मौद्रिक नीति सरकार एवं केन्द्रीय बैंक द्वारा सोच समझकर उपयोग में लायी
गई मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि या कमी लाने की शक्ति है। यह शक्ति सरकार की
आर्थिक नीति के उद्देश्यों की विस्तृत रूपरेखा को ध्यान में रखकर निवेश, आय
व रोजगार को प्रभावित करने और कीमतों में स्थिरता लाने के लिये प्रयोग की
जाती है। हमारे देश में रिजर्व बैंक यह कार्य करता है। दूसरे शब्दों में मौद्रिक
नीति का आशय एक ऐसी आर्थिक नीति से है, जिसके द्वारा मुद्रा के मूल्य में
स्थायित्व हेतु मुद्रा व साख की पूर्ति का नियमन किया जाता है।
मौद्रिक नीति का अर्थ
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए मुद्रा
पर उपयुक्त नियन्त्रण रखना अति आवश्यक होता है। मुद्रा से सम्बन्धित समस्त
नीतियों को हम ‘मौद्रिक नीति’ की संज्ञा देते हैं। किसी देश के सरकारी अथवा
केन्द्रीय बैंक द्वारा अर्थव्यवस्था में विशेष आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुद्रा
की मात्रा के प्रसार तथा संकुचन के प्रबन्ध को मौद्रिक नीति कहा जाता है।
मौद्रिक नीति की परिभाषा
किया है-
पी. डी हजेला (P.D. Hajela)- के कथनानुसार, ‘‘मौद्रित नीति से अभिप्राय उन नियमों से है, जिनसे किसी देश की सरकार तथा केन्द्रीय बैंक उस देश को आर्थिक नीति के सामान्य उद्देश्यों को पूरा करते हैं।’’
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के आधार पर एक उपयुक्त परिभाषा इस
प्रकार दे सकते हैं ‘‘मौद्रिक नीति एक ऐसी नीति है जिसके अन्र्तगत सरकार
या केन्द्रीय बैंक अर्थव्यवस्था के अन्र्तगत मुद्रा को इस प्रकार नियंत्रित करते
हैं कि आर्थिक नीतियों का उद्देश्य पूरा हो सके।
मौद्रिक नीति के उद्देश्य
मौद्रिक नीति के उद्देश्य (maudrik niti ke uddeshy) मौद्रिक नीति के
प्रमुख उद्देश्य हैं-
- कीमतों में स्थायित्व
- रोजगार में वृद्धि
- आर्थिक विकास
- विनिमय दर मे स्थायित्व
- बचत और विनियोग में साम्य
- विकास के लिए साधनोंं को जुटाना
- मुद्रा की मांग व पूर्ति में सामंजस्य स्थापित करना
1. कीमतों में स्थायित्व –
कीमतों के अत्याधिक उतार-चढ़ाव के कारण
मुद्रा प्रसार तथा मुद्रा संकुचन की स्थिति पैदा हो जाती है। एक सीमा
से अधिक उतार-चढ़ावों के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव
पड़ता है। यदि मुद्रा प्रसार अधिक होता है, तो यह बढ़ते-बढ़ते अनियन्त्रित
हो जाता है। इसे समाज में निश्चित आय वर्ग के लोगों पर बुरा प्रभाव
पड़ता हैं यह एक आर्थिक बुराई हैं। अत: मौद्रिक नीति को प्रभावपूर्ण
बनाकर उसे कीमतों के उतार-चढ़ाव को रोकने की दिशा की ओर प्रेरित
किया जा सकता है।
मौद्रिक नीति को राजे गारपरक बनाकर देश में बेरोजगारी
को दूर किया जा सकता है। कीन्स ने इस पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया
था। कीन्स के अनुसार मौद्रिक नीति का महत्वपूर्ण उद्देश्य रोजगार के
स्तर को ऊँचा उठाना होना चाहिए। मौद्रिक नीति के द्वारा बचत और
विनियोग में साम्य स्थापित करते हुए रोजगार के स्तर को अधिकतम किया
जा सकता है।
आर्थिक विकास मे आने वाले गतिरोध को दरू करने
के लिए भी मौद्रिक नीति की सहायता ली जाती है। इसमें कीमतों के
