फ्रायड का व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत

मनोविज्ञान के क्षेत्र में सिगमंड फ्रायड के नाम से प्राय: सभी लोग परिचित है। सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया, उसे व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत कहा जाता है। सिगमंड फ्रायड का यह सिद्धांत उनके लगभग 40 साल के वैदानिक अनुभवों पर आधारित है। सिगमंड फ्रायड का सिद्धांत इसी उपागम पर आधारित है।

फ्रायड का व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत

सिगमंड फ्रायड के चिंतन का आधुनिक समाज में महत्वपूर्ण योगदान है मानव स्वभाव और व्यक्तित्व को समझने के लिए उनके सिद्धांत आधुनिक मनोविज्ञान की नींव हैं। सिगमंड फ्रायड एक आस्ट्रियन न्यूरोलाजी के डाक्टर थे, जिन्होंने मनोविष्लेशण के जरिए अनेक रोगियों का इलाज किया। इस प्रक्रिया में अपने अनुभवों के जरिए प्राप्त निश्कशोर्ं से, उन्होंने मानव मन से संबंधित सिद्धांत प्रस्तुत किए। इनमें कुछ मुख्य सिद्धांत हैं-

  1. चेतन अवचेतन की अवधारणा 
  2. इद, अहम् और अति अहम् का विचार 
इस सिद्धांतो के आधार पर सिगमंड फ्रायड यह निष्कर्ष निकालते हैं कि मानव व्यवहार और उसका व्यक्तित्व उसके मनोजगत से जुड़ा है। साथ ही यह भी स्पष्ट करते हैं कि अब तक मानव जाति का विकास, कला, साहित्य, विज्ञान आदि मानव मन की आदिम प्रवृत्तियों के दमन के आधार पर हुआ है। मनोविष्लेशण के क्षेत्र में आगे चलकर एल्फ्रड एडलर ने व्यक्तित्व के विकास में हीनता ग्रंथि (Inferiority Complex) को एक केन्द्रीय तत्व के रूप में पहचाना और बताया कि बचपन में बच्चा इसी ग्रंथि के प्रभाव में विकास करता है। श्रेष्ठता के लिए मनुष्य की इच्छा इस हीनता ग्रंथि से उबरने की संचालक शक्ति है। 
एडलर के बाद कार्ल जी जुंग ने विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान की नींव रखी। जुग के सिद्धांतों ने धर्म, दर्शन, साहित्य, पुरातत्व जैसे विषयों को अपने चिंतन से प्रभावित किया। 
उन्होंने मानव प्रकृति को समझने के लिए अंतर्मुखी और बहिर्मुखी स्वभाव की अवधारणा प्रस्तुत की। अवचेतन को गहरार्इ में विश्लेषित करते हुए सामूहिक अवचेतन की अवधारणा दी। इसे आर्केटाइप के रूप में आदिम बिम्ब को, मिथक की मान्यता प्रदान की। जुंग ने अपने आनुभविक साक्ष्यों द्वारा आधुनिक मनुष्य की समस्या को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार आधुनिक मनुष्य की समस्या मूलत: आध्यात्मिक है। इस रूप में जुंग के सिद्धांत आधुनिकता की मुक्ति की संभावना से जुड़े हुए हैं। उनका विश्वास था कि मनुष्य का भौतिक लक्ष्यों के अलावा आध्यात्मिक लक्ष्य जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। 

किसी भी सिद्धांत को ठीक प्रकार से जानने के लिये यह आवश्यक है कि उसकी मूल मान्यतायें बचा है? फ्रायड की भी मानवीय स्वभाव के बारे में कुछ व्
पूर्वकल्पनायें हैं, जिनको जानने से उनके व्यक्तित्व सिद्धांत को समझने में काफी मदद मिल सकती है। ये पूर्व कल्पनायें नियमानुसार हैं-

