मुख्यमंत्री की शक्तियां और कार्य

संवैधानिक रूप में और कानूनी रूप में मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्य के राज्यपाल के द्वारा की जाती है। संविधान का अनुच्छेद 164 (1) घोषणा करता है कि मुख्यमंत्री राज्यपाल के द्वारा नियुक्त किया जाएगा। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करने के लिए स्वतंत्र होता है वास्तव में राज्यपाल के पास आमतौर पर कोई विकल्प नहीं होता क्योंकि चुनावों के पश्चात जो दल राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त करता है वह अपना नेता निर्वाचित करता है और इसकी सूचना राज्यपाल को देता है। इस पर राज्यपाल औपचारिक रूप में उसको सरकार बनाने का न्यौता देता है, उसको मुख्यमंत्री मनोनीत करता है और उसको अपनी सरकार (मन्त्रि-परिषद) संगठित करने के लिए कहता है। 

उदाहरण के रूप में 2005 में हरियाणा विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ और उसके नेता श्री भूपेन्द्र ¯सह हुड्डा को हरियाणा के गवर्नर ने मुख्य-मन्त्री नियुक्त कर दिया और उसने अपनी मंत्रि-परिषद का गठन किया। राज्य विधान सभाओं के आम चुनावों के पश्चात प्रत्येक राज्य का गवर्नर ऐसा ही व्यवहार अपनाता है। राज्यपाल के द्वारा एक राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त करने के संबंध में यह व्यवहार एक हुई परम्परा बन गई है और राज्यपाल विधानपालिका में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही मुख्यमंत्री नियुक्त करता है।

परन्तु जब, किसी भी दल को राज्य विधानसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो सामान्य रूप में राज्यपाल सबसे बड़े दल के नेता को सरकार बनाने का न्यौता देता है। अधिकतर मुद्दों में यदि एक दल को राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त नहीं होता, तो दो या तीन दल मिलकर साझा मोर्चा या साझा समूह या गठबन्धन बना लेते हैं। इसके पश्चात् यह गठबन्धन समूह नेता चुनता है और राज्यपाल को उसके नाम की सूचना दे देता है। इस पर राज्यपाल इसको सरकार बनाने का न्यौता देतो है। ऐसी स्थिति में राज्यपाल मुख्यमंत्री का चुनाव में कुछ स्व-विवेक अधिकार रखता है। 

उदाहरण के लिए जब नवम्बर, 1967 में लक्ष्मण ¯सह गिल के नेतृत्व में 16 अकाली विधायक दल बदली कर गए तो पद मुक्त हो रहे मुख्यमंत्री गुरनाम ¯सह ने राज्यपाल को मन्त्रिपरिषद् भंग करने की सिफारिश की परन्तु राज्यपाले ने यह सिफारिश स्वीकार न की और अल्प-संख्या समूह के नेता लक्ष्मण ¯सह गिल को सरकार बनाने का निमन्त्रण दिया। इसी प्रकार जब जून 1971 में कुछ अकाली विधायक बादल सरकार से दल बदली कर गए तो उस समय के मुख्यमंत्री प्रकाश ¯सह बादल ने राज्य विधानसभा भंग करने की सिफारिश की। परन्तु दूसरी ओर गुरनाम ¯सह ने दावा किया कि उसको दल-बदली करके आए विधायकों और कांग्रेस पार्टी का समर्थन प्राप्त था। उसने दावा किया कि उसको विधानसभा में बहुमत प्राप्त था और राज्यपाल का प्रार्थना की कि उसको मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाए। परन्तु राज्यपाल ने उसके दावे को स्वीकार न किया। 

1967 के साधारण चुनावों के पश्चात् बहुत-से राज्यों के राज्यपालों ने राज्य सरकारें स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभार्इं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अलग-अलग राज्यपालों ने अलग-अलग ढंग अपनाए। राज्यपाल के द्वारा अनोखा ढंग अपनाने का एक उदाहरण यू पी के राज्यपाल रमेश भंडारी का दिया जा सकता है जिसने यू पी राज्य विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा को बहुमत सिद्व करने का अवसर न देकर पक्षपाती ढंग से सरकार बनाने का निर्णय किया।