उतार-चढ़ाव को रोककर, बचतों को बढ़ाकर तथा विनियोग में वृद्धि करके
आर्थिक विकास को बढ़ाया जाता है। उपयुक्त मौद्रिक नीति में इन प्रयासों
को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है, जिसके कारण आर्थिक विकास गतिमान
होता है।
जब दुनिया में स्वर्णमान चलन में था तब
स्वर्णमान में स्वचालकता का गुण होने के कारण विनिमय दर में स्थायित्व
रहता था। स्वर्णमान के पतन के बाद विनिमय दर में स्थायित्व की समस्या
पैदा हो गयी थी। विनिमय दरें पूर्णतया स्थिर नहीं रखी जा सकती हैं।
परन्तु उनकी निरन्तर अस्थिरता भी अनेक प्रकार की राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय
समस्याएँ पैदा कर देती है। वर्तमान समय के प्रतिबन्धित मुद्रामान के युग
में विनिमय दरों में उचित स्थिरता बनाये रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष
(IMF) की स्थापना की गयी। विनिमय दर से स्थायित्व की समस्या
अल्पविकसित देशों के सामने सबसे अधिक होती है। इन देशों के निर्यात
कम व आयात अधिक होते हैं। इन देशों में विदेशी पूँजी का आभाव
रहता हैं अत: आर्थिक विकास की समस्या पैदा हो जाती है। इन देशों
की अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापार पर निर्भर करती है। अत: मौद्रिक नीति
के माध्यम से विनिमय दर की बार-बार घट-बढ़ को रोका जा सकता
है।
मौद्रिक नीति का यह उद्देश्य कि
वह अपने देश में बचत व विनियोग के बीच में साम्य स्थापित कर सके।
यदि बचतें बढ़ती हैं और विनियोग को नहीं बढ़ाया गया तो रोजगार
व आय स्तर राष्ट्रीय आय में इसका बुरा प्रभाव होगा। बचतों को बढ़ाया
जाय और उन्हें विनियोग की ओर प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
जो देश आर्थिक दृष्टि से
काफी पिछड़े हुए होते हैं, वहाँ आर्थिक विकास के लिए साधनों की कमी
होती है। मौद्रिक नीति के द्वारा आर्थिक विकास के लिए पर्याप्त संसाधनो को जुटाया जा सकता है। उचित मौद्रिक नीति अपनाकर आवश्यकतानुसार
मुद्रा और साख की पूर्ति को बढ़ाया जा सकता है।
मुद्रा की
मांग और पूर्ति में सामंजस्य स्थापित करना मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य
होता है। जब कभी मुद्रा की मांग उसकी पूर्ति से अधिक हो जाती
है, तो आार्थिक अस्थिरता पैदा हो जाती है। इसके विपरीत यदि मुद्रा
की पूर्ति उसकी मांग से अधिक होती है, तो इसके भी परिणाम अच्छे
नहीं होते हैं। दोनों ही दशाओं में साम्य लाने की दृष्टि से मौद्रिक नीति
सफलतापूर्वक कार्य करती है।
मौद्रिक नीति के उपकरण
भारत में मौद्रिक नीति को आर्थिक नीति का सहायक माना जाता है। यही
कारण है कि भारत में मौद्रिक नीति के उद्देश्य आर्थिक नीति से भिन्न नहीं
होते हैं, बल्कि एक अभिन्न अंग के रूप में होते हैं। भारत में मौद्रिक नीति
का संचालन भारतीय रिजर्व बैंक (केन्द्रीय बैंक या बैंको का बैंक) द्वारा किया
जाता है। इस प्रकार भारतीय रिजर्व बैंक ही देश का मौद्रिक अधिकारी होता
है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नियन्त्रित मुद्रा विस्तार की नीति (Controlled Monetary
Expansion Policy) अपनायी जाती है। इसके अन्र्तगत दो बातें निहित होती हैं।
