प्रकृतिवाद क्या है ? प्रकृतिवाद के मूल सिद्धांतों का वर्णन

प्रकृति पाश्चात्य दर्शन की वह विचारधारा है जो प्रकृति को मूल तत्व मानती है, इसी को इस ब्रह्माण्ड का कर्ता
और उपादान कारण मानती है। यथार्थवाद की भाँति प्रकृतिवाद भी दार्शनिक चिंतन का प्रारंभिक रूप है। इस संदर्भ
में हम उन दार्शनिकों का उल्लेख कर सकते हैं जिनकी चर्चा हमने यथार्थवाद के संदर्भ में की है। यूनानी दार्शनिक
थेल्स 640-550 ई. पू. ने इस सृष्टि की रचना जल से सिद्ध करने का प्रयास किया था। और जल
एक पदार्थ है प्रकृति का, तब उनके इस विचार को यथार्थवाद और प्रकृतिवाद की शुरुआत माना जा सकता है।

इनके बाद एनेक्सिमेनीज 590-525 ई. पू. ने इस सृष्टि की उत्पत्ति वायु से सिद्ध करने का
प्रयास किया, और चूंकि वायु भी प्रकृति की ही एक वस्तु है इसलिए उनकी विचारधारा को भी यथार्थवाद और
प्रकृतिवाद का प्रारंभिक रूप माना जा सकता है। हेराक्लीटस 540-475 ई. पू. अग्नि को सृष्टि
का मूल तत्व मानते थे अतः इन्हें भी यथार्थवाद और प्रकृतिवाद का प्रारंभिक दार्शनिक माना जा सकता है। परंतु
एक स्वतंत्र दर्शन के रूप में इसका बीजारोपण यूनानी दार्शनिक डेमोक्रीटस 460-370 ई.पू. ने किया। उन्होंने इस सृष्टि की रचना परमाणुओं के संयोग से सिद्ध करने का प्रयास किया जो आगे चलकर
परमाणुवाद के नाम से विख्यात हुई। परंतु तभी यूनान में सुकरात 469-399 ई. पू. का प्रादुर्भाव
हुआ जिन्होंने पदार्थ अथवा प्रकृति के स्थान पर आत्मा-परमात्मा को मूल तत्व सिद्ध किया। उनके शिष्य प्लेटो 427-347 ई. पू. ने तो इस संसार को विचारों के संसार का प्रकटीकरण मात्रा बताकर पदार्थ और प्रकृति
की सत्ता को ही चुनौती दे डाली। 

प्लेटो के बाद पश्चिमी जगत में 15वीं शताब्दी तक जो भी दार्शनिक चिंतन
हुआ वह प्लेटो के आदर्शवाद के आधार पर ही हुआ। परंतु 15वीं शताब्दी में जब वैज्ञानिक खोजों ने हमें प्रकृति (पदार्थ एवं उनके बीच की क्रियाओं) के वास्तविक स्वरूप से परिचित कराया तो दार्शनिकों का ध्यान उस ओर
जाना स्वाभाविक था। एक स्वतंत्र दर्शन के रूप में प्रकृतिवाद का विकास 15वीं शताब्दी में ही प्रारंभ हुआ।

काॅमटे बेकन हाॅब्स, डारविन और लेमार्वफ इसके पूर्व विचारक माने जाते हैं। इन्होंने 17वीं शताब्दी तक प्रकृतिवाद का पौधा रोप दिया था।
रूसो ईश्वरवादी थे परंतु वे प्रकृति को शु( और कल्याणकारी मानते थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि मनुष्य की अपनी
प्रकृति शुद्ध एवं कल्याणकारी है परंतु दूषित समाज में रहकर वह चालाक बन जाता है। उनके दूसरे विचार ने
प्रकृतिवादी दर्शन के विकास को बड़ा बढ़ावा दिया। शिक्षा के क्षेत्र में तो रूसो के विचार पूर्णरूपेण प्रकृतिवादी
हैं। 