  1. मनुष्य के व्यवहार का निर्धारण बाहय कारकों द्वारा होता है। 
  2. ऐसा व्यवहार अपरिवर्तनशील, अविवेकपूर्ण, सनस्थितिष्क तथा जानने योग्य होता है। 
  3. इस सिद्धांत में मानवप्रवृत्ति की निराशावादी एवं निश्चयवादी छवि को प्रधानता दी गई है। 
  4. फ्रायड के अनुसार मानव स्वभाव आत्मनिष्ठ की पूर्व कल्पना द्वारा की कम प्रष्तावित होता है। 
  5. पूर्णत: शरीरगठनी तथा प्रलक्षता कैसी पूर्व कल्पनाओं से मानव प्रकृति थोड़ी-थोड़ी प्रभावित होती है। 

हम सिगमंड फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्धांत का अध्ययन निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत कर सकते हैं-

  1. व्यक्तित्व की संरचना
  2. व्यक्तित्व की गतिकी 
  3. व्यक्तित्व का विकास 

1. व्यक्तित्व की संरचना 

सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना का वर्णन दो मॉडलों के आधार पर किया है- 


1. आकारात्मक मॉडल- आप सोच रहे होंगे कि मन के आकारात्मक मॉडल से क्या आशय है?
फ्रायड के अनुसार आकारात्मक मॉडल गव्यात्मक शक्तियों में हाने वाले संबंधों का एक कार्यस्थल होता है? इसके तीन तरह हैं-

(i) चेतन- चेतन मन में से समस्त अनुभव। इच्छायें, प्रेरणायें, संवेदनायें आती हैं। किनका सम्बन्ध वर्तमान समय से होता है और जिसमें व्यक्तित्व जाग्रतावस्था में होता है। अत: केवल वर्तमान संबंध होने के कारण चेतन मन व्यक्तित्व के अत्यन्त सीमित पहलू का प्रतिनिधित्व करता है।
(ii). अर्द्धचेतन-  यह चेतन एवं अचेतन के मध्य की स्थिति है। इस अवस्था में व्यक्तित्व न तो पूरी तरह जाग्रत अर्थात् चेतन होता है। और न ही पूरी तरह से अचेतना सिगमंड फ्रायड का मानना है कि अद्धचेतन मन में ऐसी इच्छाएं, भावनायें एवं अनुभूतियां आती हैं, किन्तु प्रयास करने पर चेतन स्तर पर आ जाती है। अवचेतन मन को सुलभस्मृति के नाम से भी जाना जाता है। 
उदाहरण- जैसे कि कोई व्यक्ति अपना चश्मा या अन्य कोई वस्तु रखकर भूल जाता है। कुछ समय तक सोचने के बाद उसे याद आता है कि वह चश्मा या वस्तु तो उसके उदाहरण में आप देखिये कि व्यक्ति को प्रारंभ में याद नहीं आता है कि अचुक वस्तु उसने कहीं रखी है अर्थात् वह स्मृति अभी चेतनमन के स्तर पर नहीं है, किन्तु कुछ समय के बाद उसे स्मरण हो आता है कि वह चीज उसने यहां पर रखी है। 
इस प्रकार वह स्मृति चेतन मन का एक अच्छा उदाहरण है।
(iii). अचेतन- अचेतन शब्द, चेतन के ठीक विपरीत है अर्थात् जो चेतना से परे हो, वह अचेतन है। सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल में चेतन एवं अर्द्धचेतन की तुलना में अचेतन को कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार मनुष्य का व्यवहार अचेतन अनुभूतियां अच्छाओं एवं प्रेरणाओं से ही सर्वाधिक प्रमाणित होता है। सिगमंड फ्रायड की यह भी मान्यता है कि अचेतन में जो भी इच्छा है, विचार, अनुभव एवं प्रेरणायें होती हैं। उनका स्वरूप कामुक, अनैतिक,घृणित एवं आसामाजिक होता है। 
कहने के आशय यह है कि नैतिक दबाव अथवा सामाजिक दबाव इत्यादि के कारण अपनी कुछ इच्छाओं की पूर्ति व्यक्ति चेतन में नहीं कर पाता है। अत: ऐसी इच्छाएं चेतन स्तर पर निष्क्रिय होकर अचेतन मन में दमित हो जाती है और मानवीय व्यवहार को निरन्तर प्रभावित करती रहती है। 
इसी के परिणाम स्वरूप व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के मनोरोगों का सामना करना पड़ता है।