- जब अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी दबाव पुन: प्रकट होता है, तो किसी भी
समय तरलता अथवा मुद्रा की पूर्ति अत्यधिक बढ़ने से रोकना, तथा - उत्पादन को बढ़ाने तथा प्रोत्साहन देने के लिए नियमित साख का प्रवाह
करना, जिससे आर्थिक वृद्धि की गति को तीव्र करने के लिए अर्थव्यवस्था
के विभिन्न क्षेत्रों जैसे-कृषि, उद्योग एवं सेवा की आवश्यकता क पूर्ति सुनिश्चित
हो सके।
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा वर्ष में दो बार अप्रैल एवं अक्टूबर में मौद्रिक एवं
ऋण नीति घोषित की जाती है। इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक मध्यावधि त्रैमासिक
समीक्षा भी करती रहती है।
साख नियन्त्रण की विधियाँ
मैद्रिक नीति केन्द्रीय बैंक द्वारा अपनाये गये साख नियन्त्रण सम्बन्धी उपायों
से सम्बन्ध रखती है। साख नियन्त्रण दो प्रकार के होते हैं-
- मात्रात्मक या परिमाणात्मक (Quantitative) या अप्रत्यक्ष साख नियन्त्रण
- गुणात्मक (Qualitative) या प्रत्यक्ष साख नियन्त्रण ।
भारतीय रिजर्व बैंक, मौद्रिक नीति के अन्तर्गत साख नियन्त्रण विधियों के माध्यम से करता है-
- बैंक दर (Bank rate)
- नकद आरक्षित अनुपात (Cash reserve ratio-CRR)
- खुले बाजार की क्रियाएँ (Open market operations)˜
- तरल कोषानुपात में परिवर्तन (Changes in liquid fund ratio)
- रेपो दर (Repo rate)
- रिवर्स रेपो दर (Reserve repo rate)
- वैधानिक तरलता अनुपात (Statutory liquidity ratio-SLR)
- नकद तरलता अनुपात (Cash liquidity ratio-CLR)
मौद्रिक नीति के गुणात्मक उपकरण-
- चयनित साख नियन्त्रण (Selective cerdit control)
- विभिन्न ब्याज दरें तथा कटौती दरें (Various interest rate and deduction
rate) - साख का समभाजन (Rationing of credit)
- प्रचार (Publicity)
प्रसार (Propoganda) - प्रत्यक्ष कार्यवाही (Direct action)
अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में समान रूप से साख के नियन्त्रण अथवा फैलाव
के लिए उठाया गया कदम परिमाणात्मक नियन्त्रण कहलाता है। उदाहरण के
लिए, यदि बैंक दर में कमी या वृद्धि की जाय तो इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था
के सम्पूर्ण क्षेत्रों पर पड़ेगा।
परिमाणात्मक साख नियन्त्रण की प्रमुख विधियाँ हैं-
बैंक दर (Bank rate)- बैकं दर वह दर है, जिस पर केंद्रीय बैंक अपने
सदस्य बैंकों को ऋण प्रदान करता है अथवा उनके प्रथम श्रेणी (विनिमय
विपत्रों) के बिलों की पुनर्कटौती करता है। कुछ देशों में इसे ‘कटौती
दर’ भी कहा जाता है। बैंक दर में परिवर्तन के द्वारा अर्थव्यवस्था में
साख की मात्रा में परिवर्तन किया जाता है। यदि बैंक दर बढ़ाया जाता
है तो व्यावसायिक बैंकों को केन्द्रीय बैंक से प्राप्त होने वाली ऋण मंहगा
पड़ता है, परिणामस्वरूप व्यापारिक बैंक भी अपने ग्राहकों को मँहगा ऋण
देंगे, जिससे व्यापारी या ग्राहक बैंक से ऋण कम लेंगे। अत: अर्थव्यवस्था
में साख की मात्रा अपने आप कम हो जायेगी। इसके विपरीत बैंक दर
कम करने से साख की मात्रा में वृद्धि होगी।
- बैंक दर में परिवर्तन द्वारा साख की मात्रा पर प्रभाव पड़ता है। यदि बैंक
