औद्योगिक नीति 1977 क्या है?

औद्योगिक नीति 1977 क्या है?

इस नीति की चर्चा करने से पूर्व 1970 और 1973 की
घोषणाओं को स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है। 1956 से लेकर 1973 तक अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुई और कुछ
ऐसी आर्थिक दशाएँ उत्पन्न हो गयी जिसके कारण यह आवश्यक हो गया कि सरकार अपनी पूर्व घोषित (1956) औद्योगिक
नीति के व्यावहारिक स्वरूप में परिवर्तन करे। दोनों घोषणाएँ फरवरी माह में ही की गयी (फरवरी, 1970 फरवरी, 1973)।
घोषणाओं में कहा गया कि 1956 की औद्योगिक नीति ही विद्यमान रहेगी। वस्तुत: ये घोषणाएँ नई औद्योगिक नीति का
घोषणा-पत्रा नहीं था, बल्कि औद्योगिक लाइसेन्सिग पर एक पृथक अध्याय में किया गया है। यहाँ पर इसका उल्लेख करना
इसीलिए आवश्यक समझा गया है कि कुछ लेखकों ने 1970 एवं 1973 की घोषणाओं को भी औद्योगिक नीति की संज्ञा
दी हैं।

1977 में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन आया। 30 वर्षो से चला आ रहा कांग्रेस शासन समाप्त हो गया और देश में
जनता सरकार की स्थापना हुई। नई औद्योगिक नीति की आवश्यकता के लिए कारण थे-

  1. 1956 के बाद अनेक आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन।
  2. कांग्रेस शासन के बाद जनता शासन की स्थापना।
  3. नयी सरकार का नया दृष्टिकोण और कुछ कर गुजरने की तीव्र इच्छा।
  4. आर्थिक व्यवस्था में क्रान्तिकारी सुधार की आवश्यकता।
  5.  रोज़गार के अवसरों में वृद्धि करने का विचार।
  6. औद्योगिक विकास की दर को तेज करने का इरादा।
  7. आर्थिक विषमताओं को कम करना तथा आर्धिक सत्ता के संकेन्द्रण पर रोक लगाना।
  8. ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की योजना को सफल बनाने के लिए।
  9. सन्तुलित आर्थिक विकास के लिए।

23 दिसम्बर, 1977 को संसद में उद्योगमंत्री जॉर्ज फर्नार्ण्ण्डीज द्वारा नयी औद्योगिक नीति को प्रस्तुत किया गया। प्रस्ताव को
प्रस्तुत करते हुए फर्नाण्डीज ने कहा कि नयी नीति पुरानी विकृतियों को दूर करने के लिए बनायी गयी है तथा इसमें यह भी
पूर्ण ध्यान रखा गया कि देश के लोगों की आकांक्षाएँ पूरी हो जायें। उद्योगमंत्राी ने उद्योग और कृषि की अन्तर्क्रियाओं के महत्व
पर विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने कहा कि हमारा बहुत सा औद्योगिक उत्पादन कृषि पर आधारित है और इसी
प्रकार कृषि आधुनिकीकरण और विकास करने के लिए हमें स्वदेशी उद्योगों के लिए हमें स्वदेशी उद्योगों से ही यन्त्रा एवं अन्य
सामग्री प्राप्त करनी होगी। विद्युत उत्पादन पर सर्वाधिक ध्यान दिया जायेगा और इसे उच्च प्राथमिकता क्रम में रखा जायेगा।
अनेक वर्षों से विद्युत एवं शक्ति की अपर्याप्तता ने कृषि एवं उद्योग के विकास में गतिरोध उत्पन्न किया है।

