कभी फिर से चलने को जी चाहता है

कभी फिर से चलने को जी चाहता है

कभी फिर से चलने को जी चाहता है।
कभी गिर के सम्भलने को जी चाहता है।।
चंदा निकलता है अम्बर में जैसे,
प्रभा निकलती है दिनकर से जैसे,
जैसे यादें निकलती हैं स्वप्नों को छूकर,
वैसे निकलने को जी चाहता है।
कभी फिर से चलने को जी चाहता है।

अजीत कुमार शर्मा

कभी गिर के सम्भलने को जी चाहता है।।
जिस तरह मिलते हैं सरिता और सागर,
जिस तरह मिलते हैं कुँआ और गागर,
जैसे क्षितिज पे मिलती है धरती गगन से,
उस तरह मिलने को जी चाहता है।
कभी फिर से चलने को जी चाहता है।
कभी गिर के सम्भलने को जी चाहता है।।
काँटो के बीच जैसे शोभे गुलाब है,
जंगल के बीच जैसे शोभे मृगराज है,
शोभे कमल जैसे कीचड़ के बीच में,
उस तरह शोभने को जी चाहता है।
कभी फिर से चलने को जी चाहता है।
कभी गिर के सम्भलने को जी चाहता है।।
खोयी थीं मीरा जैसे ‘श्याम’ धुन में,
खोये थे तुलसी जैसे ‘राम’ धुन में,
जैसे ‘पीव’ धुन में था खोया कबीरा,
उस तरह खोने को जी चाहता है।
कभी फिर से चलने को जी चाहता है।
कभी गिर के सम्भलने को जी चाहता है।।

यह रचना अजीत कुमार शर्मा जी द्वारा लिखी गयी है . आप वर्तमान में  इंदौर में भारतीय डाक विभाग के कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। आप साहित्य लेखन में गहरी रूचि रखते हैं . 

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