दर बढ़ा दिया जाता है तो अर्थव्यवस्था में साख की मात्रा कम हो जाती
है तथा इसके विपरीत यदि बैंक दर घटा दिया जाता है तो अर्थव्यवस्था
में साख की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। - साख की मात्रा में परिवर्तन होने से वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य भी प्रभावित
होता है। बैंक दर में वृद्धि करने से साख की मात्रा में कमी हो जाती
है, परिणामस्वरूप वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य बढ़ जाते हैं। इसके विपरीत
बैंक दर कम करने से साख की मात्रा में वृद्धि हो जाती है, जिससे
वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य कम हो जाते हैं। - बैंक दर में परिवर्तन द्वारा विदेशी पूँजी के विनियोग की मात्रा पर प्रभाव
पड़ता है। बैंक दर में वृद्धि होने से पूँजी पर लाभ या ब्याज की मात्रा
बढ़ने से विदेशी पूँजी का आगमन बढ़ जाता है। इसके विपरीत ब्याज
दर कम करने से विदेशी पूँजी हतोत्साहित होती है। - विदेशी पूँजी के आवागमन के फलस्वरूप तथा बैंक दर द्वारा साख की मात्रा
में परिवर्तन होने से उत्पादन एवं आयात निर्यात में परिवर्तन के कारण
देश की मुद्रा विनिमय दर भी परिवर्तित हो जाती है। - बैंक दर में परिवर्तन होने से देश की चलन में मुद्रा भी प्रभावित होती है।
यदि बैंक दर बढ़ा दिया जाता है, तो साख की मात्रा कम हो जाती
है तथा चलन में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है। इसके विपरीत बैंक
दर घटाने से साख की मात्रा में वृद्धि होती है तथा मुद्रा की चलन की
मात्रा में भी वृद्धि होती है।
नगद आरक्षित अनुपात (Cash reserve ratio-CRR) – सभी अनुसूिचत
वाणिज्यिक बैंको को अपनी समग्र जमाओं का एक निश्चित प्रतिशत भारतीय
रिजर्व बैंक के पास अनिवार्यत: रखना पड़ता है, जिसे ‘नकद आरक्षित
अनुपात’ कहा जाता है। यह विधि साख नियन्त्रण की अति महत्वपूर्ण
एवं नवीनतम विधि है। इसका प्रयोग सर्वप्रथम 1935 में अमेरिका द्वारा
किया गया था। यह विधि वहाँ अधिक उपयुक्त होती है, जहाँ पर मुद्रा
बाजार अविकसित होते हैं। केन्द्रीय बैंक को नकद आरक्षित अनुपात में
आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने का अधिकार होता है।
देश में जब साख की मात्रा को कम करना होता है, तो भारतीय रिजर्व
बैंक नकद आरक्षित अनुपात को बढ़ा देता है, इस अनुपात के बढ़ने से बैंको
को अधिक नकद कोष रिजर्व बैंक के पास रखने पड़ते हैं तथा स्वयं उनके
पास नकद की मात्रा कम हो जाती है। इस प्रकार इन बैंको के साख निर्माण
की मात्रा कम हो जाती है, जिससे ये ग्राहकों को मँहगा एवं कम साख प्रदान
करते हैं। इसके विपरीत नकद आरक्षित अनुपात में कमी होने से बैंकों को नकद
कोष कम रखना पड़ता है जिससे साख निर्माण की मात्रा में वृद्धि होती है। भारत में वैधानिक नकद कोष अनुपात (C.R.R) 3 से 15 प्रतिशत के बीच
हो सकता है। जनवरी 2007 मे भारतीय बैंक अधिनियम 1934 में संशोधन करके
उसे अधिकार दे दिया गया कि वह CCR की न्यूनतम सीमा 3 प्रतिशत तथा
अधिकतम 15 प्रतिशत की सीमा को चाहे तो समाप्त कर सकता है।
बैंक यह समझता है कि व्यावसायिक बैंकों के पास नकद कोष