2. गव्यात्मक या संरचनात्मक मॉडल- आकारात्मक मॉडल को जानने के बाद अब आपके मन में गत्यात्मक भी संरचनात्मक मॉडल के बारे में जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो रही होगी। 
सिगमंड फ्रायड का मत है कि मूल प्रवृतियों से उत्पन्न मानसिक संघर्षों का समाधान जिन साधनों के द्वारा होता है। वे सभी गत्यात्मक या संरचनात्मक मॉडल के अन्तर्गत आते हैं। सिगमंड फ्रायड के अनुसार ऐसे साधन तीन हैं- 

1. उपाहं-

  1. यह व्यक्तित्व का जैविक तत्व है। इसमें व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियां होती हैं। 
  2. उपाहं आनन्द सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है। इनका आशय यह है कि इसमें केवल ऐसी प्रसवृत्तियां होती हैं जिनका मुख्य उद्देश्य सुख

    प्राप्त करना होता है। अत: इन प्रवृत्तियों का उचित अनुचित विवेक- अविवेक इत्यादि से कोई भी संबंध नहीं होता है। 

  3. उपाहं की प्रवृत्तियां का गुण, असंगठित आक्रामकता युक्त तथा नियम-कानून इत्यादि को नहीं मानने वाली होती हैं। 
  4. उपाहं पूरी तरह से अचेतन होता है। इसलिये वास्तविकता या यथार्थ से इसका कोई संबंध नहीं होता है? 
  5. एक छोटे बच्चे में उपाहं की प्रवृत्तियां होती हैं। 

2. अहं-

  1. अहं व्यक्तित्व के संरचनात्मक मॉडल का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है। 
  2. यह वास्तविकता सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है अर्थात् इसका संबंध वातावरण की वास्तविकता के साथ होता है। 
  3. जन्म के कुछ समय बाद जब नैतिक एवं सामाजिक नियमों के कारण व्यक्ति की सभी इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती है, तो उनमें निराशावादी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और उसका परिचय वास्तविकता से होता है। 
  4. परिणाम स्वरूप उसमें अहं का विकास होता है। अहं को व्यक्तित्व का निर्णय लेने वाला पहलू माना गया है। 
  5. अहं आंशिक रूप से चेतन आंशिक रूप से अवचेतन या अर्द्धचेतन तथा आंशिक रूप से अचेतन होता है। इसलिये अहं द्वारा मन के तीनों स्तरों पर ही निर्णय लिया जाता है। 

3. पराहं-

  1. अहं के बाद गत्यात्मक मॉडल का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है पराहं। 
  2. सच्चा जैसे-जैसे अपने जीवन के विकासक्रम में आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसका दायरा बढ़ने लगता है। उसका अपने माता-पिता से तादात्म्य, जुड़ाव स्थापित होता है। परिणाम स्वरूप वह जानना शुरू करता है कि क्या गलत है और क्या सही? क्या उचित है? क्या अनुचित/इस प्रकार उसमें पराहं विकसित होता है। 
  3. अहं के समान पराहं भी आंशिक रूप से चेतन अर्द्धचेतन एवं अचेतन अर्थात् तीनों होता है।
  4.  पराहं आदर्शवादी सिद्धांत द्वारा नियंत्रित होता है अर्थात् यह नैतिकता पर आधारित होता है। 
  5. इस प्रकार आपने जाना कि फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व की संरचना क्या है अर्थात् व्यक्तित्व किन-किन हाटकों से मिलकर बना है। अब चर्चा करते हैं, व्यक्तित्व की गति के विषय में। 

2. व्यक्तित्व की गतिकी

व्यक्तित्व की गतिकी का आशय है- व्यक्तित्व में उर्जा का स्रोत क्या है? यह उर्जा कहां से प्राप्त होती है तथा समय-समय पर व्यक्तित्व में किस प्रकार से परिवर्तन होते हैं। सिगमंड फ्रायड के अनुसार मनुष्य एवं शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही प्रकार की उपाधि होती है। जिनका मुख्य स्रोत यौन उर्जा है। चलना, दौड़ना, लिखना इत्यादि कार्य करने में शारीरिक उर्जा तथा सोचना, तर्क करना, निर्णय लेना, समस्या का समाधान करना इत्यादि में मानसिक उर्जा काम में आती है। सिगमंड 
फ्रायड ने व्यक्तित्व के कुछ गत्यात्मक पहलू बताये हैं, जो निम्न हैं- 

