरित में है। सुश्रुत का एक संस्कर्ता नागार्जुन है। जिसे कुछ लोग बौद्ध
विद्वान नागार्जुन मानते हैं। नागार्जुन नाम वाले अनेक प्राचीन विद्वान मिलते
हैं। डल्हणाचार्य ने सुश्रुत की जो टीका की है, उसमें नागार्जुन का उल्लेख
है। सुश्रुत में इस विषय की चर्चा न होने से इसे नागार्जुन के सुश्रुत
सस्ंकतार् होने के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं  मिलता। 

बाद्धै दर्शन, माध्यमिक
वृत्ति, तर्क शास्त्र तथा उपाय हृदय के प्रवर्तक नागार्जुन दार्शनिक है वह
वैद्य नही थे। नागार्जुन की रचना के रूप से मिलने वाले कक्षपुट योग
शतक, तत्व प्रकाश आदि ग्रन्थां े मे वैद्य क विषय मे लिखित योग शतक का
तिब्बतीय भाषा अनुवाद भी मिलता है। नागार्जुन की ही अन्य चितानन्द
पटीयसी नामक वैद्यक की संस्कृत में लिखी हुई ताडपुस्तक तिब्बत के
गीममठ में है। बौद्धों का आध्यात्म विषयक परम रहस्य सुखामि सम्बोधि
तथा समय मुद्रा आदि उनके अन्य ग्रन्थ हैं। 
इन भिन्न-भिन्न विषयों के
ग्रन्थों का निर्माता एक ही व्यक्ति था या भिन्न-भिन्न यह विचारणीय विषय
हैं सातवाहन राजा के समकालीन एक विद्वान बोधिसत्व का उल्लेख हर्ष
चरित्र में है।

जीवक

मज्झिम निकाय के अनुसार बुद्ध के शरणागत तथा उपासक होने की
प्रतीती होती है किन्तु कश्यप संहिता क े तन्त्र के आचार्य के बौद्धत्व का
कही निर्देश नही है। बौद्ध विद्वान की वाणी तथा लेखनी द्वारा अन्त:करण से
निकली बौद्ध छाया भी इस ग्रन्थ में कहीं भी नहीं मिलती है इससे प्रतीत
होता है कि बौद्ध ग्रन्थोंnका जीवक तथा कश्यप संहिता के तन्त्र के आचार्य
वृद्ध जीवक में बहुत भेद है।

नवनीतकम और कश्यप संहिता के कल्पाध्याय के अनुसार ज्ञात होता
है, कि कश्यप द्वारा उपदिष्ट संहिता को कनरवल निवासी तथा ऋचिक पुत्र
वृद्ध जीवक नाम वाले किसी महषिर् ने ग्रहण करके संिक्षप्त तन्त्र रुप में
प्रकाशित किया। यह वृद्ध जीवक कानै है? इसका अनुसंधान करने पर हमें
बुद्ध के समय के महावग्ग नामक पाली ग्रन्थ बौद्ध जातक तथा तिब्बतीय
गाथाओं मे  कुमारभृत विशेषण युक्त जीवक नामक किसी प्रसिद्ध वैद्य का
वृतांत मिलता है। बौद्ध ग्रन्थो के जीवक का मगध देश के रहने वाले
बिम्बिसार द्वारा भूजिष्या नामक वेश्या से उत्पन्न हुए तथा तरूण वैद्य के
रूप में निर्देश किया होने से इनका काल 2500 वर्ष पूर्व (ई. पू. 600)
शताब्दी प्रतीत होता है। तिब्बतीय कथा के अनुसार स्तुप निर्माता तथा बाद
में तथागत के सम्प्रदाय में जीवक प्रविष्ट हुए।

आत्रेय

बौद्धकाल में एक दूसरे भिक्षु आत्रेय का उल्लेख मिलता है। जो
तक्षशिला में अध्यापक थे। अत्रि के पुत्र आत्रेय का काल ईव्म्पूव्म् आठवी
शताब्दी के लगभग माना जाता है। आत्रेय एक महान चिकित्सक तथा
अध्यापक थे। उन्होंने कई कृतियों की रचना की है। इसमें आत्रेय संहिता
प्रसिद्ध तथा सर्वविदित है। आत्रेय के उपदेशां े को उनके शिष्यो अग्निवेश,
भेल, जातुकर्ण, हारीत, क्षारपीठा, एवं पराशर जैसे शिष्यों ने निबद्व कर
अपने-अपने नाम से तन्त्रो की रचना की। ये तन्त्र बहुत ही जनोपादेय
सिद्ध हुए। समय चक्र के प्रभाव से आज वे सभी विलुप्त हो गये हैं। इनमें
से अग्निवेश तन्त्र सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ और उसका संस्कार चरक द्वारा
हुआ। यह तन्त्र संसार के अनन्तर चरक संहिता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कालान्तर में इसके खण्डित अंशो एवं उपादेय सामग्री का प्रतिसंस्कार
आचार्य दृढ़बल द्वारा हुआ।