अधिक है तथा उनका प्रयोग साख निर्माण के लिए किया जा रहा है
(जिस कारण मँहगाई बढ़ रही होती है) तो साख निर्माण की मात्रा को
कम करने के लिए केन्द्रीय बैंक सरकारी प्रतिभूतियों का विक्रय करना
प्रारम्भ कर देता है, जिसे व्यावसायिक बैंकों द्वारा क्रय कर लिया जाता
है। इस प्रकार इन व्यावसायिक बैंकों का नगद कोष कम होकर केन्द्रीय
बैंक के पास पहुँच जाता है। व्यावसायिक बैंकों का नकद इसके विपरीत
जब बैंक यह समझता है कि देश में साख की मात्रा कम (साख संकुचन)
है तो वह इन बेची गयी प्रतिभूतियों को क्रय करना शुरू कर देता है।
इन प्रतिभूतियों के क्रय के कारण अधिक प्रतिभूतियाँ केन्द्रीय बैंक के
पास आ जाती हैं तथा कोष व्यावसायिक बैंकों के पास पहुँच जाता है।
इस प्रकार बैंकों के पास अतिरिक्त कोष आ जाने से इनकी साख सृजन
क्षमता में वृद्धि हो जाती है, जिससे ये बैंक ग्राहकों को अधिक साख
उपलब्ध कराने में समर्थ होते हैं एवं इस प्रकार का विस्तार सम्भव होता
है।
बैंक के निर्देशानुसार प्रत्येक व्यापारिक बैंक को अपने कुल दायित्यों का
एक निश्चित प्रतिशत भाग तरल (नकद एवं प्रतिभूतियाँ) के रूप में अपने
पास रखना होता है। इसका प्रभाव यह होता है कि उस सीमा तक
व्यापारिक बैंकों की साख सृजन शक्ति कम हो जाती है, साख की मात्रा
कम करने के लिए केन्द्रीय बैंक इस अनुपात को बढ़ा देता है तथा साख
की मात्रा में वृद्धि करने के लिए इस अनुपात को कम कर देता है।
Repo rate) – यह अल्पकालीन तरलता उपलब्ध करान की एक महत्वपूर्ण
व्यवस्था है। इसके अन्तर्गत केवल एक वर्ष तक के लिए ऋण प्राप्त किया
जा सकता है। जब वाणिज्यिक बैंक अपनी प्रतिभूतियाँ भारतीय रिजर्व बैंक
को इस शर्त पर विक्रय करते हैं, कि रिजर्व बैंक इन प्रतिभूतियों को अल्पकाल
में पुन: खरीद लेगा, तो रिजर्व बैंक को इस देय ब्याज की दर ‘रेपो
रेट’ कहलाती है। दूसरे शब्दों में, रेपो दर वह मौद्रिक दर है, जिस पर
भारतीय रिजर्व बैंक बैंकिंग क्षेत्र में फण्ड या तरलता (प्रतिभूतियाँ) निकालने
के लिए किसी समझौते के अन्तर्गत प्रतिभूतियों को बेचता है कि भविष्य
में पुन: उसे क्रय कर लेगा।
जब भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति का उद्देश्य साख का संकुचन
करना होता है, तो वह रेपो दर को कम कर देता है, ताकि रिजर्व बैंक
अधिक प्रतिभूतियाँ बेचकर चलन की मुद्रा की मात्रा को अपने पास खींच सके।
इसके विपरीत जब मौद्रिक नीति का उद्देश्य साख का प्रसार करना होता है,
तो रेपो दर बढ़ा दी जाती है, क्योंकि ऐसी स्थिति में खरीदी गयी प्रतिभूतियाँ
पर ब्याज महँगा (अधिक) पड़ने लगता है। परिणामस्वरूप क्रय की गयी प्रतिभूतियाँ
रिजर्व बैंक के पास विक्रय के लिए तेजी से आने लगती हैं। इस विक्रय के
पश्चात विक्रय की सम्पूर्ण राशि देश की चलन की मुद्रा में शामिल होकर मुद्रा
प्रसार का काम करती है।
व्यापारिक बैंको के मध्य सम्पन्न समझौता है। भारतीय रिजर्व बैंक प्रतिभूतियाँ
बेचकर वाणिज्यिक बैंकों से संसाधन प्राप्त करता है तथा भविष्य में उन
प्रतिभूतियों को पुन: वापस क्रय करने का समझौता भी करता है। इस
समझौते के अन्तर्गत देय (due) ब्याज की दर ‘रिवर्स रेपो दर’ कहलाती
