भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का विकास : प्रथम चरण

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की एक पृथक धारा क्रांतिकारी आंदोलन है। भारत के नवयुवकों का
एक वर्ग हिंसात्मक संघर्ष को राजनीतिक प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते थे।
वे स्वयं को मातृभूमि के लिए बलिदान करने को तैयार थे और हिंसक माध्यमों से ब्रिटिश शासन
को भयभीत कर, आतंकित कर देश से निकाल देना चाहते थे। यह आक्रामक राष्ट्रवाद की विचारधारा
है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में चारों ओर फैलती असंतोष की लहर, अकाल, भूकम्प, महामारी
का प्रकोप और बढ़ती गरीबी तथा भारतीय जनता की कठिनाईयों के प्रति शासन की उदासीनता ने
भारतीय नवयुवकों में विदेशी ब्रिटिश शासन के प्रति आक्रामक विरोध की भावनाओं को भड़काया। आसुरी
ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिए अस्त्र का प्रयोग करना ही होगा। इस विचारधारा ने देश में
क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म दिया। 

क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास

भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का विकास : प्रथम चरण

क्रांतिकारी आंदोलन का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था लेकिन कालांतर में इसका प्रधान केन्द्र बंगाल
बन गया। भारत के अन्य प्रांतों तथा विदेशों में भी भारतीय क्रांतिकारी सक्रिय हुए।

1. बंगाल

बंगाल के क्रांतिकारी नेता बरीन्द्र कुमार घोष (अरविंद घोष के छोटे भाई) और भूपेन्द्र नाथ दत्त
(स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई) थे। इन दोनों ने युगांतर तथा संध्या नामक क्रांतिकारी पत्रों द्वारा
क्रांतिकारी विचारधारा का प्रचार किया। इन्हें क्रांति का अग्रदूत भी माना जाता है।
युगांतर और संध्या दोनों अत्यधिक लोकप्रिय सिद्ध हुए। क्रांतिकारियों ने अनुशीलन-समिति
नामक संस्था का गठन किया जिसमें सदस्यों को भारतीय इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रवाद तथा
राजद्रोहात्मक सिद्धांतो की शिक्षा व शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाता था। इसकी लगभग 200 शाखाएं थी
तथा ढाका और कलकत्ता इसके मुख्य केन्द्र थे। इसके सदस्यों को मां काली के समक्ष अपने कर्तव्यों
का निर्वाह करने के हेतु व्रत लेना पड़ता था।

बंगाल में 1907 से ही वातावरण क्रांतिमय हो गया था और अंग्रेजी शासन के विरूद्ध सशस्त्र
आंदोलन प्रारंभ हो गया। 6 दिसंबर 1907 को मिदनापुर के समीप क्रांतिकारियों द्वारा उस रेलगाड़ी में
बम फेंका गया जिसमें बंगाल का गर्वनर यात्रा कर रहा था। दूसरी घटना 23 दिसंबर 1907 को हुई जब
क्रांतिकारियों ने ढाका के भूतपूर्व जिला मजिस्ट्रेट को गोली मारने का असफल प्रयत्न किया था। तीसरी
घटना 30 अप्रैल, 1908 को मुजफरपुर में घटी जिसने भारत तथा ब्रिटेन में पूरी सनसनी फैला दी।
क्रांतिकारियों ने मुजफरपुर के जज किंग्सफोर्ड की हत्या करने का प्रयास किया। किंतु किंग्सफोर्ड के
स्थान पर उसकी गाड़ी में दो अंग्रेज महिलाएं थीं जो घटनास्थल पर ही मारी गई। इस अपराध के लिए
18 वष्र्ाीय युवक खुदीराम बोस को फांसी की सजा दी गई। 

खुदीराम के बलिदान का भारतीय युवकों
पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह बंगाल का राष्ट्रीयवीर शहीद बन गया। उस पर देश भक्तिपूर्ण कविताएँ लिखी
गयी जो हर बंगाली की जुबान पर छा गई। अगली घटना अलीपुर षड़यंत्र केस 1910 के नाम से प्रसिद्ध
है। सरकार को कलकत्ता में एक क्रांतिकारी षड़यंत्र का बोध हुआ। जिसमें कुछ बम डायनामाइट और
कारतूस बरामद हुए। इस घटना के संबंध में 31 व्यक्ति गिरतार हुए जिनमें अरविंद घोष भी थे।
कन्हाईलाल और सत्येन्द्र को फांसी की सजा मिली तथा वीरेन्द्र को देश निष्कासन की। अंत में
क्रांतिकारियों की ओर से कुछ अन्य हत्याएं भी की गई जिनका संबंध मुजफरपुर तथा अलीपुर केस से
था।