रूसो के बाद हरबर्ट स्पेन्सर ने प्रकृतिवाद को बढ़ावा दिया, उसकी नींव पक्की की
और उसके आधार पर प्रकृतिवादी शिक्षा का पूरा ताना-बाना तैयार किया। इसके बाद हक्सले, बर्नार्ड
शाॅ और सैम्यूल बटलर आदि विचारकों ने प्रकृतिवाद के विकास
में बड़ा योगदान दिया और साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किए।

किसी भी दार्शनिक चिंतनधारा के स्वरूप को जानने के लिए उसकी तत्व मीमांसा ज्ञान एवं
तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को
जानना आवश्यक होता है। तत्व मीमांसा तो ऐसा तत्व है जिसके आधार पर एक दार्शनिक चिंतनधारा को दूसरी
से अलग किया जाता है। यूँ पाश्चात्य प्रकृतिवादियों की प्रवृत्ति तत्व मीमांसा की ओर कम ही रही है परंतु इन्होंने
सृष्टि की रचना और आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, स्वर्ग-नर्वफ आदि के विषय में जो भी विचार व्यक्त किए हैं
उनसे प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा विकसित की जा सकती है। 

प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा

 यूनानी (ग्रीस) दार्शनिक डैमोक्रीट्स के अनुसार, इस संसार की रचना परमाणुओं के संयोग से होती है। उनके
इस विचार को आधुनिक युग के वैज्ञानिक डाल्टन महोदय ने वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया और यह तथ्य
उजागर किया कि भिन्न-भिन्न प्रकार के परमाणुओं के संयोग से भिन्न प्रकार के पदार्थ और भिन्न-भिन्न पदार्थों
के संयोग से इस संसार का निर्माण होता है। उनकी यह विचारधारा परमाणुवाद कही जाती है।  20वीं शताब्दी के
वैज्ञानिकों ने परमाणु को विभाजित कर उसमें तीन प्रकार के शक्ति कणों (इलैक्ट्राॅन्स, प्रोट्राॅन्स और न्यूट्राॅन्स) का
पता लगाया। उन्होंने स्पष्ट किया कि जगत का मूल तत्व परमाणु नहीं अपितु परमाणु के संयोजक ये शक्ति कण
हैं। इस विचारधरा को शक्तिवाद कहते हैं। परमाणुवाद और शक्तिवाद को भौतिक विज्ञानवादी प्रकृतिवाद कहते हैं।
कुछ प्रकृतिवादी संपूर्ण संसार को एक यंत्र के रूप में देखते हैं। ये मनुष्य को भी एक यंत्रा मानते हैं जो बाह्य
उत्तेजनाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप क्रियाशील रहता है। ये मनुष्य के समस्त व्यवहार को उसके स्नायु, ग्रंथि और
मांसपेशी संस्थानों पर आधारित मानते हैं। इस विचारधारा को यंत्रावादी प्रकृतिवाद कहते हैं।

इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डार्विन ने विकास सिद्धत का प्रतिपादन किया। उन्होंने बताया कि प्रारंभ में साधारण
जातियों का निर्माण हुआ, उसके बाद साधारण जातियों से पौधे, पौधें से निम्न वर्ग के जीव-जन्तु, निम्न वर्ग के
जीव-जन्तुओं से पशु और पशुओं से मानव का निर्माण हुआ। इनकी यह विचारधारा जीव विज्ञानवादी
प्रकृतिवाद कही जाती है। आत्मा-परमात्मा के विषय में सभी प्रकृतिवादी एकमत
है। आत्मा को ये एक क्रियाशील तत्व के रूप में स्वीकार करते हैं और परमात्मा का इनकी दृष्टि से कोई अस्तित्व
नहीं है। इनकी दृष्टि से तो प्रकृति ही अंतिम सत्य है।

