आसन के प्रमुख उद्देश्य, प्रकार, लाभ

आसन- आसन का अर्थ होता है – स्थिरता पूर्वक बैठना। आसनों का अभ्यास निरंतर करते रहने से शरीर में स्थिरता आती है। सम्पूर्ण शरीर को आरोग्यता प्राप्त होती है तथा शरीर हल्का हो जाता है क्योंकि शरीर में स्थित विषैले पदार्थ शरीर से बाहर निकल जाते हैं।

आसन के प्रमुख उद्देश्य

आसन का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति का शारीरिक तथा मानसिक विकास करना हैं। आसनों के रोज अभ्यास शरीर एवं मन को सन्तुलित रखता है। आसनों के अभ्यास से शरीर निरोगी रहता है साथ ही साथ आसनों का अभ्यास शरीर को दृढ़ता भी प्रदान करता है। शरीर में स्थित सुषुम्ना नाड़ी (प्रमुख नाड़ी) को क्रियाशील बनाता हैं, जिससे साधक की आध्यात्मिक उन्नति होती हैं।

आसन के प्रकार

  1. स्वस्तिकासन
  2. गोमुखासन
  3. वीरासन
  4. कूर्मासन
  5. कुक्कुटासन
  6. उत्तानकूर्मासन
  7. धनुरासन
  8. मत्सेन्द्रासन
  9. पश्चिमोत्तानासन
  10. मयूरासन
  11. शवासन
  12. सिद्धासन
  13. पद्यासन
  14. सिंहासन
  15. भद्रासन

1. स्वस्तिकासन – यह एक ध्यानात्मक आसन है, इसके निरंतर अभ्यास से अभ्यासी को शारीरिक तथा मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। मन शान्त होता हैं । घुटने, जंघा पुष्ट होते हैं। स्वस्तिकासन को घुटने में सूजन, दर्द अदि रोगों से पीडि़त रोगी न करें। 

2. गोमुखासन- इस आसन के अभ्यास से अण्डकोष की वृद्धि की समस्या दूर हो जाती है। पैरों, हाथों, तथा नितम्बों में जमा अतिरिक्त चर्बी कम होती है। छाती का विस्तार होता है। इसका अभ्यास कन्धों की जकड़न को भी दूर करता है। सावधानी- जिन व्यक्तियों को स्लिप डिस्क, साइटिका, घुटनों का दर्द हो वो इसका अभ्यास न करें।
3. वीरासन- इस आसन के अभ्यास करने से अभ्यासी के अंदर धैर्य की वृद्धि होती है। इसलिए इस आसन का नाम वीरासन है। इस से पैर तथा घुटने पुष्ट एवं लचीले बनते हैं। मन धैर्यवान तथा दृढ़ बनता है। जिन व्यक्तियों को स्लिप डिस्क, साइटिका घुटनों कूल्हें का दर्द हो। वो इसका अभ्यास न करें।
4. कूर्मासन- इस आसन से घुटने, तथा एड़ी के जोड़ मजबूत व लचीले बनते हैं। जंघाएं पुष्ट होती है। शरीर में उष्णता तथा इन्द्रिय निग्रह की स्थिति प्राप्त होती है। जिन व्यक्तियों को घुटने तथा एड़ी के जोड़ो में दर्द हो अथवा
साइटिका दर्द हो वो इसका अभ्यास न करें।
5. कुक्कुटासन- इस से शरीर की स्थिति मुर्गे के समान प्रतीत होती है इसलिए इसे कुक्कुटासन कहते है। इस आसन के नियमित अभ्यास से हाथ, पैर तथा कन्धे की मांसपेशियां पुष्ट होती हैं। निचले उदर के अंग पुष्ट होते हैं। जोड़ो के दर्द से ग्रस्त व्यक्ति इसका अभ्यास न करें। जिन व्यक्तियों के हाथ तथा कन्धे कमजोर हो वे इसका अभ्यास सम्भल कर करें।
6. उत्तानकूर्मासन- इससे हाथ, पैर पुष्ट होते हैं। जोड़ लचीले बनते हैं। मेरूदण्ड की हल्की मालिश होती है। जिन व्यक्तियों को घुटने, एड़ी के जोड़ो के दर्द हो या रीड़ की हड्डी में कोई विकार हो, साइटिका हो वो इस आसन का न करें।
7. धनुरासन- इससे हाथ, पैर एंव कन्धों के जोड़ मजबूत तथा लचीले होते हैं। यह आसन छाती का भी विस्तार करता है। कमर दर्द, साइटिका, स्लिप डिस्क, जोड़ों में दर्द वाले रोगी इसका अभ्यास न करें। 
8. मत्सेन्द्रासन-  इस आसन से पेट के आंतरिक अंगों की मालिश होती है। महुमेह के रोगियों के लिए यह रामबाण है। हाथ, पैर पुष्ट होते हैं। इसका अभ्यास मेरूदण्ड को भी लोचवान बनाता है। जोड़ो की समस्या से ग्रस्त, साइटिका, स्लिप डिस्क आदि से पीडि़त रोगी इस आसन का अभ्यास न करें।
9. पश्चिमोत्तानासन- इस आसन में शरीर के पृष्ठ भाग को खींचा जाता है। यहीं पश्चिमोस्तानासन है। आसन को करने से पेट की अतिरिक्त चर्बी कम होती है तथा शरीर के सभी रोग समाप्त हो जाते हैं। किसी भी तरह का कमर दर्द, स्लिप डिस्क, साइटिका से ग्रस्त रोगी इसका अभ्यास बिल्कुल न करें।
10. मयूरासन- इस आसन से शीघ्र ही सारे रोगों का नाश हो जाता है। इससे गुल्म तथा उदर आदि के रोग भी दूर हो जाते हैं। यह शरीर में स्थित जठराग्नि को इतना प्रदीप्त करता है कि अधिक तथा विषाक्त भोजन भी आसानी से पच जाता है। इससे हाथ, कन्धें तथा छाती पुष्ट होती है। एंड्रिनल ग्रंथि से स्रावित होने वाले हारमोन संतुलित होते
हैं। इस आसन का अभ्यास करते हुए हथेलियों पर संतुलन बनाना अति आवश्यक है अन्यथा व्यक्ति आगे की ओर गिर सकता है। 
11. शवासन- इस आसन का अभ्यास करने से शारीरिक तथा मानसिक थकान मिट जाती है। यह उच्चरक्तचाप, अनिद्रा तथा मानसिक रोगों में अत्यंत लाभकारी आसन है। निम्नरक्तचाप से पीडि़त रोगी इसका अभ्यास ज्यादा देर तक न करें, या किसी योग्य गुरु के निर्देशन में ही इसका अभ्यास करें।
12. सिद्धासन- इस आसन से मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसके महत्व को और अधिक बताते हुए स्वामी स्वात्माराम जी कहते है कि जिस प्रकार केवल कुम्भक के समय कोई कुम्भक नहीं, खेचरी मुद्रा के समान कोई मुद्रा नहीं, नाद के समय कोई लय नहीं उसी प्रकार सिद्धासन के समान कोई दूसरा आसन नहीं है। इस आसन का अभ्यास गृहस्थ लोगों को लम्बे समय तक नहीं करना चाहिए। साइटिका, स्लिप डिस्क वाले व्यक्तियों को भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। जोड़ों आदि के दर्द से पीडि़त रोगी भी इसका अभ्यास न करें। गुदा सम्बन्धित रोगों से पीडि़त रोगी भी इसका अभ्यास न करें।
13. पद्यासन – एक ध्यानात्मक आसन है। यही सभी प्रकार के रोगों को दूर
करने वाला है। मानसिक शान्ति प्रदान करने वाला है। जिस व्यक्त्यिों को जोड़ों का दर्द हो, साइटिका या स्लिप
डिस्क की समस्या हो उन्हें ये अभ्यास नहीं करना चाहिए। जो लोग मोटे हो या जंघाएँ अत्यधिक चर्बीयुक्त हो उन्हें यह अभ्यास सावधानी से करना चाहिए।
14. सिंहासन – इस आसन के से तीनों प्रकार के बंधों को करने में सरलता होती है। गले में स्थित थायराइड तथा पैराथायराइड ग्रंथि क्रियाशील होती है। चेहरे की माँसपेशियों की मसाज होती है, जिससे चेहरा सिंह के समान कान्तिवान होता है। इसके अभ्यास से जंघाएँ पुष्ट होती है। 
15.भद्रासन- इस आसन से सभी रोग दूर हो जाते हैं। मूत्र-प्रणाली के रोग, प्रजनन संबधी दोष, मासिक धर्म सम्बन्धी दोष दूर हो जाते हैं। जो व्यक्ति जोड़ों में दर्द की समस्या से ग्रस्त हों वे इसका अभ्यास न करें।