औद्योगिक नीति 1977 की विशेषताएँ

  1. रोजगार के अवसरों में वृद्धि
  2. लघु एवं कुटीर उद्योगों को सर्वोच्च प्राथमिकता 
  3. सूक्ष्म क्षेत्र का सृजन
  4. उद्योगों का विकास एवं जिला उद्योग केन्द्र 
  5. जिला साख योजनाएँ 
  6. खादी एवं ग्रामीण उद्योग 
  7. वृहत् आकार की इकाइया 
  8. बडे़ औद्योगिक गृह 
  9. सार्वजनिक क्षेत्र 
  10. स्वदेशी एवं विदेशी प्रौद्योगिकी 
  11. विदेशी विनियोग 
  12. संयुक्त साहस 
  13. आयात में छूट 
  14. उत्पादों का निर्यात 
  15. उद्योगों का स्थानीयकरण 
  16. मूल्य नीति 
  17. श्रमिक सहभागिता 
  18. उद्योगों में रूग्णता 

रोजगार के अवसरों में वृद्धि

हमारा देश जनशक्ति का बाहुल्य है। इस सब को शहरी उद्योगों में लगाना सम्भव
नहीं और न ही केवल कृषि क्षेत्र इतना सक्षम है कि वह भी सभी को रोजगार दे सकें। यद्यपि हमारी कार्यशील जनसंख्या
का लगभग 70 प्रतिशत कृषि पर आधारित है। ऐसी स्थिति में कृषि एवं उद्योग की अन्तक्रियाओं को विकसित करना होगा
जिसमें हमारी जनशक्ति का उचित उपयोग हो सकेगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि ग्रामीण क्षेत्रों का विकास भी उसी
तीव्रता से किया जाये जिस तीव्रता से शहरी विकास हुआ है। देश की नयी औद्योगिक नीति अब और भविष्य में मानव को
देश के नियोजन एवं परियोजनाओं और योजनाओं के क्रियान्वयन में केन्द्रीय स्थिति में रखेगी अर्थात् सर्वाधिक महत्व मनुष्य
को दिया जायेगा। रोजगार के अवसरों के सृजन का कार्य जिला उद्योग केन्द्रों को भी सौंपा गया है। ऐसा कहा गया है
कि प्रत्येक केन्द्र 1980 तक 2500 नये अवसरों का सृजन करेगा और इस प्रकार कुल दस लाख अवसर सृजन करेगा और
इस प्रकार कुल दस लाख अवसर सृजित किय जा सकेंगे ।

लघु एवं कुटीर उद्योगों को सर्वोच्च प्राथमिकता 

उद्योगमंत्री ने कहा कि “अभी तक की औद्योगिक नीति के द्वारा
बड़ी औद्योगिक इकाइयों पर अधिक बल दिया गया है तथा लघु एवं कुटीर उद्योगों पर ध्यान नहीं दिया गया है। सरकार
की अब यह दृढ़ नीति पुरानी पठ्ठति को परिवर्तित करने के लिए होगी।” (वास्तव में ऐसा नहीं हुआ कि लघु एवं कुटीर
उद्योगों पर ध्यान नहीं दिया गया। 1948 और 1956 दोनों ही नीतियों में हम देखते हैं कि लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास
की चर्चा है। यह थोड़ा सा अलग विषय है कि उनका पूर्ण विकास सा नहीं हो पाया।)

अब सरकार की यह नीति होगी कि वे वस्तुएँ जो लघु क्षेत्र द्वारा ही उत्पादित की जा सकती हैं, वे केवल उसके द्वारा ही
उत्पादित की जायें। इस आशय के लिए एक विस्तृत सूची तैयार कर ली गयी जिसमें लघु एवं कुटीर उद्योंगों में बनने
वाली वस्तुओं की संख्या 500 हो गयी है जो केवल 180 ही थी (जनवरी 1982 तक यह संख्या 8.73 हो गयी )। यह भी
स्पष्ट कर दिया गया कि इस क्षेत्र में उत्पादित वस्तुएँ अच्छी किस्म की हों और उनमें अधिक लागत नहीं आ पाये।

सूक्ष्म क्षेत्र का सृजन

ग्रामीण एवं छोटे कस्बों का विकास करने की दृष्टि से इस क्षेत्र को अधिक
महत्वपूर्ण समझा गया है। जिन इकाइयों की मशीनों तथा उपकरण में एक लाख रूपये तक का विनियोग है और वे 1971
की जनगणना के अनुसार 50,000 से कम जनसंख्या वाले नगरों में स्थापित है, उनके विकास पर विशेष ध्यान दिया
जायेगा। लघु एवं कुटीर उद्योगों के अन्र्तगत सूक्ष्म क्षेत्र के उद्योगों के लिए विशेष वितीय व्यवस्था एवं उनके संरक्षण के लिए
वैधानिक व्यवस्था का निर्माण भी किया जायेगा।

