भ्रष्टाचार का अर्थ
है। “भ्रष्ट” का अर्थ होता है – निम्न, गिरा हुआ, पतित, जिसमें अपने कर्त्तव्य को
छोड़ दिया है तथा “आचार” शब्द का अर्थ होता है आचरण, चरित्र, चाल, चलन,
व्यवहार आदि। अत: भ्रष्टाचार का अर्थ है – गिरा आचरण अथवा चरित्र और
भ्रष्टाचारी का अर्थ होता है – ऐसा व्यक्ति जिसने अपने कर्तव्य की अवहेलना
करके निजी स्वार्थ के लिये कुछ ऐसे कार्य किए हैं, जिनकी उससे अपेक्षा नहीं
थी।
भ्रष्टाचार की परिभाषा
सेन्चूरिया के अनुसार, “किसी भी राजनीतिक कार्य का भावना एवं परिस्थितियों के आधार पर
परीक्षण करने के पश्चात यदि समकालीन सिद्च्छा एवं राजनीतिक नैतिकता के
तर्क इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि व्यक्तिगत हितों के लिए सार्वजनिक हितों को
बलिदान किया गया है तो निश्चित रूप से वह कार्य राजनीतिक भ्रष्टाचार का
अंग है।”
(David H. Bayley) कहते हैं कि “भ्रष्टाचार एक
सामान्य शब्दावली है जिसमें अपने व्यक्तिगत लाभ के विचार के परिणामस्वरूप
सत्ता का दुरुपयोग भी आता है, जो जरूरी नहीं धन-संबंधी हो।”
सार्वजनिक भूमिका के औपचारिक कर्त्तव्यों से निजी (व्यक्तिगत, निकट परिवार,
निजी गुट) आर्थिक लाभ या स्तरीय लाभ के कारण विचलित हो जाता है, या
कुछ प्रकार के निजी प्रभावों से प्रभावित हो कर नियमों का उल्लंघन करता है, भ्रष्टाचार कहलाता है”।
भ्रष्टाचार के प्रकार
1. राजनीतिक भ्रष्टाचार-गत वर्षों में राजनीतिक भ्रष्टाचार अधिक दिखाई देने लगा है। अनेक आयोग नियुक्त किये गये हैं और अनेक दोषी भी पाए गये है। चारा घोटाला, बोफोर्स घोटाला, शेयर घोटाला, तेलगी काण्ड ये सभी भ्रष्टाचार के बड़े प्रकरण रहे हैं। भ्रष्टाचार के इन प्रकरणों में कई राजनेता भी सम्मिलित रहे हैं लेकिन उन्हें दोषी नहीं माना जाता, उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आती है। नेता सेवा की भावना से कार्य नहीं करते, अपितु सत्ता प्राप्ति के लिए देशसेवा का ढोंग रचते हैं। सिद्धान्तहीनता, राजनीतिक, विचारधाराओं में सर्वत्र व्याप्त है। दल-बदल भ्रष्टाचार का एक जग-विदित उदाहरण है। राजकार्यों में धोख, छल, झूठ, विश्वासघात, अविश्वास, हत्या, भ्रष्टाचार आदि दुर्गुण अनेक रूपों में विद्यमान हैं।
2. आर्थिक जीवन में भ्रष्टाचार-आर्थिक जीवन में भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं में मिलावट, बन्द पैकिट में वस्तु की अनुपस्थिति, लेबिल कुछ तो सामान कुछ, मूल्यों में अनुचित वृद्धि, कृत्रिम अभाव उत्पन्न कर अधिक लाभ कमाना, थोड़े-से स्वार्थ के लिए झूठ बोल देना आदि विभिन्न रूपों में भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। सरकारी विभाग भ्रष्टाचार के अड्डे बन चुके है। कर्मचारी मौका पाते ही अनुचित लाभ उठाने से नहीं चूकते।
3. सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार-सामाजिक जीवन में भी भ्रष्टाचार बढ़-चढ़कर व्याप्त है। रोजाना बलात्कार, चोरी, हत्या, धोखा, अपहरण, अवैध सम्बन्धों की चर्चा, विवाह विच्छेद, नारी अपमान, अस्पृश्यता की समस्या, बच्चों से यौनाचार, बच्चों की हत्या आदि सामाजिक जीवन के भ्रष्टाचार हैं। सम्पूर्ण समाज भ्रष्टाचार की पकड़ में है। धार्मिक संस्थाओं की सम्पत्ति का उपभोग, भगवान् को धोखा देना, दान की वस्तु का दुरूपयोग करना अनेक ऐसे कार्य हैं जो सामाजिक भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते हैं।