2. महाराष्ट्र

क्रांतिकारी आंदोलन बंगाल से पहले महाराष्ट्र में प्रारंभ हो गया था। महाराष्ट्र में क्रांतिकारी
आंदोलन के नेता चापेकर बंधु विनायक दामोदर सावरकर एवं उनके भाई गणेश सावरकर तथा
श्यामजी कृष्ण वर्मा थे। लोकमान्य तिलक के बंदी बनाए जाने पर महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन
का उदय हुआ। तिलक की रचनाओं से क्रांतिकारियों ने प्रेरणा ग्रहण की थी। क्रांतिकारियों के संगठन
अभिनव भारत का केन्द्र नासिक था। सावरकर बंधुओं ने सन् 1900 में एक देशभक्त संगठन मित्र मेलेलेला
की स्थापना की थी। सन् 1904 में यह एक क्रांतिकारी संगठन बन गया और इसका नाम अभिनव भारत
कर दिया गया। संपूर्ण महाराष्ट में इसकी शाखाएं फैली हुई है। प्रशासन को निष्क्रिय बनाने के लिए
क्रांतिकारियों के संगठनों द्वारा राजनीतिक हत्याओं और नौकरशाही को आतंकित करने के लिए प्रचार
कार्य किए गए थे। महाराष्ट्र में क्रांतिकारियों का नारा था प्राण देने से पूर्व प्राण ले लो। 

सन् 1899 में रैण्ड एवं अयेस्र्ट की हत्या की गई। चापेकर बन्धुओं को इसके लिए दण्ड दिया
गया। ऐसा कहा जाता है कि इन अंग्रेंजी की हत्या में श्यामजी कृष्ण वर्मा का हाथ था। वे इसके बाद
इंग्लैण्ड चले गये। सन् 1906 में विनायक दामोदर सावरकर भी इंग्लैण्ड चले गये और श्यामजी कृष्ण
वर्मा का हाथ बंटाने लगे। वे दोनों लंदन से अपने संदेश तथा क्रांतिकारी शस्त्र गणेश सावरकर को
भेजा करते थे। 1909 में उन्होनें में गणेश सावरकर के नाम पिस्तौलों का एक पार्सल भेजा था। पार्सल
मिलने से पूर्व 2 मार्च 1909 को उन्हें पुलिस द्वारा बंदी बना लिया गया। उनके विरूद्ध राजद्रोहात्मक
साहित्य के प्रकाशन का आरोप था। 
9 जून 1909 को उन्हें आजीवन देश निर्वासन का दण्ड दिया गया।
दिसंबर 1909 में नासिक के जिलाधिकारी जेकसन को गाली से उड़ा दिया गया। उन्होनें गणेश
सावरकर को दण्ड दिया था। अभिनव समिति के 27 सदस्यों पर अभियोग चलाया गया। और उनमें से
तीन को मृत्यु दण्ड दिया गया। नवंबर 1909 में गर्वनर लार्ड मिण्टो पर बम फेंककर हत्या करने का
असफल प्रयास किया गया था। दामोदर सावरकर भी बंदी बनाकर जहाज से भारत भेजे गये। वे किसी
प्रकार जहाज से बच निकले। समुद्र को तैरकर फ्रांस के बंदरगाह में शरण ली। लेकिन वे भी गिरफ्तार
कर लिए गए। उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया।

3. पंजाब

प्रारंभ में पंजाब में बंगाल तथा महाराष्ट्र जैसी गुप्त समितियां नहीं थी, लेकिन सरकार की भूमि
संबंधी नीति के कारण जनता के विभिन्न वर्गो में तीव्र असंतोष फैला। 1907 ई. में सरदार अजीत सिंह,
भाई परमानंद तथा लाला हरदयाल ने क्रांतिकारियों का संगठित किया। सरदार अजीत सिंह और
सूफी प्रसाद ने मिलकर भारत माता सोसाइटी नामक संस्था की स्थापना की। इस समय बांके दयाल
जी पंजाब की सभाओं में एक गीत गाया करते थे। जिसकी प्रथम पंक्ति थी: पगड़ी़ संभाल ओं जट्ट्टटा
पगड़ी़ संभाल ओ पंजाब में यह गीत उतना ही लोकप्रिय था, जितना बंगाल में वन्दे मातरम्। 