उद्योगों का विकास एवं जिला उद्योग केन्द्र 

विगत वर्षो में कुछ ऐसी प्रवृति रही है जिससे छोटे साहसियों की
सहायता होने के स्थान पर उन्हें निराशा मिली है। अब बड़े शहरों और राजधानियों में उद्योगों का विकास करने के स्थान
पर जिला मुख्यालयों को अधिक महत्व दिया जायेगा। इस आशय के लिए जिला स्तर पर एक प्रमुख संस्था होगी जिसे
जिला उद्योग केन्द्र की संज्ञा दी गई। जिला उद्योगों केन्द्रों पर लघु एवं कुटीर उद्योगों की आवश्यक सहायता एवं सुविधाएँ
उपलब्ध कराने का पूर्ण प्रयास किया जायेगा। जिला उद्योग केन्द्रों के द्वारा मुख्यत: सहायता उपलब्ध करायी जायेगी-

  1. जिले में उपलब्ध कच्चे माल का अन्वेंषण;
  2. जिले के अन्य साधनों का आर्थिक अन्वेषण;
  3. इकाइयों को मशीन एवं उपकरणों की पूर्ति व्यवस्था
  4. इकाइयों को साख-सुविधा;
  5. साख के आधार पर कच्चा माल उपलब्ध करना
  6. उत्पादित वस्तुओं के लिए विपणन की एक सुदृढ़ व्यवस्था
  7. किस्म नियन्त्रण एवं परामर्श के लिए एक प्रकोष्ठ
  8. इकाइयों के शोध कार्य एवं विस्तार के लिए सुविधाएँ।

जिला उद्योग केन्द्र अन्य संस्थाओं से लघु एवं कुटीर उद्योगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त सम्पर्क बनाये रखेंगे।
(जनवरी, 1981 तक देश में 392 जिला उद्योग केन्द्र स्थापित किये जा चुके थे। 1992 के अंत में इनकी संख्या 442 थी।)

जिला साख योजनाएँ 

प्रभावी वित्तीय सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से विशेष प्रयास करने पर बल दिया गया
है। औद्योगिक विकास बैंक द्वारा इस दिशा में पहल की गयी है और लघु क्षेत्र की आवश्यकतओं की पूर्ति के लिए एक विशेष
विभाग की स्थापना की गयी है। यह विभाग अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा लघु एवं कुटीर उद्योगों को दी जाने वाली वित्तीय
सहायता का समन्वय करता हैं। यह स्पष्ट कर दिया गया कि लघु एवं कुटीर उद्योगों की कोई भी उपयोगी योजना या साख
वित्तीय सहायता के अभाव में नहीं त्यागी जाये। अप्रैल, 1974 से चली आ रही जिला साख योजना में भी सुधार किया जा
रहा है। बैंकों से नयी साख योजनाओं के निर्माण के लिए कहा गया है जो 1982 तक के लिए होगी।