ऐसे, कुछ ऐसे अवसरों को छोड़ कर जैसा कि त्रिशंकु विधानसभा अस्तित्व में आए जब दल बदली/पार्टियों में विभाजनों के कारण राज्य में राजनैतिक अस्थिरता वाली स्थिति हो, राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति में वास्तविक भूमिका निभा सकता है। सामान्य रूप में उसको राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टी/समूह के नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त करना पड़ता है। यहां तक कि जब बहुमत वाले दल उस व्यक्ति को अपना नेता चुन लेते हैं जो किसी भी सदन का सदस्य नहीं होता तो राज्यपाल को उस नेता को ही मुख्यमंत्री नियुक्त करना पड़ता है। 

1980 में ए आर अंतुले और जगन्नाथ पहाड़िया को क्रमवार गुजरात और राजस्थान का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया जबकि दोनों राज्य विधानपालिकाओं के सदस्य नहीं थे। राज्यपाल अस्थिर स्थिति या संकट समय मुख्यमंत्री का चुनाव करते समय अपने स्वैच्छिक अधिकार का प्रयोग कर सकता है।

मुख्यमंत्री का कार्यकाल

सैद्वान्तिक रूप में एक मुख्यमंत्री तब तक अपने पद पर रहता है, जब तक राज्यपाल उसको उस पद पर रखना चाहता है। परन्तु, वास्तविक व्यवहार में मख्यमन्त्री तब तक अपने पद पर बना रहता है जब तक कि वह राज्य विधानसभा में बहुमत वाले दल/समूह का नेता बना रहता हैं यदि उससे बहुमत का समर्थन समाप्त हो जाए तो राज्यपाल उसको पद से हटा सकता है। राज्य विधानसभा उसके विरूद्व अविश्वास का प्रस्ताव पास किया समझा जाता है और मंत्रि-परिषद को तुरंत त्याग-पत्र देना पड़ता है। 

दूसरे शब्दों में, मुख्यमंत्री के त्याग-पत्र को या विधानसभा के द्वारा मुख्यमंत्री को अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा हटाए जाने को सम्पूर्ण मंत्रि-परिषद को हटाया जाना माना जाता है। और पूर्ण मंत्रि-परिषद एक टीम की तरह व्यवहार करते हुए अपना त्याग-पत्र दे देती हैं एक बार नियुक्त होने के पश्चात् मुख्यमंत्री अधिक-से-अधिक 5 वर्ष तक ;राज्य विधानसभा के कार्यकाल तकद्ध मुख्यमंत्री बना रह सकता है, बशर्ते कि उसको राज्य विधानसभा में निरन्तर बहुमत का समर्थन प्राप्त रहे। यदि नए चुनावों के पश्चात् मुख्यमंत्री का राजनीतिक दल पुन: बहुमत प्राप्त कर लेता है तो भी मुख्यमंत्री की नियुक्ति पुन: की जाती है। 

इसका अर्थ यह हुआ कि मुख्यमंत्री के पद का कार्यकाल पांच वर्ष होता है परन्तु वह बार-बार मुख्यमंत्री बन सकता है यदि उसके दल को विधानसभा में बार-बार बहुमत मिले और उसका दल उसको बार-बार अपने नेता निर्वाचित कर ले। श्री ज्योति बसु लगभग 25 से अधिक वर्षों तक पश्चिमी बंगाल के मुख्यमंत्री बने रहे क्योंकि पश्चिमी बंगाल की राज्य-विधानसभा में सी पी एम गठबंधन के मुख्यमंत्री बने रहे क्योंकि पश्चिमी बंगाल की राज्य-विधानसभा में सी पी एम गठबंधन को बार-बार बहुमत प्राप्त होता रहा और बार बार इस गठबंधन ने श्री ज्योति बसु को अपना नेता निर्वाचित किया था।