पुर्नवसु आत्रेय के पिता अत्रि ऋग्वेद के पंचम मण्डल के दृष्टा हैं।
चरक मे अनेक स्थलों पर आत्रेय को आत्रिपुत्र के रूप में भी स्मरण किया
हैं। इसके अतिरिक्त चरक पर ऋग्वेद के दशम मण्डल के नारदीय सुक्त
एवं अनोभद्रीय सुक्त के नामकरण की शैली पर ही चरक संहिता के आदि
के कुछ अध्याय प्रथम श्लोक के प्रथम पंक्ति के आधार पर शीर्षाकित हुए
है। अतएवं इस अंर्तसाक्ष्य के कारण आत्रेय के काल को लगभग दो हजार
ई.पू. मे स्थिर किया गया है। प्राचीन काल में शाखा या चरण के रूप
में विद्या पीठ चलते थे। शाखा या चरण का नाम ऋषि के नाम पर होता
था। एक ऐसी ही शाखा कृष्ण यजुर्वेद का सम्बन्ध वश्ै ाम्पायन से है। अग्निवेश आदि शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश देने वाले पुनर्वसु आत्रेय का
समय निश्चित करने का सबसे बड़ा साधन उनका अपना उपदेश भी है।
चरक संहिता में ‘काम्पिलय नगर को द्विजाति वराहध्युषित कहा है।

चरक संहिता मे  कश्यप नाम दो स्थानों पर आता है। इन स्थानों में
वह अन्य ऋषियों के साथ भी है। काश्यप संहिता में प्रत्येक अध्याय के
प्रारम्भ तथा अन्त मं े इति ह स्माह कश्यप इति कश्यप कश्यपोव्रीत इत्यादि
द्वारा बहुत से स्थानों पर कश्यप शब्द से कौमार भृत्य का प्रतिपादक
माैिलक ग्रन्थ है। जिसके मलू उपदेष्टा महर्षि कश्यप है। उनके उपदेश को
ऋचिक पुत्र वृद्व जीवक ने ग्रन्थ रूप में निबद्व किया है, और आगे चलकर
जब ये ग्रन्थ लुप्त हो गया तो उसके वश्ं मे समुद्धभतू वात्सय नामक
आचार्य ने धर्म तथा लोक कल्याण के लिए अपनी बुद्धि तथा श्रम से उसका
प्रतिसंस्कार करके उसे प्रकाशित किया। प्रस्तुत ग्रन्थ में शक और हूणों के
उल्लेख के कारण इसका संस्कार समय आचार्य प्रियव्रत शर्मा छठीं शताब्दी
मानते है।

चरक

बौद्ध त्रिपिटिकों में कनिष्क के राजवैद्य का नाम चरक मिलता है।
कनिष्क के समय में ही आचार्य नागार्जुन की स्थिति मानी जाती है। चरक
संहिता और उपाय हृदय दोनों में एक समान वाद विषय का उल्लेख दोनों
को समकालीन सिद्ध करता है। कनिष्क का समय ईसा की प्रथम शताब्दीं
माना जाता है। इसमें यह निश्चित नही  होता है, कि नागार्जुन का
संमकालीन चरक ही अग्निवेश तन्त्र का प्रतिसंस्कृत था। क्योंकि चरक
संहिता में न तो कनिष्क का कोई नाम मिलता है, आरै न ही उसमे प्रसूित
विद्या की कोई विशिष्ट सामाग्री है।

कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा भी चरक नाम से प्रसिद्ध है, उस शाखा
को मानने वाले भी चरक कहलाते हैं। ऐसा शतपथ आदि ब्राह्मणों में लिखा
पाया जाता है। उस समय शाखा का बहुत महत्व था। शाखा एक प्रकार
की विद्यापीठ थी। शाखा के द्वारा जो ग्रन्थ रचे जाते थे वे उस शाखा के
नाम से कहे जाते थे। अग्निवेश तन्त्र का इसी कृष्ण यजुर्वेद शाखा द्वारा
संस्कार किए जाने पर उसका नाम चरक संहिता रख दिया गया। 

पाणिनि
के अष्टाध्यायी एवं उपनिषदों में  इसका उल्लेख होने से इसका समय 1000
ई.पू. रखा जा सकता है। उक्त विचार तो परिकल्पना प्रतीत होती है।
किन्तु पंतजलि ने चरक की चिकित्सा सम्बन्धी पुस्तक की टीका लिखी है।
उसका सुदृढ़ आधार है। उसके टीकाकार चक्रपाणि ने भी इसका सर्मथन
किया है। 
पंतजलि ई.पू. 175 में हुए बताये जाते है। यदि यह सही है तो
चरक ई.पू. 175 से पहले हुए हागे।

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