खादी एवं ग्रामीण उद्योग 

नीति में यह उल्लेख किया गया कि अभी खादी एवं ग्रामीण उद्योग आयेाग के अधीन
22 उद्योग आते हैं। आयोग इन उद्योगों के विकास के लिए विस्तृत योजनाएँ तैयार करेगा। यह भी घोषणा की गयी कि
इस सूची के उद्योगों की संख्या में वृठ्ठि की जायेगी। खादी को विशेष स्थान दिया जायेगा। यह भी कहा गया कि पोलिस्टर
खादी का विकास किया जायेगा। उल्लेखनीय है कि यह खादी बाजार में आ गयी है। खादी के विकास एवं विस्तार के लिए
सरकार कृत-संकल्प है। खाद के उत्पादन एवं विपणन में अधिकतम सुविधाएँ उपलब्ध कराने का सरकार का प्रयास रहेगा।
यह भी घोषित किया गया कि खादी के साथ-साथ हैण्डलूम क्षेत्र को भी विकसित किया जायेगा। आम आदमी की वस्त्र आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह कार्य आवश्यक है। यह निश्चय किया गया कि सरकार संगठित मिल एवं पावरलूम
क्षेत्र की बुनाई क्षमताओं में वृठ्ठि की माँग को स्वीकार नहीं करेगी। धागे के आबंटन में हैण्डलूम क्षेत्र को प्राथमिकता दी
जायेगी। उत्पादित वस्तुओं के विपणन के लिए भी सरकार विशेष प्रयास करेगी तथा संगठित क्षेत्र के द्वारा अनुचित
प्रतिस्पर्ठ्ठा पर रोक लगायेगी।

वृहत् आकार की इकाइया 

नीति में यह कहा गया कि लघु एवं ग्रामीण उद्योगों के अतिरिक्त, हमारे देश में वृहत्
आकार के उपयुक्त उद्योगों की एक स्पष्ट भूमिका है। सरकार ऐसे उद्योगों को केवल आधुनिकतम दक्षताओं तथा अनावश्यक
विदेशी प्रौद्योगिकी के उपयोग के लिए प्रोत्साहन नहीं देगी। वृहत् आकार के उद्योगों की भूमिका देश के लोगों की न्यूनतम
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होनी चाहिए। यह कार्य लघु एवं ग्रामीण उद्योगों के विकेन्द्रीकरण तथा कृषि क्षेत्र को अधिक
सशक्त बना कर किया जा सकेगा। सामान्यतया वृहत् आकार के उद्योागों का निम्नलिखित क्षेत्र होगा-

  1. मूलभूत उद्योग जो उप ढ़ाँचे के लिए तथा लघु ग्रामीण उद्योगों के लिए अत्यन्त आवश्यक है, जैसे-इस्पात,
    अलौह धातुएँ, सीमेन्ट, तेल शोधन आदि।
  2. मूलभूत एवं लघु उद्योग की मशीन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूँजीगत उत्पाद वाले उद्योग। 
  3. उच्च प्रौद्योगिकी वाले उद्योग जिनके लिए वृहत् आकार का उत्पादन आवश्यक है और जो कृषि तथा लघु
    उद्योगों के विकास से सम्बन्धित हैं, जैसे-रासायनिक खाद, कीटनाशक वस्तुएँ एवं तेल-रासायनिक उद्योग।
  4. अन्य उद्योग जो लघु उद्योग की आरक्षित सूची के बाहर हैं ओर जिन्हें अर्थ-व्यवस्था के विकास के लिए
    आवश्यक माना जाता है।

बडे़ औद्योगिक गृह 

नीति में यह कहा गया है कि ‘‘विगत अनुभव यह कहता है कि बड़े औद्योगिक गृहों के
गैर-आनुपातिक विकास को रोकने में सरकार की नीतियाँ सफल नहीं हो पायी हैं।’’ वास्तव में बड़े औद्योगिक गृहों का
विकास उनके आन्तरिक साधनों से नहीं हुआ बल्कि सार्वजनिक संस्थानों का उन्होंने अधिकाधिक उपयोग किया और
अर्थव्यवस्था में एक सन्तुलन स्थापित कर दिया। उद्योग मंत्राी ने यह स्पष्ट किया कि बड़े औद्योगिक गृहों के विकास की
इस प्रक्रिया को न केवल रोकना पड़ेगा बल्कि और दूसरे क्षेत्रों के उद्योगों को अधिक प्रोत्साहन देकर उनका विकास करना
पड़ेगा।

नीति में बताया गया कि भविष्य में बड़े औद्योगिक गृहों का विस्तार सिद्धांतों पर ही होगा :-