1. मूलप्रवृत्ति – मूलप्रवृत्ति से सिगमंड फ्रायड का आशय है- जन्मजात शारीरिक उत्तेजना यही मूल प्रवृत्ति के समस्त व्यवहार की निर्धारक होती है। इन मूलप्रवृत्तियों को सिगमंड फ्रायड ने दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया है- 

(i). जीवनमूल प्रवृत्ति- जीवन मूलप्रवृत्ति के कारण व्यक्ति की प्रवृत्ति रचनात्मक कार्यों में होती है। वह नये-नये अर्थात् मौलिक और अच्छे-अच्छे कार्य करने के लिये प्रेरित होता है। रचनात्मक कार्यों में मानवजाति का प्रजनन भी शामिल है। यहां पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि सिगमंड फ्रायड ने अपने पूरे सिद्धांत में ‘‘यौन मूल प्रवृत्ति’’ पर सर्वाधिक बल डाला है। फ्रायड के अनुसार यौन उर्जा व्यक्तित्व विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक है।

(ii). यौन मूलप्रवृत्ति (थैनाटोस)- इस प्रवृत्ति के कारण हिंसात्मक एवं आक्रामक व्यवहार करता है। उसकी प्रवृत्ति विध्वंसात्मक कार्यों की ओर होती है।


2. चिन्ता – व्यक्तित्व का दूसरा गत्यात्यक पहलू है-’’चिन्ता’’। सिगमंड फ्रायड के अनुसार चिन्ता का अर्थ है- ‘‘एक दु:खद भावनात्मक अवस्था’’। यह चिन्ता व्यक्ति के अहं में भविष्य के खतरे के प्रति सतर्क एवं सावधान करता है, जिसके कि व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति सामान्य एवं अनुकूली व्यवहार हो सके तथा वह वातावरण के साथ समायोजन कर सके। सिगमंड 
फ्रायड ने चिन्ता के निम्न तीन प्रकार बतलाये हैं-


(i). वास्तविक चिन्ता- वास्तविक चिन्ता का अर्थ है- ‘‘बाहरी वातावरण में विद्यमान वास्तविक खतरे के प्रति की गई सांवेगिक अनुक्रिया।’’
इस प्रकार की चिन्ता इसलिये उत्पन्न होती है, क्योंकि अहं कुछ हद तक बाहृय वातावरण पर निर्भर होता है।
उदाहरण- भूकंप, आँधी-तूफान, शेर इत्यादि से डर उत्पन्न होकर चिन्तित होना वास्तविक चिन्ता के उदाहरण है।

(ii). तंत्रिकातापी चिन्ता-  इस प्रकार की चिन्ता के उत्पन्न होने का कारण है- अहं का उपाहं की इच्छाओं पर निर्भर होना।
उदाहरण-
जैसे व्यक्ति का यह सोचकर चिंताग्रस्त हो जाना कि क्या अहं, उपाहं की यौन इच्छाओं, आक्रामक एवं हिंसात्मक इच्छाओं को नियंत्रित करने में सक्षम हो पायेगा

(iii). नैतिक चिन्ता-  अहं की पराहं पर निर्भरता के कारण व्यक्ति में नैतिक चिन्ता उत्पन्न होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब अहं, उपाहं की अनैतिक इच्छाओं को कार्यरूप दे देता है, तो उसे पराहं से दण्डित होने की धमकी मिलती है। इससे वह नैतिक रूप से चिन्ताग्रस्त हो जाता है तथा उसमें दोषभाष, शर्म इत्यादि की भावना उत्पन्न हो जाती है। यदि हम सामूहिक रूप से देखें तो ये तीनों प्रकार की चिन्तायें एक दूसरे से संबंधिक है तथा एक प्रकार की चिन्ता दूसरे प्रकार की चिन्ता को जन्म देती हैं। 