907 में
लाला लाजपतराय और सरदार अजीत सिंह की गिरफ्तारी से असंतोष बढ़ने लगा। कुछ समय के लिए
पंजाब में जन असंतोष इतना बढ़ गया कि शासक 1907 ई. में 10 मई को (जो 1857 की क्रांति के प्रारंभ
का दिन था) प्रदेशव्यापी विद्रोह की आशंका करने लगे थे। परंतु 1909 ई. में सरकार द्वारा भूमि संबंधी नीति में जनता की इच्छानुसार परिवर्तन कर दिये जाने पर क्रांतिकारी गतिविधियों में कमी आई।
दिल्ली उस समय पंजाब का ही एक हिस्सा थी। बंगाली एवं पंजाबी देशभक्तों के लिए दिल्ली संगम
स्थल था। 
23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली के राजधानी बनने पर गर्वनर जनरल हार्डिंग के ऊपर बम
फेंककर हत्या का असफल प्रयास किया गया। मई, 1913 लाहौर में अंग्रेज अधिकारियों की हत्या का
प्रयत्न किया गया। इस घटना के फलस्वरूप दिल्ली के क्रांतिकारियों का पता लग गया। दिल्ली “ाड़यंत्र
काण्ड में 13 व्यक्ति गिरतार किये गये। मास्टर अमीरचन्द्र इस समय दिल्ली के सबसे बड़े क्रांतिकारी
थे।

4. मद्रास

मद्रास में भी क्रांतिकारी आंदोलन का सूत्रपात हुआ। विपिनचन्द्र पाल ने 1907 में मद्रास का दौरा
कर अपने विचारों का प्रचार किया। अरविंद घोष के विरूद्ध गवाही न देने के कारण उन्हें 6 माह का दण्ड
दिया गया। कारावास से छूटने पर उनके सम्मान में स्थानीय क्रांतिकारी नेता सुब्रहाण्यम शिव एवं
चिदम्बरम पिल्ले ने स्वागत का आयोजन किया। फलस्वरूप इन दोनों को 12 मार्च 1909 को बंदी बना
लिया गया, इसकी प्रतिक्रिया टिनेवली में उपद्रव के रूप में हुई। शासन ने समाचार पत्र के संपादकों एवं
आंदोलनकारी नेताओं को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया। इससे जनता में उत्तेजना फैल गई।
क्रांतिकारी संगठित होने लगे। उन्होनें सरकारी संपत्ति को हानि पहुंचायी और पुलिस चौकी एवं थानों
पर हमले किये गये। शासन का दमन चक्र शुरू हो गया। नवयुवकों में उत्तेजना जागृत हुई। एम.पीतिहल
आचार्य एवं बी.बी. एस. नय्यर उनके प्रेरणास्रोत थे। 17 जून 1911 को टिनेवली के
क्रांतिकारियों ने जिला मजिस्ट्रेट ऐश की हत्या कर दी गई।

5. विदेशी में क्रांतिकारी आंदोलन

भारतीय क्रांतिकारियों की गतिविधियां देश तक ही सीमित न थी। अपितु वे विदेशों में भी सक्रिय
थे। इंग्लैण्ड में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1905 में नेशनल होमरूल सोसायटी की स्थापना की। उनके द्वारा
इंडियन सोशियालाजिस्ट नामक मासिक पत्र का प्रकाशन किया जाता था। दामोदर विनायक सावरकर
ने 1906 में लंदन पहुंचकर भारतीय क्रांतिकारियों की सहायता का कार्य प्रारंभ किया। उन्होनें वहां से
अपने भाई गणेश सावरकर को पिस्तौलें भेजी थी। गणेश सावरकर को ब्रिटिश शासन के विरूद्ध युद्ध की
घोषणा करने के अपराध में देश निष्कासन का दण्ड मिला था। विनायक सावरकर को लंदन में गिरफ्तार
कर अण्डमान में आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया था।