  1. विद्यमान उपक्रमों तथा नये उपक्रमों के संस्थानों का विस्तार एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार
    अधिनियम के प्रावधानों के अधीन होगा। इस अधिनियम के प्रावधानों (प्रभावी उपक्रम वाले प्रावधानों सहित)
    को प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वित किया जायेगा।
  2. स्वत: विकसित होने वाले उद्योगों के अतिरिक्त विद्यमान एवं नये उपक्रमों का विस्तार सरकार की विशेष
    अनुमति के बिना नहीं किया जायेगा।
  3. नयी योजनाओं अथवा विद्यमान परियोजनाओं के विकास के लिए बड़े औद्योगिक गृहों को अपने स्वयं के
    अर्जित स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ेगा। अधिक पूँजीगत उद्योगों-रासायनिक खाद, काजग, सीमेन्ट, जलयान,
    तेल, रसायन आदि में उपयुक्त ऋण-क्षमता अनुपात को इस प्रकार निर्धारित किया जायेगा जिससे वे अपने
    आन्तरिक स्रोतों का अधिकतम उपयोग कर सकें।

औद्योगिक नीति में यह स्पष्ट किया गया कि सरकार अपनी लाइसेन्सिग नीति में बड़े औद्योगिक गृहों की क्रियाओं
का विनियमन इस ढंग से करेगी जिससे उनको देश के सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों में अनुरूप ला सके। लघु एवं कुटीर
उद्योगों के लिए आरक्षित उद्योगों में बड़ी इकाइयों को वे बड़े औद्योगिक गृहों से सम्बन्धित हों या न हों, विस्तार के लिए
अनुमति नहीं दी जायेगी।

सार्वजनिक क्षेत्र 

आज सार्वजनिक क्षेत्र का काफी विकास हो गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के द्वारा महत्वपूर्ण क्षेत्रों
में उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण करने के अतिरिक्त बड़े औद्योगिक गृहों के विकास के प्रति समान शक्ति के रूप
में भी कार्य किया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए अनेक क्षेत्रों में प्रवेश करने की सम्भावना है। सार्वजनिक क्षेत्र न केवल
मूलभूत एवं महत्वपूर्ण वस्तुओं का उत्पादन ही करेगा बल्कि वस्तुओं की पूर्ति के लिए एक स्थिरीकरण शक्ति के रूप में भी
कार्य करेगा। सहायक उद्योगों एवं लघु तथा कुटीर उद्योगों को विकसित करने में भी सार्वजनिक क्षेत्र का कार्य महत्वपूर्ण
होगा। सरकार यह साहस करेगी कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का संचालन लाभ पर किया जाये जिसे वे समाज को
उसके विनिययोग का उचित प्रतिफल प्रदान कर सकें। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र में एक पेशेवर प्रबन्ध-संवर्ग का निर्माण भी
करेगी।

स्वदेशी एवं विदेशी प्रौद्योगिकी 

नीति में यह बताया गया कि देश में वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों की एक विकसित
संरचना विद्यमान है। जहाँ तक सम्भव हो, भविष्य में उद्योगों का विकास स्वदेशी प्रौद्योगिकी के विकास के लिए पूर्ण सहयोग
प्रदान किया जायेगा तथा आवश्यक प्रयत्न किये जायेंगे। लेकिन यह आवश्यक है कि स्वदेशी प्रौद्योगिकी समाज के लाभ
एवं आकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक हो। जनसमूह के जीवन-स्तर एवं जीवन की खुशहाली बढ़ाने में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
का पूर्ण योगदान होना चाहिए।

जिन क्षेत्रों में अभी देश की प्रौद्योगिकी का विकास नहीं हो पाया है, उनमें आत्म-निर्भर होने के लिए सरकार सक्रिय
योगदान देगी तथा विदेशी प्रौद्योगिकी को लाने एवं अपनाने की अनुमति प्रदान करेगी। जिन संगठनों द्वारा विदेशी प्रौद्योगिकी
को स्वदेश में लाया जाता है, वहाँ शोध एवं विकास विभाग की स्थापना द्वारा विदेशी प्रौद्योगिकी को अपनाया जायेगा तथा
आत्मसात करने के पूर्ण प्रयास किये जायेंगे।