प्रकृतिवाद की ज्ञान एवं तर्क मीमांसा

प्रकृतिवादी प्रकृति के ज्ञान को वास्तविक ज्ञान मानते हैं। प्रश्न उठता है कि प्रकृति क्या है। सामान्य प्रयोग में
प्रकृति से अर्थ उस रचना से लिया जाता है जो स्वाभाविक रूप से विकसित होती है और जिसके निर्माण में मनुष्य
का कोई हाथ नहीं होता जैसे-पृथ्वी, समुद्र, पहाड़, नदियाँ आकाश, सूर्य, चंद्रमा, तारे, बादल, वर्षा, वनस्पति और
जीव-जन्तु, परंतु दार्शनिक दृष्टि से प्रकृति संसार का वह मूल तत्व है जो पहले से था, आज भी है और भविष्य
में भी रहेगा। इसमें वे क्रियाएँ भी निहित हैं जो निश्चित नियमों के अनुसार होती हैं, जैसे पहले होती थीं वैसे
आज भी होती हैं और वैसे ही भविष्य में भी होती रहेंगी। उदाहरण के लिए जल, बर्फ और वाष्प, ये प्राकृतिक
पदार्थ हैं, इनकी रचना समान तत्वों (हाइड्रोजन और आक्सीजन) से हुई है। हम जानते हैं कि बर्फ से जल, जल
से वाष्प, वाष्प से जल और जल से बर्पफ, ये सब निश्चित नियमों के अनुसार बनते-बिगड़ते हैं।

पदार्थों के मूल
तत्व और उनके बनने-बिगड़ने के नियमों को ही प्रकृतिवाद प्रकृति मानता है और इनके ज्ञान को वास्तविक ज्ञान
मानता है। इन सबका ज्ञान भौतिक विज्ञानों के द्वारा होता है और भौतिक विज्ञानों का ज्ञान कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों
द्वारा होता है। प्रकृतिवादी इन्द्रियानुभूत ज्ञान को ही सच्चा ज्ञान मानते हैं। उनकी दृष्टि से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति
के लिए मनुष्य को स्वयं निरीक्षण परीक्षण करना चाहिए। प्रकृतिवादियों का विश्वास है कि ज्ञान प्राप्ति की क्रिया
में मन और मस्तिष्क संयोजक का कार्य करते हैं।

प्रकृतिवाद की मूल्य एवं आचार मीमांसा

प्रकृतिवाद प्राकृतिक पदार्थों और क्रियाओं को ही सत्य मानता है। प्रकृतिवादियों का स्पष्टीकरण है कि मनुष्य की
भी अपनी एक प्रकृति है और उसकी यह प्रकृति अपने में एकदम शुद्ध है, उसके अनुकूल आचरण करने में
मनुष्य को सुख मिलता है और प्रतिकूल आचरण करने में दुःख मिलता है। अतः मनुष्य को अपनी प्रकृति के
अनुकूल ही आचरण करना चाहिए। ये मनुष्य को किसी प्रकार के सामाजिक नियमों और आध्यात्मिक बंधनों में
बाँधकर नहीं रखना चाहते, ये उसे अपनी प्रकृति के अनुवूफल आचरण करने की स्वतंत्रता देते हैं। इनका तर्क है
कि जिन कार्यों के करने में मनुष्य को सुख मिलेगा, उन कार्यों को वह करेगा और जिन कार्यों को करने से उसे
दुःख का अनुभव होगा, उन्हें वह स्वयं छोड़ देगा। इस प्रकार प्रकृतिवादी केवल प्राकृतिक नैतिकता के हामी हैं।

प्रकृतिवाद की परिभाषा

प्रकृतिवाद के अनेक रूप हैं परंतु मूल रूप में उनमें बड़ी समानता है। उस समानता के आधार पर जेम्सवार्ड ने
उसको निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जो प्रकृति को ईश्वर से अलग करती है और आत्मा को पदार्थ के अधीन
करती है और अपरिवर्तनशील नियमों को सर्वोच्च मानती है।