मुख्यमंत्री की शक्तियां और कार्य

राज्य के मुख्यमंत्री को कानूनी रूप में कम और व्यावहारिक रूप में बहुत व्यापक शक्तियों मिली हुई हैं। वह राज्य की सरकार का वास्तविक कार्यपालिका मुखिया होता है। मुख्यमंत्री की शक्तियों और कार्यों का निम्नलिखित शीर्षकों के अधीन वर्णन किया जा सकता है:

1. मंत्रि-परिषद का निर्माण

मुख्यमंत्री को अपनी इच्छा की मंत्रि-परिषद निर्मित करने की शक्ति प्राप्त है। संविधान उसको कानूनी रूप में अपनी इच्छा के मन्त्री चयन करने का अधिकार देता है। संविधान का अनुच्छेद 164 (1) यह व्यवस्था करता है कि, फ्दूसरे मन्त्री मुख्यमंत्री की सिपफारिश पर राज्यपाल के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। मुख्यमंत्री, विशेष रूप में तब जब उसके दल को राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त हो, अपनी इच्छा के मन्त्री चुनने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है। वह किसी भी सदस्य या गैर-सदस्य को मन्त्री नियुक्त कर सकता है और उसको कोई भी विभाग दे सकता है। अब दल-बदली कानून के द्वारा यह निर्धारित किया जाता है कि उसकी मन्त्रिपरिषद् में विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के 15% से अधिक मन्त्री नहीं हो सकते। इसके साथ-साथ बहुत-सी व्यावहारिक सीमाएँ भी विद्यमान हैं। 

मन्त्री का चुनाव करते समय उसको कई प्रकार के पहलुओं का ध्यान में रखना पड़ता हैं उसको राज्य के अलग-अलग वर्गों को भी प्रतिनिधित्व देना पड़ता है। इसी प्रकार एक या दो मन्त्री अनुसूचित जातियों में से भी लेने पड़ते हैं। इसे बढ़कर बात यह कि मुख्यमंत्री अपनी दल या भागीदार दलों के प्रमुख नेताओं के दावों की अवहेलना नहीं कर सकता। कुछ मुद्दों में उसको उस व्यक्ति को भी मन्त्री बनान पड़ता है जोकि राज्य की विधानपालिका का सदस्य नहीं होता। ऐसे मन्त्री को 6 महीनों के भीतर राज्य की विधानपालिका का सदस्य बनाना पड़ता है। साझी सरकार अथवा गठबन्धन सरकार की परिस्थिति में मुख्यमंत्री को गठबन्धन में शामिल अलग-अलग के दलों के नेताओं को मन्त्री बनाना पड़ता है। 

अधिकतर भागीदार दलों के मन्त्री संबंधित दलों के द्वारा ही चुने जाते हैं और मुख्यमंत्री उनको अपनी सरकार में ले लेता है। राज्य के राज्यपाल की सरकार बनाने में कोई विशेष भूमिका नहीं होती। यह मुख्यमंत्री की इच्छा पर ही निर्भर होती है।

2. मन्त्रियों को विभागों का बंटवारा करना

मन्त्रियों की नियुक्ति के पश्चात् मुख्यमंत्री के सामने जो महत्त्वपूर्ण कार्य होता है, वह है अपने साथी मन्त्रियों में विभागों का बंटवारा करना। वह यह निर्णय करता है कि कौन केबिनेट मन्त्री होगा, कौन राज्य मन्त्री और कौन-सा उप-मन्त्री होगा। यह विभागों का बंटवारा करता है। ऐसा करते समय उसको अपने मन्त्रियों की वरिष्ठता और राजनीतिक दर्जे को ध्यान में रखना पड़ता है। वित्त विभाग जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग बांटते समय पूर्ण सुयोग्य व्यक्तियों का चुनाव करना पड़ता है। कुछ विभाग वह अपने पास रखता है। यदि मुख्यमंत्री चाहे तो वह मन्त्रियों के विभागों में कभी भी पेफर-बदल कर सकता है।