विदेशी विनियोग 

औद्योगिकी नीति में यह कहा गया कि सरकार विदेशी विनियोग के सम्बन्ध में अपनी नीति स्पष्ट
करना चाहती है। जहाँ तक विद्यमान विदेशी कम्पनियों का सम्बन्ध है, उनपर विदेशी विनिमय अधिनियम के प्रावधान तत्परता
से लागू किये जायेंगें। विदेशी कम्पनियों के विस्तार एवं भविष्य की क्रियाओं पर पूर्ण रूप से उन सिठ्ठान्तों एवं नियमों द्वारा
विनियमन किया जायेगा जिनसे भारतीय कम्पनियों का विनियमन होता है। विदेशी विनिमय एवं प्रौद्योगिकी को भारत सरकार
द्वारा निर्धारित शर्तो के आधार पर ही प्राप्त किया जा सकेगा। उन क्षेत्रों में जहाँ विदेशी सहयोग की आवश्यकता नहीं हैं,
वहाँ विद्यमान सहयोगों का नवीनीकरण नहीं किया जायेगा तथा विदेशी कम्पनियों को अपनी कार्यपठ्ठति को हमारी राष्ट्रीय
प्राथमिकताओं के सन्दर्भ में परिवर्तित करना होगा। सरकार एक ऐसी सूची की घोषणा भी करेगी जिसमें उन उद्योगों का
समावेश होगा जिन्हें विदेशी सहयोग की बिल्कुल आवश्यकता नहीं हैं।

संयुक्त साहस 

यह स्पष्ट किया गया कि भारतीय साहसियों द्वारा विकासशील देशों में अनके संयुक्त साहस स्थापित
किये गये हैं। लेकिन देश के वर्तमान औद्योगिक विकास को दृष्टि में रखते हुए अब भारत से पूँजी को निर्यात करना तथा
दूसरे देशों में लगाना न तो उचित रहेगा और न ही ऐसा करना सम्भव है। विदेशी सहयोग अब केवल – मशीन, उपकरण
तथा तकनीकी जानकारी के रूप में और प्रबन्धकीय विशेषज्ञता के रूप में ही होगा। पूँजीगत विनियोग की दशा में भारत
सरकार से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक होगा।

आयात में छूट 

उद्योग मंत्राी ने कहा कि हमें ‘‘आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ना है।’’ अनके बार अन्तर्राष्ट्रीय
अनिश्चितताओं की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसके द्वारा हमारी योजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसलिए आयात
केवल आवश्यकतानुसार ही किया जायेगा और मुख्य प्रयास यह होगा कि हमारे ही देश में अब वस्तुओं एवं साधनों का उत्पादन
किया जाये जिन्हें हम विदेशों से लाना चाहते हैं, लेकिन ऐसी दशाओं में जहाँ हमारी परियोजनाएँ विदेशी वस्तुओं, तकनीकी
या सहायता के अभाव में पूरी नहीं हो रही है या नहीं हो सकेंगी, वहाँ आयात में उदारता रखी जायेगी। साथ ही यह भी
देखा जायेगा कि हमारी स्वदेशी संस्थाओं को अधिकतम सुविधाएँ प्रदान की जायें, जिससे वे ऐसी परिस्थितियों में उत्पन्न
कठिनाइयों को समाप्त करने तथा उनका उपयुक्त संमाधान ढँूढ़ने में सफल हों।

उत्पादों का निर्यात 

नीति में यह स्पष्ट किया गया कि सरकार नियार्त के प्रस्तावों पर अनुकूल दृष्टिकोण अपनायेगी
और ऐसे प्रस्तावों के क्रियान्वयन के लिए अनेक सुविधाएँ एवं छूटें उपलब्ध करने में सहायता करेगी। हमारे आयात-निर्यात
व्यवसाय में निर्यातों को अधिक महत्व दिया गया है। अनेक परिस्थितियों में हमें अन्य समझौतों को पूरा करने के लिए अनिवार्य
निर्यात करने पड़ेंगे। इसका आशय यह भी होगा कि हमारी औद्योगिक क्षमताओं में विकास करना पड़ेगा।