फ्रांस में क्रांतिकारियों की सहायता मैडम भीखाजी कामा करती थी। एक गुजराती व्यापारी
एम.एस.राना एक पारसी महिला भीखाजी कामा से विवाह कर पेरिस में बस गये थे। इनके द्वारा भारतीय
छात्रों को दो हजार रूपए की यात्रा छात्रवृत्तियां दी जाती थी। मैडम कामा वन्देमातरम् नामक पत्र का
संपादन करती थी। यूरोप के भारतीय क्रांतिकारी भारत में क्रांतिकारियों की सहायता करते थे।
ब्रिटिश शासन के द्वारा किये जा रहे अत्याचारों का बदला लेने के लिए मदनलाल धींगंगंगरा ने
सर फ्रांसिस कर्जन विली, जो भारत-मंत्री कार्यालय के एडीसी थे, को 1 जुलाई, 1909 को गोली मार
दी थी। इस अपराध के लिए धींगरा को मृत्यु दण्ड दिया गया। 

मदनलाल धींगरा ने अभियोग के समय
बयान देते हुए कहा था कि परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा देश सदैव युद्धस्थल ही बना रहता है।
इसी प्रकार अमेरिका महाद्वीप में भी भारतीय क्रांतिकारी सक्रिय थे। लाला हरदयाल ने 1913 में
सेनफ्रांसिसको में गदर पार्टी का गठन किया था। उन्होनें उर्दू एवं गुरूमुखी में दो समाचार पत्र निकाले
तथा अंग्रेजों के विरूद्ध संगठित संघर्ष का नेतृत्व किया। कनाडा एवं अमेरिका में गदरपार्टी की अनेक
शाखाएं खोली गयी। मार्च 1914 में उन्हें अमेरिकी सरकार द्वारा बंदी बनाया गया और बाद में वे जमानत
पर रिहा किए गए। बाद में वे स्विट्जरलैंड चले गये।

1907 में भाई परमानंद भी यूरोप में, इंडिया सोसायटी से संबंद्ध थे जो प्रवासी भारतीयों का
प्रमुख क्रांतिकारी संगठन था। 1909 में सरदार अजीत सिंह फारस होकर पेरिस पहुंचे थे। 1913 में कोमा
गाटा मारू जहाज काण्ड हुआ था। कनाडा में प्रवास करने वाले सिक्खों के संबंध में कनाडा सरकार
द्वारा बनाए गए कानून का विरोध करते हुए बाब गुरूदत्तसिंह नामक एक धनी व्यापारी जो कनाडा में
बस गये थे, ने एक जापानी जहाज कोमा गाटा मारू किराये पर लिया और यह जहाज सीधे कनाडा के
लिए 500 भारतीयों को लेकर कलकत्ता से चला। कनाडा की सरकार ने इस जहाज को बंदरगाह में
घुसने नहीं दिया। उसे डुबाने के लिए युद्धपोत भेजे और सिक्खों पर अनेक अत्याचार किए गए। उन पर
उबलता पानी डालने का प्रयास किया। दो माह तक जहां समुद्र में खड़ा रहा। इसे सिंगापुर एवं हांगकांग
के बंदरगाहों में प्रवेश की अनुमति भी नहीं दी गयी। अंत में वह वापस कलकत्ता पहुँचा। यात्रियों को
एक रेलगाड़ी द्वारा भेजने की योजना बनायी गयी। यात्रियों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह के दमन करने
में 8 सिख मारे गये। और अनेक घायल हुए। बाबा गुरूदत्तसिंह भी घायल हुए परंतु बचकर निकल गये।
भारतीयों को कनाडा में बसने रोकने के लिए बनाए गए इस कानून की विधि का सिखों ने विरोध किया।
मेवासिंह ने कनाडा के विदेश विभाग के प्रधान होपकिंस की हत्या कर दी। इस कार्य में भी गदर दल
ने प्रमुख योगदान दिया था।

भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का विकास : द्वितीय चरण

1919 में जब महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया गया तो क्रांतिकारियों द्वारा भी
इस आंदोलन के परिणामों की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा की जाने लगी। लेकिन जब इस आंदोलन को
अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई तो क्रांतिकारियों के द्वारा अपने कार्य प्रारंभ कर दिये गये। यह
क्रांतिकारी आंदोलन का द्वितीय चरण था।

1. काकोरी केस 

फरवरी 1920 में जेल से रिहा होने के बाद शचीन्द्र सान्याल के द्वारा भारत के सारे क्रांतिकारी
दलों को संगठित करके हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ की स्थापना की गर्इं। इस क्रांतिकारी दल के द्वारा
देश में सशस्त्र क्रांति करने के लिए बड़ी मात्रा में शस्त्र खरीदे गए और इन शास्त्रों की कीमत चुकाने
के लिए रेलगाड़ी में जा रहे सरकारी खजाने को लखनऊ के निकट काकोरी में लूटने की योजना बनाई
गई। 