है। रिवर्स रेपो रेट को बढ़ाने से साख का विस्तार होता है, क्योंकि व्यापारिक
बैंको को अधिक ब्याज प्राप्त होता है, जिससे वे प्रतिभूतियों को बेचकर
अधिक मुद्रा अर्जित करते हैं एवं अपनी साख क्षमता में वृद्धि करते हैं। इसके
विपरीत रिवर्स रेपो दर घटाने से साख संकुचन की स्थिति उत्पन्न होती है।
बैंकों को अपनी समग्र जमा का एक निश्चित प्रतिशत नकद के रूप
में भारतीय रिजर्व बैंक के पास अनिवार्य रूप से रखना पड़ता है। अत:
कुल जमा पर रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित तरलता का प्रतिशत ही नकद
तरलता अनुपात कहलाता है।
रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति के आधार पर इस अनुपात का निर्धारण किया
जाता है। यदि देश में साख का प्रसार करना होता है तो इस ‘नकद तरलता
अनुपात’ में कमी कर दी जाती है। ऐसा करने से व्यापारिक बैंकों को पूर्व की
अपेक्षा कम तरल सम्पित्त्ायों को भारतीय रिजर्व बैंक के पास रखना पड़ता है
तथा अधिक राशि साख के रूप में प्रयुक्त की जा सकती है। इसके विपरीत
यदि साख का संकुचन करना होता है, तो रिजर्व बैंक नकद तरलता अनुपात
में वृद्धि कर देता है, इस वृद्धि के परिणामस्वरूप बैंकों को अपनी जमा का पहले
की अपेक्षा अधिक नकद भारतीय रिजर्व बैंक के पास रखना पड़ता है तथा कम
साख उपलब्ध हो पाता है। कम साख मिलने पर ये व्यापारिक बैंक भी ग्राहकों
को कम मात्रा में साख प्रदान करते हैं। इस प्रकार बैंकों से कम साख प्राप्त
होने के कारण लोगों की क्रय शक्ति में कमी आती है, जिससे मुद्रा स्फीति बढ़ने
नहीं पाती है।
साख नियन्त्रण के ऐसे उपाय, जो किसी निश्चित क्षेत्र को प्रत्यक्ष रूप से
प्रभावित करने के उद्देश्य से किये जाते हैं, गुणात्मक साख नियन्त्रण कहलाता
है। यह उपाय तब कारगर एवं महत्वपूर्ण होता है जब देश के भीतर कुछ क्षेत्रों
को अधिक एवं कुछ क्षेत्रों को कम ऋण देना हित में होता है। गुणात्मक साख
नियन्त्रण के मुख्य उद्देश्य हैं-
- अर्थव्यवस्था के किसी एक या कुछ क्षेत्र को प्रभावित करना,
- देश में साख की उत्पादक एवं अनुत्पादक आवश्यकतओं में अन्तर करना,
- निर्यात को प्रोत्साहित एवं आयात को हतोत्साहित करना,
- लाभकारी क्षेत्र (उत्पादक) को अधिक ऋण तथा अलाभकारी (उपभोक्ता
वस्तुओं) को कम ऋण देना।
गुणात्मक साख नियन्त्रण की विधियाँ
केन्द्रीय बैंक (भारत में रिजर्व बैंक आफ इण्डिया) यह अनुभव करता है,
कि सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए एक
समान साख नियन्त्रण नीति को अपनाना उचित नहीं होगा, बल्कि कुछ
क्षेत्रों में उदार साख नीति तथा अन्य क्षेत्रों में कम उदार या कठोर साख
नीति उपयुक्त होगी, तो ऐसी अलग-अलग व्यवस्था ही चयनात्मक साख
नियन्त्रण कहलाती है। इस नीति के अन्तर्गत अपनायी जाने वाली प्रमुख
साख नियन्त्रण की विधियाँ निम्न हैं-
अन्तर्गत देश का केन्द्रीय बैंक भिन्न-भिन्न प्रकार के विनिमय विपत्रों
(bills of exchange) के लिए विभिन्न या अलग-अलग कटौती दर
निर्धारित करता है। इससे अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों को तो सुगम
एवं सस्ता साख उपलब्ध हो जाता है, जबकि अन्य क्षेत्रों को कठिन
शर्तों पर महँगा साख उपलब्ध होता है। उदाहरण के लिए, यदि
