भ्रष्टाचार का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं अनिवार्य तत्व

भ्रष्टाचार शब्द का क्या अर्थ लगाते हैं या उसके किस रूप पर विचार करते हैं? सामान्य: भ्रष्टाचार का अर्थ भ्रष्ट आचरण से लिया जाता है। भ्रष्टाचार के अर्थ समझे जाते हैं- जिसका आचार एवं विचार बिगड़ गया हो। या वह स्थिति, जिसमे अधिकारी तथा कर्मचारी विहित कर्तव्यों का पालन निष्ठापूर्वक, भली-भाँति और समय पर नहीं करते, बल्कि मनमाने ढंग से, विलम्ब से तथा अनुचित रूप से करते हैं। इत्यादि रूप भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते हैं। 
भ्रष्टाचार सदैव किसी स्पष्ट अथवा अस्पष्ट लाभ के लिए कानून तथा समाज के विरोध में किया जाने वाला कार्य है। भ्रष्टाचारी व्यक्ति सहयोग, सेवा-कर्तव्य और नियम-कानून के प्रति निष्ठा की भावना को तिलांजलि देकर
केवल अपने ही स्वार्थों की अधिकतम पूर्ति में लगा रहता है। भारतीय सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार की रूपरेखा जानने के लिए हमें अनेक विभिन्न रूपों को भी जानना होगा, यथा- उद्योगपतियों में भ्रष्टाचार, ठेकेदारों में भ्रष्टाचार, प्रतिष्ठित व्यापारी वर्ग में भ्रष्टाचार, सरकारी अधिकारी एवं भ्रष्टाचार, वकील और भ्रष्टाचार,शैक्षिक संस्थाऐं एवं भ्रष्टाचार,डाॅक्टर और भ्रष्टाचार,राजनीति और भ्रष्टाचार। 

भ्रष्टाचार का अर्थ

भ्रष्टाचार “भ्रष्ट और आचरण” दो पदों के योग से बना है। भ्रष्टाचार शब्द का अर्थ है – निकृष्ट आचरण अथवा बिगड़ा हुआ आचरण। भ्रष्टाचार सदाचार का विलोम और कदाचार का समानार्थी माना जाता हे। नीति न्याय, सत्य, ईमानदारी आदि मौलिक और सात्विक वृत्तियों स्वार्थ, असत्य और बेईमानी से सम्बन्धित सभी कार्य भ्रष्टाचार से सम्बन्धित हैं। भ्रष्टाचार संस्कृत भाषा के दो शब्द “भ्रष्ट” और “आचार” से मिलकर बना
है। “भ्रष्ट” का अर्थ होता है – निम्न, गिरा हुआ, पतित, जिसमें अपने कर्त्तव्य को
छोड़ दिया है तथा “आचार” शब्द का अर्थ होता है आचरण, चरित्र, चाल, चलन,
व्यवहार आदि। अत: भ्रष्टाचार का अर्थ है – गिरा आचरण अथवा चरित्र और
भ्रष्टाचारी का अर्थ होता है – ऐसा व्यक्ति जिसने अपने कर्तव्य की अवहेलना
करके निजी स्वार्थ के लिये कुछ ऐसे कार्य किए हैं, जिनकी उससे अपेक्षा नहीं
थी। 

भ्रष्टाचार की परिभाषा

सेन्चूरिया के अनुसार, “किसी भी राजनीतिक कार्य का भावना एवं परिस्थितियों के आधार पर
परीक्षण करने के पश्चात यदि समकालीन सिद्च्छा एवं राजनीतिक नैतिकता के
तर्क इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि व्यक्तिगत हितों के लिए सार्वजनिक हितों को
बलिदान किया गया है तो निश्चित रूप से वह कार्य राजनीतिक भ्रष्टाचार का
अंग है।”

(David H. Bayley) कहते हैं कि “भ्रष्टाचार एक
सामान्य शब्दावली है जिसमें अपने व्यक्तिगत लाभ के विचार के परिणामस्वरूप
सत्ता का दुरुपयोग भी आता है, जो जरूरी नहीं धन-संबंधी हो।” 