भ्रष्टाचार के कुछ अनिवार्य तत्व
- यह एक लोक-अधिकारी द्वारा अपनी स्थिति, स्तर अथवा संसाधनों का
जानबूझ कर या ऐच्छिक दुरुपयोग है। - यह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में किया जा सकता है।
- यह अपने निजी स्वार्थ या लाभ को बढ़ाने के लिये किया जाता है, चाहे
वह आर्थिक लाभ हो या शक्ति, सम्मान या प्रभाव को बढ़ाना हो। - यह व्यवहार के विधिवत, मान्य अथवा सामान्य स्वीकृत नियमों का
उल्लंघन करके किया जाता है। - यह समाज या अन्य व्यक्तियों के हितों के प्रतिकूल किया जाता है।
आजादी के पूर्व भारतीयों ने स्वतन्त्र भारत के लिए अनेक सपने संजोये
थे। उनमें से उनका एक प्रमुख सपना भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था तथा
समाज का भी था परन्तु दुर्भाग्यवष उनका यह सपना महज सपना ही है। यह
एक कटु सत्य है कि जैसे-जैसे नैतिकतापूर्ण, भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था
तथा समाज निर्माण की ओर बढने के प्रयास किये जा रहे हैं वैसे-वैसे समाज
में भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता के नये-नये रूप में नित नये कीर्तिमान भी स्थापित
हो रहे हैं।
भ्रष्ट आचरण, इसके अन्तर्गत वह सभी भ्रष्ट
आचरण में आते हैं जो नैतिकता के विरुद्ध होते हैं, अर्थात् कोई भी ऐसा व्यवहार
जो लोकाचार अथवा सदाचार के विपरीत है, वस्तुत: यह भ्रष्टाचार है। कदाचार,
दुराचार, स्वेच्छाचार, मिथ्याचार, छल-छद्म, अत्याचार, अन्याय, पक्षपात, पाखण्ड,
रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, गबन, तस्करी, विश्वासघात, देशद्रोह, व्यभिचार,
आदि सब भ्रष्टाचार के ही वंशज हैं।
भ्रष्टाचार का स्तर और प्रकार परिस्थितियों अथवा संस्कृतियों पर निर्भर
करता है। लेकिन बेईमानी स्वत: भ्रष्टाचार की मूल अवस्था है, जो भ्रष्ट आचरण
से भ्रष्ट व्यवस्था को जन्म देती है।
भ्रष्टाचार के कारण
धन लिप्सा- धनलिप्सा की वृद्धि ने आज आर्थिक क्षेत्र में कालाबाजारी, मुनाफाखोरी, रिश्वतखोरी आदि को बढ़ावा दिया है। अनुचित तरीकों से धन-संग्रह किया जा रहा हैं नौकरीपेशा व्यक्ति अपने सेवाकाल में इतना धन अर्जित कर लेना चाहता है जिससे अवकाश प्राप्ति के बाद का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो सके। व्यापारी वर्ग ये सोचता है कि न जानें कब घाटे की स्थिति आ जाये? सरकार की नीति में कौन-सा परिवर्तन आ जाये? इसलिए व्यक्ति अपनी तिजोरी भरने में लग जाता हैं कभी-कभी जीवन-यापन के पर्याप्त साधन न होने के कारण भी मनुष्य विवश होकर, धनोपार्जन के लिए अनुचित साधनों का प्रयोग करने लगता है।
भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उपाय
कानून से भी भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है। कानून और व्यवस्था इस प्रकार स्थापित की जाये कि लोग उसके शिकंजे से बच न पाएँ। सर्वोत्तम उपाय तो भ्रष्ट लोगों की मनोवृति को बदलना है।