3. मनोरचनायें – जब व्यक्ति के अन्दर अनेक प्रकार की चिन्तायें उत्पन्न होने लगती है तो वह इन चिन्ताओं से छुटकारा पाने के लिये अहं रक्षात्मक प्रक्रमों के संप्रत्यय का प्रतिपादन तो फ्रायड द्वारा किया गया, किन्तु इसकी सूची को पूरा करने का कार्य उनकी पुडी अन्ना फ्रायड एवं दूसरे नव-फ्रायडियनों द्वारा किया गया।
एक सीमा तक इन रक्षात्मक प्रक्रमों का प्रयोग करना ठीक है, किन्तु इनके लगातार तथा अधिक प्रयोग के कारण व्यक्ति के मन में अनेक प्रकार के मनोरोग जन्म लेने लगते हैं। 

3. व्यक्तित्व का विकास

सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व विकास को ‘‘मनोलैंगिक विकास’’ की संज्ञा दी है तथा इस विकास के पाँच चरण या अवस्थायें बतायी है – 

1. मुखावस्था- 

  1.  मनोलैंगिक विकास की यह प्रथमावस्था है। यह व्यक्ति के जन्म से लेकर लगभग 1 साल की आयु तक होती है। 
  2. फ्रायड के अनुसार इस चरण में व्यक्ति का व्यामुकता क्षेत्र मुँह होता है अर्थात- मुँह के माध्यम से वह कामुक क्रियायें करता है। जैसे- चूसना, निगलना, जबड़े या दाँत निकल आने पर दबाना, काटना इत्यादि। 

2. गुदावस्था- 

  1. व्यक्तित्व विकास की यह दूसरी अवस्था 2 से 3 साल की उम्र के बीच होती है। 
  2. इस अवस्था में व्यक्ति का कामुकता क्षेत्र गुदा होता है। फ्रायड के करने का अर्थ यह है कि इस उम्र में बच्चा मुल-मूत्र त्यागकर कामुक क्रियाओं का आनंद उठाता है। 

3. लिंग प्रधानावस्था- 

  1. यह व्यक्तित्व विकास की तीसरी अवस्था है, 4 से 5 साल की उम्र के बीच की अवस्था है। 
  2. इसमें कामुकता का क्षेत्र जननेन्द्रिय होते हैं। 

4. अव्यवक्तावस्था- 

  1. यह अवस्था 6 से 7 साल की उम्र से आरंभ होकर 12 वर्ष की आयु तक बनी रहती है। 
  2. इस अवस्था में कोई नया कामुकता क्षेत्र उत्पन्न नहीं होता है। 
  3. लैंगिक इच्छायें सुषुप्त हो जाती है और इनकी अभिव्यक्ति अनेक प्रकार की अलैंगिक क्रियाओं के माध्यम से होती है। उदाहरण के तौर पर हम पढ़ाई, चित्रकारी, संगीत नृत्य, खेल इत्यादि को ले सकते हैं। 

5. जननेन्द्रियावस्था- 

  1. मनोलैंगिक विकास के इस चरण में किशोरावस्था एवं प्रौढ़ावस्था या वयस्यावास्था दोनों को ही शामिल किया गया है। 
  2. यह 13 वर्ष की उम्र से प्रारंभ होती है और निरन्तर चलती ही रहती है। 
  3. फ्रायड के अनुसार इस अवस्था में व्यक्ति के शरीर में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं। जैसे की हार्मोन्स में परिवर्तन होना और इनके अनुसार शरीर में भी किशोरावस्था के अनेक लक्षण दिखायी देने लगते है। 
  4. फ्रायड के अनुसार इस अवस्था के प्रारंभिक वषो्र में अर्थात् किशोरावस्था में व्यक्ति में अपने ही लिंग के व्यक्तियों के साथ सम्पर्क बनाये रखने की प्रवृत्ति अधिक होती है। जैसे लड़कियों में लड़कियों के साथ रहने की तथा लड़कों में लड़कों के साथ रहने की प्रवृत्ति अधिक रहती है। 
  5. किन्तु जब व्यक्ति किशोरावस्था से वयस्कावस्था में प्रवेश करता है तो उसमें ‘‘विषमलिंग कामुकता’’ की प्रवृत्ति विकसित होने लगती है अर्थात-