(J.S. Nye) भ्रष्टाचार की परिभाषा इस प्रकार करते हैं, “ऐसा व्यवहार जो एक
सार्वजनिक भूमिका के औपचारिक कर्त्तव्यों से निजी (व्यक्तिगत, निकट परिवार,
निजी गुट) आर्थिक लाभ या स्तरीय लाभ के कारण विचलित हो जाता है, या
कुछ प्रकार के निजी प्रभावों से प्रभावित हो कर नियमों का उल्लंघन करता है, भ्रष्टाचार कहलाता है”। 
भारतीय दण्ड संहिता के अध्याय-9 में भ्रष्टाचार को विस्तृत रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें उपबन्धित धारा 161 प्रमुखत: लोक सेवकों में भ्रष्टाचार से संबंधित है, जिनकी परिधि में घूस अथवा रिश्वत और सहवर्ती अपराध, विधि विरुद्ध कार्य एवं लोक सेवकों के प्रतिरूपण संबंधी कार्य आते हैं। धारा 161 में उपबन्धित है कि वह व्यक्ति भ्रष्टाचार का दोषी माना जायेगा जो कोई लोक सेवक होते हुए या होने को प्रत्यक्ष रखते हुए वैध पारिश्रमिक से भिन्न किसी प्रकार का भी परितोशण इस बात को करने के लिए या इनाम के रूप में किसी व्यक्ति से प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करेगा या प्रतिगृहीत करने को सहमत होगा या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करने का प्रयास करेगा कि वह लोक सेवक अपना कोई पदीय कार्य करे या प्रवृत्त रहें अथवा किसी व्यक्ति को अपने पदीय कृत्यों के प्रयोग में कोई अनुग्रह दिखाये या दिखाने से प्रवृत्त रहें अथवा केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या संसद या किसी राज्य के विधानमण्डल में या किसी लोक सेवक के यहाँ उसको वैसी हैसियत में किसी व्यक्ति का कोई उपकार या अपकार करे या करने का प्रयत्न करें।
आक्सफोर्ड शब्दकोश में भ्रष्टाचार का अर्थ निम्न प्रकार से बताया गया है। ‘रिश्वत अथवा अवैधानिक और अनुपयुक्त साधनों से गलत या अनैतिक कार्य की ओर उन्मुख होना, तथा सही और नैतिक कार्यो से विरक्त होना भ्रष्टाचार है।’ 
इस कथन में जहाँ भ्रष्टाचार को अनैतिकता से जोड़ा गया है, वहाँ अनैतिकता भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है। इसलिए भ्रष्टाचार को सही अर्थो में समझने के लिए नैतिकता को समझना अनिवार्य प्रतीत होता है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे का वक्तव्य ‘‘जिस काम को करने के बाद आप सुखद अनुभव करें वह नैतिक, और जिसे करने के बाद आप बुरा अनुभव या महसूस करते हैं, वह अनैतिक है।’’ यहाँ पर हेमिंग्वे का सुख सम्बन्धी कथन भौतिक सुख नहीं बल्कि आत्मिक सुख को प्रतिध्वनित करता है। यह आत्मिक सुख स्वहित नहीं बल्कि पर-हित एवं सार्वजनिक हित सम्बन्धी कार्यो को सम्पन्न कर के प्राप्त किया जा सकता है।
समाजशास्त्री ‘रार्बट बु्रम्स’ ने भी भ्रष्टाचार को परिभाषित करते हुए कहा कि ‘‘इसमें किसी मूर्त या अमूर्त लाभ के लिए किये जाने वाले गैर-कानूनी कार्य सम्मिलित होते है।’’ 
उपर्युक्त कथनों एवं परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार, ऐसे गिरे हुए आचरण को कहा जाना चाहिए जो कानूनी एवं नैतिक दृष्टि से गलत हो, नैतिक दृष्टि का तात्पर्य पर हित या सार्वजनिक हित से है, अपने पद की शक्तियों की दुरुपयोग करते हुए (ये शक्ति किसी भी प्रकार की हो सकती है) व्यक्तिगत, या चहेतो को लाभ पहुँचाना भ्रष्टाचार की श्रेणी के अन्तर्गत आता है।