मुख्यमंत्री को जब भी वह चाहे, अपने मन्त्रिपरिषद् के पुनर्गठन का भी अधिकार होता है। वह राज्य का प्रशासन व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए अपने मन्त्रियों की टीम को बदल सकता है। वह किसी भी मन्त्री को त्याग-पत्र देने के लिए कह सकता है। वास्तव में इस संबंध में मुख्यमंत्री को अपना मत केवल प्रकट ही करना होता है और संबंधित मन्त्री अपना त्याग-पत्र पेश कर देता है। यदि मन्त्री उसकी नहीं मानता और अपनी इच्छा प्रकट करता है। तो मुख्यमंत्री अपना त्याग-पत्र देकर समस्त मंत्रि-परिषद में फेर-बदल कर सकता है और फिर नई मंत्रि-परिषद बना सकता है। 

मुख्यमंत्री मन्त्रिपरिषद् का वास्तविक निर्माता, परिवर्तन कर्ता और उसको भंग करने वाला होता है। वह किसी मन्त्री को राज्यपाल के द्वारा पद से अलग ही करवा सकता है। मंत्री मुख्यमंत्री की इच्छा के अनुसार ही कार्य करते हैं।

3. मंत्रि-परिषद का अध्यक्ष

मंत्रि-परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता राज्यपाल नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री करता है। मुख्यमंत्री मन्त्रिपरिषद् की प्रत्येक बैठक का एजेंडा तैयार करता है और इसकी सूचना मन्त्रियों को दे देता है। वह केबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करता है। उसको किसी भी समय केबिनेट की बैठक आमन्त्रित करने का अधिकार होता है। बैठक का अध्यक्ष होने के नाते वह बैठक में होने वाले विचार-विमर्श और लिए जाने वाले निर्णयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राज्य केबिनेट के प्रत्येक निर्णय पर उसके विचारों, सोच और धारणाओं की छाप होती है। वह त्याग-पत्र देने की धमकी देकर किसी भी निर्णय को वीटो कर सकता है। वास्तव में मन्त्री कभी भी उसको नाराज नहीं करना चाहते।

4. राज्यपाल और मंत्रि-परिषद के बीच मुख्य सम्पर्क सूत्र

मुख्यमंत्री राज्यपाल और मंत्रि-परिषद के बीच मुख्य सम्पक्र सूत्र होता है। यह उसका कर्तव्य होता है कि वह राज्य के प्रशासन और कानून बनाने के प्रस्तावों के संबंध में मंत्रि-परिषद के सभी निर्णयों की सूचना राज्यपाल को दे। उसको प्रशासन और कानूनी प्रस्तावों से संबंधित ऐसी समस्त जानकारी देनी पड़ती है जिसकी राज्यपाल के द्वारा मांग की जाए। उसको किसी भी उस मुद्दे को मंत्रि-परिषद में विचार के लिए रखना पड़ता है जिससे संबंधित किसी मन्त्री ने व्यक्तिगत रूप में निर्णय लिया हो और राज्यपाल चाहता हो कि इसको समस्त मंत्रि-परिषद के सामने रखा जाए। राज्यपाल शेष मन्त्रियों की अपेक्षा मुख्यमंत्री के परामर्श और सिफारिश को प्राथमिकता देता है। वास्तव में शेष मन्त्री मुख्यमंत्री के परामर्श से ही राज्यपाल को मिलते हैं।

5. मुख्य ताल-मेल कर्ता के रूप में भूमिका

मुख्यमंत्री का यह उत्तरदायित्व है कि वह सरकार के अलग-अलग विभागों में कार्य में तालमेल रखे। उसको यह विश्वसनीय बनाना पड़ता है कि सभी मन्त्री एक टीम के रूप में कार्य करें और एक-दूसरे की सहायता करें। यह उसका कर्त्तव्य होता है कि वह यह देखे कि सरकार का कोई भी एक विभाग दूसरे विभाग के कार्य को हानि न पहुंचाए। उसको यह भी विश्वसनीय बनाना पड़ता है कि सरकार के सभी विभाग एक टीम के रूप में कार्य करें और राज्य के हित में एक-दूसरे की सहायता को आएं। 