    वह अपने से विपरीत लिंग के व्यक्तियों के साथ उठता-बैठता है, बातचीत करता है, अपना समय व्यतीत करता है। 

  6. इस अवस्था में व्यक्ति का व्यक्तित्व हर दृष्टि से परिपक्व होता है। जैसे- कि सामाजिक, शारीरिक, मानसिक दृष्टि से। 
  7. इसी अवस्था में व्यक्ति विवाह जो कि समाज द्वारा मान्य एवं अनुमोदित प्रथा है। उसको अपनाकर एक सन्तोषजनक जीवन की ओर अपने कदम बढ़ाता है। 

उपर्युक्त विवेचन से आप मनोलैंगिक विकास की सभी अवस्थाओं को समझ गये होंगे। फ्रायड का मानना है कि प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति की लैंगिक ऊर्जा का क्रमश: विकास होता है, जिसके कारण विकास की अंतिम अवस्था में वह सक्रिय होकर उपयोगी एवं सन्तोषजनक जीवनयापन करता है। 

फ्रायड का व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत के गुण 

मूल्यांकन में किसी भी व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति अथवा सिद्धांत के गुण एवं दोष की समीक्षा की जाती है। फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्धांत में भी कुछ गुण है और कुछ इसकी सीमायें हैं – 
  1. विस्तृत एवं चुनौतीपूर्ण सिद्धांत-

    फ्रायड ने काफी व्यापक ढंग से व्यक्तित्व का अध्ययन किया है। उन्होंने प्राय: व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू को समझाने की भरपूर कोशिश की है। 

  2.  बोधगम्य भाषा- फ्रायड ने व्यक्तित्व के विकास को बहुत ही आसान भाषा में समझाने की कोशिश की है।
    फ्रायड का मानना है कि एक स्वस्थ व्यक्तित्व में जीवन एवं मृत्यु मूलप्रवृत्तियों में एक प्रकार का समन्वय एवं सामंजस्य पाया जाता है तथा इससे अर्थात् जीवन मूल प्रवृत्ति थेनाटोस अर्थात् मृत्युमूलप्रवृत्ति की तुलना में अधिक सक्रिय एवं प्रधान होती है। 

फ्रायड का व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत के दोष

आलोचकों ने निम्न आधारों पर फ्रायड के सिद्धांत की आलोचना की है  
  1. वैज्ञानिक विधि का अभाव –
    आलोचकों का मत है कि फ्रायड ने अपने शोध कार्यो को सुव्यवस्थत एवं क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत नहीं किया है जो किसी भी सिद्धांत की वैज्ञानिकता के लिये अत्यधिक आवश्यक है। 
  2. लैंगिक उर्जा पर आवश्यकता से अधिक बल देना – फ्रायड के सिद्धांत की सबसे कड़ी आलोचना इस आधार पर की जाती है कि उन्होंने अपने पूरे सिद्धांत में एकमात्र लैंगिक उर्जा को ही आधारभूत इकाई माना है और आवश्यकता से अधिक इसके महत्व को स्वीकार किया है। 
  3. मनोरोगियों की अनुभूतियों पर आधारित –
    फ्रायड का सिद्धांत एक तो उनके अपने व्यक्तिगत अनुभवों और इसके उन मनोरोगियों के अनुभवों पर आधारित है, जो उनके यहाँ उपचार के लिये आते थे। आलोचकों का कहना है कि किस सिद्धांत की नींव ही मनोरोगियों की अनुभूतियों पर टिकी है। उसे सामान्य व्यक्तियों पर कैसे लागू किया जा सकता है। 

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से आप जान गये हैं कि फ्रायड के सिद्धांत का क्या महत्व है और उसमें क्या-क्या कमियाँ है। उनके कमियाँ होने के बावजूद भी व्यक्तित्व मनोविज्ञान के क्षेत्र में फ्रायड के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। 

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