भ्रष्टाचार के प्रकार

1. राजनीतिक भ्रष्टाचार-गत वर्षों में राजनीतिक भ्रष्टाचार अधिक दिखाई देने लगा है। अनेक आयोग नियुक्त किये गये हैं और अनेक दोषी भी पाए गये है। चारा घोटाला, बोफोर्स घोटाला, शेयर घोटाला, तेलगी काण्ड ये सभी भ्रष्टाचार के बड़े प्रकरण रहे हैं। भ्रष्टाचार के इन प्रकरणों में कई राजनेता भी सम्मिलित रहे हैं लेकिन उन्हें दोषी नहीं माना जाता, उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आती है। नेता सेवा की भावना से कार्य नहीं करते, अपितु सत्ता प्राप्ति के लिए देशसेवा का ढोंग रचते हैं। सिद्धान्तहीनता, राजनीतिक, विचारधाराओं में सर्वत्र व्याप्त है। दल-बदल भ्रष्टाचार का एक जग-विदित उदाहरण है। राजकार्यों में धोख, छल, झूठ, विश्वासघात, अविश्वास, हत्या, भ्रष्टाचार आदि दुर्गुण अनेक रूपों में विद्यमान हैं।

2. आर्थिक जीवन में भ्रष्टाचार-आर्थिक जीवन में भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं में मिलावट, बन्द पैकिट में वस्तु की अनुपस्थिति, लेबिल कुछ तो सामान कुछ, मूल्यों में अनुचित वृद्धि, कृत्रिम अभाव उत्पन्न कर अधिक लाभ कमाना, थोड़े-से स्वार्थ के लिए झूठ बोल देना आदि विभिन्न रूपों में भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। सरकारी विभाग भ्रष्टाचार के अड्डे बन चुके है। कर्मचारी मौका पाते ही अनुचित लाभ उठाने से नहीं चूकते।

3. सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार-सामाजिक जीवन में भी भ्रष्टाचार बढ़-चढ़कर व्याप्त है। रोजाना बलात्कार, चोरी, हत्या, धोखा, अपहरण, अवैध सम्बन्धों की चर्चा, विवाह विच्छेद, नारी अपमान, अस्पृश्यता की समस्या, बच्चों से यौनाचार, बच्चों की हत्या आदि सामाजिक जीवन के भ्रष्टाचार हैं। सम्पूर्ण समाज भ्रष्टाचार की पकड़ में है। धार्मिक संस्थाओं की सम्पत्ति का उपभोग, भगवान् को धोखा देना, दान की वस्तु का दुरूपयोग करना अनेक ऐसे कार्य हैं जो सामाजिक भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते हैं।

भ्रष्टाचार के कुछ अनिवार्य तत्व

  1. यह एक लोक-अधिकारी द्वारा अपनी स्थिति, स्तर अथवा संसाधनों का
    जानबूझ कर या ऐच्छिक दुरुपयोग है।
  2. यह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में किया जा सकता है। 
  3. यह अपने निजी स्वार्थ या लाभ को बढ़ाने के लिये किया जाता है, चाहे
    वह आर्थिक लाभ हो या शक्ति, सम्मान या प्रभाव को बढ़ाना हो। 
  4. यह व्यवहार के विधिवत, मान्य अथवा सामान्य स्वीकृत नियमों का
    उल्लंघन करके किया जाता है। 
  5. यह समाज या अन्य व्यक्तियों के हितों के प्रतिकूल किया जाता है।