परंतु इस परिभाषा से प्रकृतिवाद के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं होता। प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं
तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा की र्दृिष्ट से उसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित करना चाहिए-
प्रकृतिवाद पाश्चात्य दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को प्रकृतिजन्य मानती है और यह
मानती है कि यह भौतिक संसार ही सत्य है और इसके अतिरिक्त कोई आध्यात्मिक संसार नहीं है। यह
ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती और आत्मा को पदार्थजन्य चेतन तत्व मानती है और यह
प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना है, जिसे प्राकृतिक जीवन जीने अर्थात्
प्रकृति के अनुकूल जीने द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

 

दर्शन का आरम्भ आश्चर्य है। प्रकृति आश्चर्यमयी है। उसके भौतिक तत्व
ने ही मनुष्य केा चिन्तन की प्रेरणा दी, अत: आरम्भ में हमें प्रकृति सम्बंधी विचार
ही मिलते हैं। थेलीस ने जगत का मूल कारण जल बताया। एनेक्सी मैडम ने आधार तत्व वायु को माना है। हैरेक्लाइट्स ने अग्नि को वास्तविकता या यर्थाथता
का रूप दिया। एम्पोडोक्लीज ने पृथ्वी , जल, अग्नि तथा वायु सभी को स्थायी
तत्व माना। 
भारत में वैदिक काल में भी मनुष्य के विचार अग्नि, जल और पृथ्वी से
सम्बद्ध पाये जाते हैं। इन सभी को देव का स्वरूप माना गया। प्रकृतिवाद का
आरम्भ ऐतिहासिक विचार से मानवीय जगत के आरम्भ से ही कहा जाता है जो
कि भारतीय एवं यूनानी दोनों दर्शन में पाया जाता है। प्रकृतिव्यवस्थित रूप में पश्चिमी दर्शन में अधिक विकसित हुआ
यद्यपि प्रकृतिवादी दृष्टिकोण तत्व मीमांसा, सांख्य, वैषेणिक, चार्वाक, बौद्ध एवं
जैन दर्शन में भी विस्तार में पाया जाता है। प्रकृतिवाद का विकास क्रमिक ढंग
से हुआ है।

प्रथम अवस्था में प्रकृति से पदार्थ जो प्रकृति में पाये जाते हैं सत्य एवं
यथार्थ ठहराये गये, उनका अस्तित्व अपने आप में और अपने ही द्वारा पूर्ण माना
गया। ल्यूसीपस एवं डेमोक्राइट्स के अनुसार भौतिक पदार्थ अणु में गति हेाने से
प्राप्त हेाते हैं। मन और आत्मा गतिशील सुधर अणुओं से बने हैं। एपीक्यूरस से
स्पण्ट किया कि इन अणुओं से इन्द्रियों की सहायता द्वारा मन का ज्ञान होता है।
लेकुसियस ने विकास के उपर जोर दिया। अणुओं के गतिशील होने पर पृथ्वी एवं
अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुयी। गतिशीलता से मनुष्य को काल का अनुभव हुआ। 

हाब्स के बाद रूसों ने प्रकृति को मूर्त माना। उसके अनुसार सभी गुणों
से युक्त एवं ज्ञान का स्रोत प्रकृति है। रूसों के बाद हरबर्ट स्पेन्सर हुये जिसने
विकासवाद का आश्रय लिया। इन पर लेमार्क का प्रभाव पड़ा। 
डार्विन ने
जीवविज्ञानात्मक सिद्धान्त दिये। इन्होंने ज्ञान को विकास एवं वृद्धि की प्रक्रिया
पर आधारित किया। मृत्यु के समय विकास में सहायक एकीकृत रूप विभिन्न
होकर पुन: जगत के पदार्थ में मिल जाते हैं। बीसवीं शताब्दी में बर्नाड शॉ भी
प्रकृतिवादी दर्शन के प्रचारक बने।