9 अगस्त 1925 को काकोरी के निकट गाड़ी रोक कर क्रांतिकारियों के द्वारा खजाना लूट लिया
गया। लेकिन पुलिस गुप्तचर विभाग ने क्रांतिकारियों को गिरतार कर लिया। इन पर मुकदमा चलाया
गया। इसे ही काकोरी षड़यंत्र केसेसेस के नाम से जाना जाता है। इसके नायक थे पंण्डित रामप्रसाद
बिस्मिल। इस केस में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी़, रोशन सिंह और अशफाक उल्लाह
को फांसी, शचीन्द्र नाथ सान्याल व बख्शी को आजन्म कारावास, मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष की कैद
व अन्य को कई वर्ष की सजायें दी गई। सरफरोशी की तमन्ना के गायक रामप्रसाद बिस्मिल ने
मुल्को मिल्लत पर इस प्रकार अपनी शहदत दे दी।

2. असेम्बली बमकाण्ड

इसके पश्चात् सरदार भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर व राजगुरू आदि के द्वारा
क्रांतिकारी दल का नाम जो हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी था, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन आर्मी रख दिया गया। 10 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में
निकले जुलूस का नेतृत्व करते वयोवृद्ध नेता और शेरे-पंजाब के नाम से प्रसिद्ध लाला लाजपतराय पर
अंग्रेज पुलिस कप्तान साण्डर्स के द्वारा भीषण लाठी चार्ज किया गया था। जिसके परिणामस्वरूप
लालाजी की मृत्यु हो गई। लालाजी की यह मृत्यु भारत के लिए एक राष्ट्रीय अपमान था। और
क्रांतिकारियों ने इसका बदला 17 दिसंबर 1928 को गोली मारकर साण्डर्स की हत्या कर ले लिया गया।
इसके बाद 8 अप्रैल 1929 को एक और घटना हुई। केन्द्रीय असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी बिल पर बहस
चल रही थी। सदन में इस विधेयक की अस्वीकृति निश्चित थी, लेकिन यह भी निश्चित था कि गर्वनर
जनर्रल अपने विशेष अधिकारों के आधार पर इसे कानून का रूप दे देगा। इसके पहले सरकार द्वारा
जनता की इच्छा के विरूद्ध बल पूर्वक ट्रेड डिस्प्यूटस बिल पास किया गया था। 

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन आर्मी की केन्द्रीय समिति के निर्णय पर इस बिल को रूकवाने और सरकार को जनता का
मूल्य समझाने के लिए असेम्बली में बम फेंका गया था। इस कार्य के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त
को चुना गया। यह भी निश्चत किया गया कि ये व्यक्ति बम फेंकने के बाद भागे नहीं वरन् अपने आपको
गिरफ्तार करवा दें। तथा कोर्ट में बयान देकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के उद्देश्य और कार्यक्रम पर
प्रकाश डालें।

8 अप्रैल 1921 को जब पब्लिक सेफ्टी बिल पर मत पड़ने वाले थे तो सरदार भगतसिंह ने दिल्ली
की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंका। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इंकलाब जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद
का नाश हो के नारे लगाए। बम के साथ फेंके गये पर्चे में लिखा हुआ था बहरों को सुनाने के लिए बमों
की आवश्यकता है। बम फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं, वरन् देश में जागृति पैदा करना
ही था। भगत सिंह और दत्त ने अपने आपको गिरफ्तार करवा दिया गया। पुलिस ने इन पर मुकदमा
चलाया। अदालत में एक लंबा बयान देकर इन क्रांतिकारियों ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के उद्देश्यों
और कार्यक्रमों पर प्रकाश डाला। पुलिस ने सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के अतिरिक्त उनके
कई साथियों को गिरतार किया था। 

मुकदमें की कार्यवाई के दौरान अदालतों में ये क्रांतिकारी ‘सरफोशी
की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ और ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ जैसी गीत गाते थे। इन
क्रांतिकारियों ने जेल की अमानवीय स्थिति के विरूद्ध आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। इस लंबे
अनशन से भारतीय जनता बहुत क्षुब्ध और उद्धेलित थी। अनशन के 64 वें दिन 13 सितंबर को
यतीनदास की मृत्यु हो गई। मौत की खबर सुनकर पूरा देश रोया। 
23 मार्च, 1931 को सरदार भगत
सिंह शिवाराम, राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सजा दे दी गई। फांसी के तख्ते पर ये नौजवान
क्रांतिकारी गा रहे थे- दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्ट्टी से भी
खुशबू-ए-वतन आयेगी। शहीदों के इस बलिदान पर सारे देश में शोक मनाया गया।