आसन के लाभ

1. वज्रासन- इसको करने से पाचन संस्थान तथा प्रजनन संस्थान पर प्रभाव पड़ता
है। पाचन की दर को तीव्र करता है। इसको खाना खाने के बाद किया जाना चाहिए।

2. सूर्य नमस्कार-  सूर्य नमस्कार से सम्पूर्ण शरीर को आरोग्य, शक्ति एवं ऊर्जा की
प्राप्ति होती है। इससे शरीर के सभी अंग-प्रत्यंगों में क्रियाशीलता आती है तथा शरीर
की समस्त आन्तरिक ग्रान्थियों के अन्तःस्त्राव की प्रक्रिया का नियमन होता है। 

  1. इससे मानसिक शान्ति एवं बल, ओज तथा तेज की वृद्धि होती है।
  2. सूर्य नमस्कार सम्पूर्ण शरीर को पूर्ण आरोग्य प्रदान करता है।
  3. सम्पूर्ण शरीर में रक्त संचार को सुचारू रूप से सम्पन्न करता है, इसलिए रक्त
    की अशुद्धि को भी दूर कर चर्मरोगों का नाश करता है।

3. शीर्षासन- इससे शुद्ध रक्त मास्तिष्क को मिलता है, जिससे आँख, कान, नाक आदि
को आरोग्य मिलता है।मुख्मंडल पर ओज एवं तेज की वृद्धि करता है। असमय बालों का झड़ना एवं सफेद होना, इन दोनों ही व्याधियों को दूर करता है।
गर्भासन- जठराग्नि को बढ़ाता है। सम्पूर्ण पाचन तन्त्र के लिए उपयोगी आसन है। 

4. मयूर आसन-  तित्ली, यकृत, गुर्दे, अग्न्याशय एवं आमाशय सभी लाभान्वित होते हैं।
मुख पर कान्ति आती है। जठराग्नि को प्रदीप्त करता है।

5. पादांगुष्ठासन- ब्रह्मचर्य के लिए लाभकारी है। दीर्घकाल तक अभ्यास करने पर
कुण्डलिनी जाग्रत होती है और वीर्य उध्र्वगामी होता है। शरीर में बल, बुद्धि, ओज एवं
तेज की वृद्धि होती है।


6. वृक्षासन- शरीर में बल, कान्ति एवं वीर्य की वृद्धि करता है।

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