भारत में कुछ चिन्तकों की विचारधारा में प्रकृतिवाद दिखायी देता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के दर्शन में प्रकृतिवाद की विचारधारा स्पष्ट है। दयानन्द
सरस्वती जैसे आदर्शवादी विचारकों ने भी गुरुकुल की स्थापना प्रकृति की गोद
में की।

थामस और लैगं – ‘‘प्रकृतिवाद आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधनी मानता है और यह विश्वास करता है कि अन्तिम वास्तविकता- भौतिक है, अध्यात्मिक नहीं।’’

पैरी-’’प्रकृतिवाद विज्ञान नहीं है वरन् विज्ञान के बारे में दावा है। अत्मिाक स्पष्ट रूप से यह इस बात का दावा है कि वैज्ञानिक ज्ञान अन्तिम है और विज्ञान से बाहर या दार्शनिक ज्ञान का को स्थान नहीं है।’’

जेम्स वार्ड -’’प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जो प्रकृति को इर्ण् वर से अलग करती है और आत्मा को पदार्थ अथवा भौतिक तत्व के अधीन मानती है, एवं अपरिवर्तनशील नियमों को सर्वोच्च मानती है।’’

ज्वाइस महोदय-’’वह विचारधारा है जिसकी पध्रान विशेषता है प्रकृति तथा मनुष्य के दार्शनिक चिन्तन जो कुछ आध्यात्मिक है अथवा वास्तव में जो कुछ अनुभवातीत है उसे अलग हटा देना है।’’

प्रकृतिवाद की संकल्पना

प्रकृतिवाद तत्व मीमांसा का वह रूप है, जो प्रकृति को पूर्ण वास्तविकता
मानता है। वह अलौकिक और पारलौकिक को नहीं मानता है जो बातें प्राकृतिक
नियम से स्वतंत्र जान पड़ती है- जैसे मानव जीवन या कल्पना की उपज वे भी
वास्तव में प्रकृति की योजना में आती है। प्रत्येक वस्तु प्रकृति से उत्पन्न होती है
और उसी में विलीन हो जाती है।

प्रकृतिवाद दर्शन का वह सम्प्रदाय है, जो चरम सत्ता को प्रकृति में
निहित मानता है। दर्शन शास्त्र में प्रकृति का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। एक ओर
प्रकृति का अर्थ भौतिक जगत हो सकता है जिसे मनुष्य इन्द्रियों तथा मस्तिष्क
की सहायता से अनुभव करता है, दूसरी ओर इसकी जीव जगत के रूप में
व्याख्या की जा सकती है, और तीसरे अर्थों में देशकाल का समग्र प्रपंच प्रकृति
के अन्तर्गत समाविण्ट हो जाता है। 

प्रकृति या नेचर से विपरीतार्थक शब्द है
परमात्मा अथवा ‘‘सुपर नेचुरल पावर’’ जिसे प्रकृति से परे माना जाता है। अर्थ
की व्याप्ति के आधार पर प्रकृतिवाद का  वर्गीकरण किया जा सकता
है।

  1. परमाणुवादी प्रकृतिवाद
  2. शक्तिवाद अथवा वैज्ञानिक प्रकृतिवाद
  3. जैविक प्रकृतिवाद
  4. यन्त्रवादी प्रकृतिवाद
  5. ऐतिहासिक तथा द्वनणात्मक भौतिकवादी प्रकृतिवाद
  6. मानवतावादी प्रकृतिवादी
  7. रूमानी प्रकृतिवादी

1. परमाणु प्रकृतिवाद 

यह सबसे पा्रचीन भाैितकवादी दर्शन हे जिसके मतानसु ार
जगत की अंतिम इका परमाणु है, अर्थात् चिरन्तन सत्ता भौतिक परमाणु में
निहित है। परमाणुवाद के मतानुसार यह दृश्य जगत परमाणुओं के विविध संयोगों
का प्रतिफल है। परमाणुओं का यह संयोग द्कि तथा गति के माध्यमों द्वारा होता
है। 