3. चटगांव विद्रोह

इस काल में बंगाल में भी क्रांतिकारी संगठित होने लगे इस क्षेत्र में सबसे अधिक सक्रिय था,
चटगांव क्रांतिकारियों का वर्ग जिसके नेता मास्टर सूर्यसेन थे, और उनके सहयोगी अनंत सिंह, गणेश
घोष और लोकीनाथ बाठल थे। इन्होनें चटगांव विद्रोह की योजना बनाई, जिसमें चटगांव के दो
शास्त्रागारों पर कब्जा कर हथियारों को लूटना, संचार व्यवस्था को नष्ट करना और रेल-संपर्क को भंग
करना शामिल था। निश्चित दिन 18 अप्रैल 1930 को पुलिस शास्त्रागार पर कब्जा कर लिया गया, किंतु
ये लोग गोला-बारूद पाने में असफल रहे। वंदे मातरम् और इंकलाब जिंदाबाद के नारों के बीच कालेज
शस्त्रागार के बाहर सूर्यसेन ने तिरंगा फहराया और एक काम चलाऊ क्रांतिकारी सरकार के गठन की
घोषणा की। लेकिन ये मुट्ठी भर युवा क्रांतिकारी ब्रिटिश सेना से लोहा नहीं ले सकते थे, अत:
जलालाबाद की पहाड़ियों में जमकर संघर्ष के बाद सूर्यसेन और कई अन्य बवाल के गांवो में छिपने में
सफल रहे, जहां बेइंतहा जुल्म के बावजूद गांव वालो ने इन्हें शरण दी। लेकिन फरवरी 1933 में सूर्यसेन
गिरफ्तार कर लिये गये और 12 जनवरी 1934 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।

काकोरी केस में चन्द्रशेखर आजाद भी शामिल हुए थे, परंतु वे सरकार के हाथ नहीं आये। अब
क्रांतिकारी दल के नेतृत्व का भार चन्द्रशेखर आजाद पर आया, उनके सहयोगी थे, यशपाल, सुखदेव
राज, राधामोहन गोकुल जी और भगवती चरण बोहरा। श्री बोहरा की धर्मपत्नी श्रीमति दुर्गा देवी ने भी
क्रांतिकारी आंदोलन में साहसिक भूमिका निभाई।

वायसराय लार्ड इरविन ने महात्मा गांधी तथा जनता की अपीलों के बाद भी भगत सिंह तथा
उनके साथियों के मृत्युदंण्ड को कम नहीं किया था। चन्द्रशेखर आजाद तथा यशपाल ने 23 दिसंबर
1929 ई. को निजामुद्दीन स्टेशन के पास वायसारय इरिवन की ट्रेन को बम से उड़ा देने की योजना
बनाई। निश्चित समय पर सफल कार्यवाही के बावजूद वायसराय बाल-बाल बच गये। इसी दिन एक
क्रांतिकारी हरीकिशन ने भी पंजाब के गर्वनर पर गोली चलाई, वे घायल हो गये किन्तु उनकी मृत्यु नहीं
हुई।

चन्द्रशेखर यशपाल को रूस भेजना चाहते थे, ताकि वहां से स्वाधीनता-संघर्ष में कुछ सहायता
प्राप्त की जा सके। 27 फरवरी 1931 ई. को वे इस प्रसंग में क्रांतिकारी सुखदेव राज से इलाहाबाद के
अल्फ्रेड पार्क में मंत्रणा कर रहे थे कि पुलिस वहां आ पहुंची और दोनों तरफ से गोलीबारी की गई और
आजाद भी शहीद हो गए। आजाद की मृत्यु से क्रांतिकारी दल की अपूरणीय क्षति हुई। क्रांतिकारियों के
अदम्य साहस, देशप्रेम और बलिदान ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में एक नया अध्याय जोड़ा है। केन्द्रीय
संगठन की कमी, धन के अभाव और शिक्षित युवा वर्ग तक सीमित रहने के कारण थे, अपने उद्देश्य ..
…….. भारत की स्वतंत्रता तो हासिल ना कर सके पर इन्हें असफल भी नहीं माना जा सकता। संपूर्ण
भारत उनके बलिदानों के समक्ष नतमस्तक हुआ है।

संदर्भ –
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