उद्योगों का स्थानीयकरण 

सरकार, सन्तुलित क्षेत्रीय विकास को अत्यधिक महत्व देती है। यह देखा गया है कि
स्वाधीनता के पश्चात् उद्योगों का विकास महानगरों एवं शहरों के आस-पास केन्द्रित हुआ है। इसका परिणाम यह हुआ कि
प्रदूषण तथा श्रमिकों की समस्याओं में तीव्रता से वृठ्ठि हुई है। इसलिए सरकार ने यह निश्चय किया है कि नये औद्योगिक
प्रतिष्ठानों को अब उन महानगरों में जिनकी जनसंख्या दस लाख से अधिक है तथा उन शहरों में जिनकी जनसंख्या पाँच लाख
से अधिक है, नये लाइसेन्स प्रदान नहीं किये जायेंगे। राज्य सरकारों तथा वित्तीय संस्थाओं को यह निर्देश दिये जायेंगे कि
वे ऐसे क्षेत्रों में इकाइयों की स्थापना में अपना सहयोग देने से इन्कार कर दें। सरकार उन विद्यमान उद्योगों को सहायता
देने पर विचार करेगी जो पिछड़े हुए एवं अविकसित क्षेत्रों में अपने उद्योगों को ले जाने की योजना प्रस्तुत करेंगे।

मूल्य नीति 

एक सुदृढ़ मूल्य नीति का उद्देश्य मूल्य स्थिरता तथा कृषि एवं औद्योगिकी वस्तुओं के मूल्यों में समता
बनाये रखना होता है। सरकार की यह नीति होगी कि वह वस्तओं के मूल्यों का निर्धारण इस प्रकार करेगी जिससे विनियोजकों
तथा उपभोक्तओं को उचित प्रतिफल मिल सके। उपक्रमों द्वारा अर्जित लाभों का लाभ अंशधारियों को लाभांश के रूप में तथा
विनियोजकों को लाभों के पुर्नियोजन के रूप में मिल सके, सरकार का यह प्रयास होगा। लेकिन सरकार यह कभी सहन
नहीं करेगी कि औद्योगिकी प्रतिष्ठान उच्च मूल्यों पर अत्यधिक सरकार एवं अनुपयुक्त लाभ अर्जित करें।

श्रमिक सहभागिता 

नीति में यह स्पष्ट किया गया कि किसी भी देश का महत्वपूर्ण एवं केवल एक मात्रा साधन उस
देश के कुशल एवं परिश्रमी श्रमिक हैं। हमारे देश में जन-शक्ति की अधिकता है और उसकी एक विशेषता यह है कि वह
नयी दक्षताओं एवं योग्यताओं को ग्रहण करने में सक्षम है। हमारे देश में कुशल एवं योग्य तकनीकी तथा प्रबन्धकीय व्यक्ति
भी काफी हैं। इन सबका अधिक उपयोग, सहयोग एवं लाभ तब ही सम्भव हो सकता है जब श्रमिक एवं प्रबन्धक संस्थान
के प्रति लगाव अनुभव करें तथा इस प्रकार कार्य करें जिससे अलगाव की स्थिति न आ सकें। यह कार्य श्रम-सहभागिता से
सम्पन्न किया जा सकता है। सरकार इस पर विचार कर रही है कि श्रमिकों की सहभागिता अंश पूँजी में भी हो। इसके साथ
विभागीय एवं कारखाना स्तर पर निर्णयन में श्रम-सहभागिता भी आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है।

उद्योगों में रूग्णता 

विगत कुछ वर्षो में एक नयी प्रवृति देखने में आयी है कि बड़ी और छोटी दानों प्रकार की
इकाइयों में रूग्णता बढ़ती जा रही है। अनेक मामलों में रूग्ण इकाइयों को सरकार को लेना पड़ा। सरकार औद्योगिक रूग्णता
को अब और नहीं बढ़ने देगी, क्योंकि इससे सार्वजनिक साधनों का दुरूपयोग होता है और सरकार एवं समाज को हानि होती
है।