अणुओं का पुन: विखण्डन किया जा सकता है और जगत की की अन्तिम
इका शक्ति हो गयी और परमाणुवाद अमान्य सा हो गया है।

2. शक्तिवाद

परमाणुवाद की असफलता ने शक्तिवाद को जन्म दिया
परमाणुवाद में केवल दिक् और काल को ही तत्व थे, परन्तु नये शोधों ने
एक और तत्व को जन्म दिया और वह था गति। नये शोधो ने स्पष्ट किया
कि परमाणु गतिशील होते हैं और उनके इलेक्ट्रान और प्रोटान शक्ति कण
होते हैं। अत: जगत का अन्तिम तत्व शक्ति को माना गया है। 

शक्तिवाद
मनुष्य में स्वतंत्रत इच्छाशक्ति होना अथवा आत्मा जैसी किसी अन्य
इकाई को स्वीकार नहीं करता है।

3. यन्त्रवाद

इस सम्पद्राय के अनुसार सृष्टि यन्त्रवत् है भाैितक जगत,
प्राणी जगत तथा मानव जगत सभी की व्याख्या भौतिक शास्त्र, रसायन
शास्त्र तथा अन्य भौतिक विज्ञानों के माध्यम से की जा सकती है।
यन्त्रवाद के अनुसार मन तथा उसकी सभी क्रियायें व्यवहार के प्रकार मात्र
हैं, जिन्हें स्नायुसंस्थान, ग्रन्थिसंस्थान तथा मांसपेशीसंस्थान की सहायता
से समझा जा सकता है। यन्त्रवादी भी शक्तिवादी के समान ही नियतिवाद
में विश्वास करता है। 

उसके अनुसार जगत में जो परिवर्तन होते हैं वे
सभी कारण-कार्य नियम से आबद्ध है।

4. जैविक प्रकृतिवाद 

इस सम्पद्राय का उदग् म डाविर्न के क्रम विकास
सिद्धान्तों से हुआ है तथा वास्तव में किसी सम्प्रदाय को सच्चे अर्थों में
प्रकृतिवाद संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है तो वह जैविक प्रकृतिवाद
ही हैं इनके अनुसार मानव का विकास जीवों के विषय में सबसे अंतिम
अवस्था में है। मस्तिण्क के फलस्वरूप वह विज्ञान को संचित रख सकता
है, नये विचार उत्पन्न कर सकता है। पर अन्य प्राणियों की तरह वह भी
प्रकृति के हाथों का खिलौना मात्र है। उसकी नियति तथा विकास की
सम्भावनायें वंशक्रम तथा परिवेण पर निर्भर करती है। मनुष्य की स्वतंत्रता
का अधिकार भी सीमित है।

5. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद 

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के प्रमुख व्याख्याकार
माक्र्स तथा ऐंजल्स है। यह सम्प्रदाय भी विज्ञान को सर्वोच्च महत्व प्रदान
करता है, परन्तु इसका आग्रह स§ण्टि संरचना से हटकर आर्थिक संरचना
पर आ जाता है। इसके अनुसार समाज के आर्थिक संगठन का आधार
क्रय है। द्वव्य जो आर्थिक संरचना में प्रयुक्त होता है, नैतिक, धार्मिक तथा
दार्शनिक विचारों को जन्म देता है। 