वह दो या इससे अधिक विभागों में किसी भी टकरावा या झगड़े का समाधान करता है। उसके निर्णय उसके मन्त्रियों के निर्णयों के स्थान ले लेते हैं। यदि किसी मन्त्री और मुख्यमंत्री में असहमति बनी रहती है तो संबंधित मन्त्री को त्याग पत्र देना पड़ता है।

6. राज्य विधानसभा के नेता के रूप में भूमिका

मुख्यमंत्री न केवल अपने दल का बल्कि राज्य विधानसभा का भी नेता होता है। बहुमत प्राप्त दल का नेता होने के नाते उसको यह स्तर मिलता है। इस स्थिति में वह सदन को उचित दिशा की ओर ले जाता है। वह सरकार के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में कार्य करता है और सरकार की ओर से महत्त्वपूर्ण निर्णयों और नीतियों की घोषणा करता है। यह उसका कर्तव्य है कि यदि उसके साथी केबिनेट मन्त्री को विरोधी पक्ष के सदस्य प्रश्नों से घेर लेते हैं तो वह उसकी सहायता करे। 

वह सरकार की नीतियों के पक्ष में खड़ने वाला और उनका बचाव और रक्षा करने वाला मुख्य नेता होता है। वह राज्य विधानसभा से अपने और अपने मंत्रि-परिषद के विचार स्वीकार करवाने के लिए भी अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

7. नियुक्तियां करने की शक्ति 

सभी प्रमुख नियुक्तियां और पदोन्नतियां मुख्यमंत्री की सिफारिश पर राज्यपाल के द्वारा की जाती है। मन्त्रियों को अपने सिफारिशें स्वीकार करवाने के लिए मुख्यमंत्री पर निर्भर करना पड़ता है। इस प्रकार मुख्यमंत्री सुविधाएँ प्रदान करने तथा लाभ पहुंचाने की व्यापक शक्ति रखता है।

8. राज्य विधानसभा भंग करवाने की शक्ति

मुख्यमंत्री यदि यह अनुभव करे कि राज्य सरकार को संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार नहीं चलाया जा सकता या उसके द्वारा बहुमत गंवा बैठने की संभावना है तो ऐसी परिस्थिति में वह राज्यपाल को राज्य विधानसभा भंग करने की सिपफारिश कर सकता है। सामान्य रूप में ऐसी सिपफारिश मुख्यमंत्री के द्वारा राजनीतिक स्थिति के आधर पर की जाती है। यदि मुख्यमंत्री को बहुमत का विश्वास प्राप्त हो तो राज्यपाल ऐसे परामर्श को मानने के लिए पाबंद होता है।

9. केन्द्र-राज्य संबंधों में भूमिका

राज्य प्रशासन का वास्तविक मुखिया होने के नाते मुख्यमंत्री का यह प्रमुख उत्तरदायित्व होता है कि वह केन्द्र से अच्छे संबंध बनाए रखे। उसको केन्द्रीय ग्रांट और सहायता, जोकि राज्य में विकास के कार्यों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण समझी जाती है, प्राप्त करने के लिए अपने पद का प्रयोग करना पड़ता है। केन्द्र सरकार, विशेष रूप में प्रधानमंत्री हो उसके अच्छे संबंध राज्य के लिए बहुत सहायक सिद्व हो सकते हैं। जब वह उसी दल से संबंधित हो जोकि केन्द्र में सत्ता में हो, तो वह राज्य के हितों की सुरक्षा एवं प्राप्ति के लिए अपना प्रभाव प्रयोग कर सकता है। यदि वह उस दल से संबंध नहीं रखता जोकि केन्द्र में सत्ता में है, तो उसको एक अच्छे प्रवक्ता, कई बार कठोर प्रवक्ता के रूप में कार्य करना पड़ता है जैसा कि पश्चिमी बंगाल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री ज्योति बसु करते रहे थे।

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