1977 की औद्योगिक नीति की समीक्षा

जनता सरकार की औद्योगिक नीति की प्रारम्भिक बात यह है कि इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण बात वे ही हैं जिन्हें 1956 की नीति
में रखा गया है। विगत विकृतियों को दूर करने का इसमें विशेष प्रयास किया गया है। नीति में रोजगार के अवसरों का सृजन
तथा उद्योगों के विकेन्द्रण को महत्वपूर्ण माना है। औद्योगिक नीति का सारतत्व कृषि के विकास एवं सम्बन्धित क्रियाओं के
विकास से उत्पन्न आय एवं वितरण द्वारा अधिकतम उद्योगों के लिए ‘मूल माँग’ प्रदान करना है। कृषि एवं उद्योगों की
अन्तर्क्रियाओं द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना तथा रोजगार दिलाना इस नीति का मुख्य उछेश्य माना है। महानगरों तथा
शहरों से बड़े उद्योगों तथा उनकी कुछ क्रियाओं को ग्रामीण क्षेत्रों में ले जाने की बात एक सराहनीय कदम है। बशर्ते सरकार
को इसमें कुछ सफलता मिल जाती है। विगत वर्षो में लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए विपणन सुविधाओं का जो अभाव रहा
है, उसे दूर करने तथा पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध कराने की घोषणा का सभी क्षेत्रों में स्वागत किया गया है, लेकिन दो वर्ष
के बाद भी ऐसे ठोस कदम दिखायी नही दे रहे है, यह घोषणा की निष्ठा के प्रति एक प्रश्न सूचक बन रहा है। यह एक अच्छी
बात है कि लघु एवं सूक्ष्म क्षेत्र के लिए 500 वस्तुओं के आरक्षण की घोषणा कर दी गई है। इसकी सफलता मुख्यत: नियोजन
तन्त्रा पर निर्भर करेगी कि वह इस कार्यक्रम को प्राथमिकता किस प्रकार देता है। इस सन्दर्भ में एक तथ्य और महत्वपूर्ण
है-जिन वस्तुओं को आरक्षित सूची में रखा गया है उनमे से अधिकांश अप्रयुक्त क्षमताओं में है और जब तक सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था
का तीव्रता से विकास नहीं हो जाता, आरक्षण स्वंय में कोई समाधान नहीं हो सकता। फिर इन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न
प्राथमिकताओं का है। एक सुपरिभाषित एवं स्पष्ट आय-वितरण नीति के बिना अर्थव्यवस्था में सुधार की अपेक्षा करना सही
नहीं हैं।

एक अन्य प्रश्न बड़े औद्योगिक गृहों से सम्बन्धित है। नीति में यह कहा गया है कि उन्हें अपने अर्जित साधनों पर
ही निर्भर रहना पड़ेगा। विगत वर्षो की अर्थव्यवस्था में वस्तुओं की लागत काफी बढ़ गई है, अत: वे ऐसे बाजारों की खोज
करना चाहेंगें जिनमें उनकी वस्तुओं की माँग व खपत हो सके तथा साधनों की व्यवस्था कर सकें। क्या यह प्राथमिकताओं
के विपरीत नहीं हागा, यह एक विचारणीय प्रश्न है।

सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में कहा गया है कि इसे एक महत्वपूर्ण भूमिका पूरी करनी है, लेकिन अभी तक यह जानकारी
नहीं हो सकी है कि वह महत्वपूर्ण भूमिका किस रूप में होगी। नीति में अस्पष्टता सामान्यत: खतरनाक सिठ्ठ होती हैं।
जनवरी, 1980 में पुन : कांग्रेस सरकार के सत्तारूढ़ हो जाने के बाद पूर्व नीतियों को क्रियान्वित करने तथा छठी
योजना का नया प्रारूप तैयार करने तथा नई प्रगतिशील नीतियों को अपनाने का कार्यक्रम शुरू किया गया। 1977 में घोषित
जनता सरकार की औद्योगिक नीति सत्ता में परिवर्तन के कारण प्रभावी ढंग से क्रियान्वित नहीं हो सकी। कांग्रेस सरकार के
आने के बाद नयी व्यूह रचनाओं की शुरूआत में 1980 की औद्योगिक नीति फिर एक महत्वपूर्ण कदम है।

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