    आजादी के पूर्व भारतीयों ने स्वतन्त्र भारत के लिए अनेक सपने संजोये
    थे। उनमें से उनका एक प्रमुख सपना भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था तथा
    समाज का भी था परन्तु दुर्भाग्यवष उनका यह सपना महज सपना ही है। यह
    एक कटु सत्य है कि जैसे-जैसे नैतिकतापूर्ण, भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था
    तथा समाज निर्माण की ओर बढने के प्रयास किये जा रहे हैं वैसे-वैसे समाज
    में भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता के नये-नये रूप में नित नये कीर्तिमान भी स्थापित
    हो रहे हैं।

भ्रष्ट आचरण, इसके अन्तर्गत वह सभी भ्रष्ट
आचरण में आते हैं जो नैतिकता के विरुद्ध होते हैं, अर्थात् कोई भी ऐसा व्यवहार
जो लोकाचार अथवा सदाचार के विपरीत है, वस्तुत: यह भ्रष्टाचार है। कदाचार,
दुराचार, स्वेच्छाचार, मिथ्याचार, छल-छद्म, अत्याचार, अन्याय, पक्षपात, पाखण्ड,
रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, गबन, तस्करी, विश्वासघात, देशद्रोह, व्यभिचार,
आदि सब भ्रष्टाचार के ही वंशज हैं।

भ्रष्टाचार का स्तर और प्रकार परिस्थितियों अथवा संस्कृतियों पर निर्भर
करता है। लेकिन बेईमानी स्वत: भ्रष्टाचार की मूल अवस्था है, जो भ्रष्ट आचरण
से भ्रष्ट व्यवस्था को जन्म देती है। 

भ्रष्टाचार के कारण

मनुष्य को भ्रष्टाचार कब अपनाना पड़ता है और क्यों वह भ्रष्टाचारी बन जाता हैं- उसके अनेक कारण हैं। मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त हैं जिनकी पूर्ति के लिए वह सदैव से ही प्रयत्न करता आया है। यदि किसी आवश्यकता को पूर्ण करने में उचित माध्यम सफल नहीं होता है तो वह अनुचित माध्यम से उसकी पूर्ति का सफल-असफल प्रयोग करता पाया जाता है। अपने प्रियजनों को लाभ पहुँचाने की इच्छा ने भी उचित-अनुचित साधनों का खुलकर प्रयोग करने को विवश कर दिया है। आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार व्याप्त है।

धन लिप्सा- धनलिप्सा की वृद्धि ने आज आर्थिक क्षेत्र में कालाबाजारी, मुनाफाखोरी, रिश्वतखोरी आदि को बढ़ावा दिया है। अनुचित तरीकों से धन-संग्रह किया जा रहा हैं नौकरीपेशा व्यक्ति अपने सेवाकाल में इतना धन अर्जित कर लेना चाहता है जिससे अवकाश प्राप्ति के बाद का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो सके। व्यापारी वर्ग ये सोचता है कि न जानें कब घाटे की स्थिति आ जाये? सरकार की नीति में कौन-सा परिवर्तन आ जाये? इसलिए व्यक्ति अपनी तिजोरी भरने में लग जाता हैं कभी-कभी जीवन-यापन के पर्याप्त साधन न होने के कारण भी मनुष्य विवश होकर, धनोपार्जन के लिए अनुचित साधनों का प्रयोग करने लगता है।

भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उपाय

यद्यपि भ्रष्टाचार को समूल नष्ट नहीं किया जा सकता, किन्तु कम तो किया जा सकता है। जीवन मूल्यों को पहचानने का प्रयत्न करके उनके यथावत् पालन का दृढ़ संकल्प किया जाये। भ्रष्टाचार को मिटाने में धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं का सहयोग अवश्य लेना चाहिए। सच्चे धार्मिक आचरण वाले पुरूषों का सम्मान किया जाना चाहिये, समाज सुधारक इस कार्य में उपयोगी सिद्ध हो सकते है। नैतिक शिक्षा का विस्तार किया जाना चाहिए।

कानून से भी भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है। कानून और व्यवस्था इस प्रकार स्थापित की जाये कि लोग उसके शिकंजे से बच न पाएँ। सर्वोत्तम उपाय तो भ्रष्ट लोगों की मनोवृति को बदलना है।

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