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार
जगत विकास की निरन्तर प्रक्रिया है। परिवर्तन की सभी क्रियायें द्वन्द्वात्मक
होती है, अर्थात् सभी परिवर्तनकारी प्रक्रियायें स्वीकारोक्ति से आरम्भ
होती है, तदनन्तर उसमें नकारोक्ति का संघर्ण अन्तर्निहित है, जिसका
अवसान समाहारोक्ति में होता है। 
इस द्वन्द्व को उसने अस्ति-नास्ति तथा
समण्टि संज्ञाओं में अभिहित किया है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की आत्मा
स्वतत्र इच्छाशक्ति अथवा परमात्मा आदि तत्वों से इन्कार करता है तथा
स§ण्टि का मूल द्रव्य में मानता है।

6. रूमानी प्रकृतिवाद 

इस सम्प्रदाय के व्याख्याकार रूसों, नील एवं
टैगोर है। इनकी रूचि स§ण्टि की संरचना में न होकर सृष्टि की आàळादकारी
प्रकृति तथा गहन मानव प्रकृति से है। इस सम्प्रदाय को प्रकृतिवादी
केवल इन अर्थों में कहा जा सकता है कि वह सामाजिक कृत्रिमता का
विरोध करते हैं, तथा मनुष्य के प्रक§त जीवन को आदर्श मानते हैं। रूसों
प्रकृति के निर्माता की कल्पना भी करता है। प्रकृति से परे किसी परमात्मा
को अस्वीकार नहीं किया जाता अपितु प्रकृति को ण्वर की कृति माना
जाता है।

7. वैज्ञानिक मानवतावद

इस सम्पद्राय के अनुसार मनषुय अपनी बुद्धि
के प्रयोग द्वारा लोकतांत्रिक शासन की संस्थाओं को संचालित करते हुये
बिना, किसी पराशक्ति की मदद से एक ऐसे तर्कशक्ति परक सभ्यता का
स§जन कर सकते हैं जिसमें प्रत्येक मनुष्य सुरक्षा की अनुभूति कर सके
और स्वयं में निहित सामान्य मानवीय क्षमताओं और स§जनात्मक शक्तियों
के अनुसार विकास कर सके।

प्रकृतिवाद के मूल सिद्धांत

प्रकृतिवाद के दार्शनिक दृष्टिकोण के बारे में पूर्व में जानकारी प्राप्त कर
चुके है। अब प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा एवं आचार मीमांसा को
हम सिद्धान्तों के रूप इस प्रकार से देख सकते हैं-

1. यह ब्रह्म्र्राण्ड एक प्राकृतिक रचना है – प्रकृतिवादियों के अनुसार
संसार का कर्ता और करण दोनों स्वयं प्रकृति ही है। प्राकृतिक तत्वों के
संयोग से पदार्थ और पदार्थों के संयांग से संसार की रचना होती है और
उनके विघटन से इसका अन्त होता है। यह संयोग और विघटन की
क्रिया कुछ निश्चित नियमों के अनुसार होती है। इसको बनाने और
बिगाड़ने को प्राकृतिक परिवर्तन कहा जाता है।

2. यह भौतिक संसार ही सत्य – प्रकृतिवाद भाैितक ससार को ही सत्य
मानता है। उसका स्पष्टीकरण है कि इस संसार को हम इन्द्रियों द्वारा
प्रत्यक्ष कर रहे हैं, अत: यह सत्य है। इसके विपरीत आध्यात्मिक संसार
को हम इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष नहीं कर पाते इसलिये वह असत्य है।

3. आत्मा पदार्थ जन्य चेतन तत्व है- प्रकृतिवाद आत्मा के आध्यात्मिक
स्वरूप को स्वीकार नहीं करता। उसका स्पण्टीकरण है कि यह संसार
प्रकृति द्वारा निर्मित है और यह निर्माण कार्य निश्चित नियमों के अनुसार
हेाता है, इसके पीछे किसी आध्यात्मिक शक्ति परमात्मा की कल्पना एक
मिथ्या विचार है। प्रकृतिवादियों के अनुसार परमाणु में स्थित इलेक्ट्रान,
प्रोटान, न्यूट्रान की गतिशीलता जड़ में जीव और जीव में चेतन का
विकास करते हैं।

4. मनुष्य ससांर की श्रेण्ठतम् रचना- प्रकृतिवाद मनुष्य को जन्म से पूर्ण
तो नहीं पर संसार की श्रेष्ठतम रचना मानता है। भौतिक विज्ञानवादी
प्रकृतिवाद के अनुसार मनुष्य संसार का श्रेण्ठतम् पदार्थ है। यन्त्रवादी
प्रकृतिवाद के अनुसार मनुष्य श्रेण्ठतम् यंत्र है और जीव विज्ञानवादी यह
संसार का सर्वोच्च पशु है। जीव विज्ञानवादियों के अनुसार मनुष्य अपने
में निहित कुछ विशेष शक्तियों के कारण अन्य पशुओं से सर्वोच्च बना
लिया। इसमें बुद्धि की महत्वपूर्ण भूमिका है।

5. मानव विकास एक प्राकृतिक क्रिया है- जीव विज्ञानवादी प्रकृतिवादी
विकास सिद्धान्तों में विश्वास रखते हैं। उनके अनुसार मनुष्य का विकास
निम्न प्राणी से उच्च प्राणी के रूप में हुआ। मनुष्य भी कुछ प्रवृत्ति लेकर
पैदा होता है। इनका स्वरूप प्राकृतिक है। वाह्य वातावरण से उत्तेजना
पाकर ये शक्तियां क्रियाशील होती है, और मनुष्य का व्यवहार निश्चित
होता है।

6. मनुष्य जीवन का उद्देश्य  सुख-  प्रकृतिवाद मानव जीवन के अंतिम
उद्देश्य में विश्वास नहीं करता है। उसका विश्वास है कि प्रत्येक प्राणी
में जीने की इच्छा है और जीने के लिये वह संघर्ष करता है और परिस्थिति
के अनुकूल बनाकर अपने आपको सुरक्षित कल लेता है। मनुष्य अपने
परिस्थितियों का निर्माता भी है इस प्रकार उसने अन्य प्राणियों के समान
सुख भेागा।

7. प्राकृतिक जीवन ही उत्तम- प्रकृतिवादियों के अनुसार सभ्यता एवं
संस्कृति के विकास एवं मोह ने मानव को प्रकृति से दूर किया है। मनुष्य
की प्राकृतिक प्रकृति उत्तम है मानव आत्मरक्षा चाहता है और यह भी
चाहता है कि उसके किसी कार्य में बाधा न आये। मानव की प्रकृति में
छल, कपट, द्वेष आदि दुर्गुण नहीं है।

8. प्राकृतिक जीवन मे सामर्थ्य समायोजन और परिस्थिति पर नियंत्रण- जीव विज्ञानवादियों के अनुसार प्राकृतिक जीवन के लिये एक मनुष्य में
सबसे पहले जीवन रक्षा का सामथ्र्य होनी चाहिये और प्राकृतिक वातावरण
में समायोजन की क्षमता होनी चाहिये। जिस मनुष्य में यह शक्ति नहीं
होगी वह जीवित नहीं होगा।

9. राज्य की केवल व्यावहारिक सत्ता- रूसो राज्य का मूल्यांकन
व्यक्ति के हित की दश्ण्टि से करते थे। एकतंत्र शासन प्रणाली व्यक्ति के
हितों का हनन करता है। इसका विरोध रूसो ने किया और जनता के
लिये और जनता के शासन का नारा लगाया और इस प्रकार राजनीति
विज्ञान के भी वे प्रथम विचारक माने गये। पर शिक्षा के क्षेत्र में राज्य के
कठोर नियंत्रण का विरोध करते हुये उन्होनें स्पष्ट किया कि राज्य को
व्यक्ति के स्वतंत्र विकास में बाधा डालने का को अधिकार नहीं है।
जबकि अन्य प्रकृतिवादी राज्य से जन शिक्षा की आशा करते हैं।

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