कृषि क्षेत्र को विकास के लिए अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक प्रोत्साहन
देना हो तो कृषि विपत्रों तथा कृषि निर्यात विपत्रों के लिए कम
कटौती दरें निश्चित की जाती है।
उपाय के अन्तर्गत किसी विशेष क्षेत्र में निवेश करने वाले बैंकों
को एक निश्चित राशि तक ‘नकद कोष’ रखने की छूट दी जाती
है। परिणाम स्वरूप इन विशेष क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहन मिलता
है।
कभी-कभी देश का केन्द्रीय बैंक, अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में
साख विस्तार को सीमित करने के उद्देश्य से, व्यापारिक बैंको
पर यह नियन्त्रण लगा देता है कि एक निश्चित राशि से
अधिक मात्रा में ऋण देने पर उसकी (केन्द्रीय बैंक की) अनुमति
लेना अनिवार्य होगा। ऐसी दशा मे केन्द्रीय बैंक ऋण की आवश्यकता
एवं साख विस्तार के प्रभाव को ध्यान में रखकर निश्चित सीमा
से अधिक की राशि का निर्धारण करता है।
बैंक यदि कुछ वस्तुओं की प्रतिभूतियों पर उपलब्ध साख की
सुविधा पर रोक लगाना चाहता है, तो वह ऐसे ऋणों पर प्रति-
बन्ध लगा देता है। उदाहरण के लिए, देश में खाद्यान्न की कीमतों
में वृद्धि को रोकने के लिए रिजर्व बैंक द्वारा व्यापारिक बैंकों को
यह आदेश दिया जा सकता है कि वे अनाज संग्रह हेतु व्यापारियों
को ऋण न दे।
credit)- इस प्रकार के साख नियमन का आशय टिकाऊ व
मूल्यवान वस्तुओं की खरीद हेतु दिये जाने वाले साख नियन्त्रण
से है। वर्तमान में कई देशों में मोटरकार, टेलीविजन, मोटरसाइकिल,
फ्रिज आदि टिकाऊ वस्तुएँ उधार या किश्तों के आधार पर बेची
जाती हैं। अर्थव्यवस्था में तेजी के दिनों में उपभोक्ता साख का
संकुचन किया जाता है, जबकि मन्दी के दिनों में इसका विस्तार
किया जाता है। इस उपाय के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक द्वारा उपभोक्ता
साख पर कुछ नियन्त्रण लगा दिये जाते हैं। इसमें साख की
कुल राशि या मात्रा का निर्धारण, किश्तों की संख्या, भुगतान
अवधि का निर्धारण आदि उपाय मुख्य रूप से किये जाते हैं।
का यह उपाय देश में आयात को कम करने या हतोत्साहित
करने के उद्देश्य से किया जाता है। इस उपाय के अन्तर्गत आयातकर्ता
को आयात लाइसेंस देते समय ही आयात मूल्य का एक निश्चित
प्रतिशत केन्द्रीय बैंक के पास जमा कराना पड़ता है। साख के
विस्तार की दशा में इस आयात के लिए जमा राशि में कमी कर
दी जाती है, जिससे आयात में वृद्धि होती है, इसके विपरीत साख
संकुचन करने के लिए केन्द्रीय बैंक जमा राशि में वृद्धि कर देता
है।
in marginal needs of loans)- इसके द्वारा कुछ विशेष उद्देश्यों
के लिए दी जाने वाली साख की राशि को नियन्त्रित किया जाता
है। प्राय: बैंक उपयुक्त जमानत (security) के आधार पर ऋण
प्रदान करते हैं। बैंक जमानत के रूप में रखे गये माल की वर्तमान
कीमत से कुछ कम राशि का ऋण देते हैं, जितनी कम राशि
का ऋण दिया जाता है, उसे सीमान्त आवश्यकता कहते हैं।
जब किसी वस्तु विशेष के लिए साख का संकुचन करना होता है, तो
देश का केन्द्रीय बैंक उस वस्तु की सीमान्त आवश्यकता को बढ़ा देता है। परिणामस्वरूप
बैंक जमानत पर पहले की तुलना में कम मात्रा में ऋण दे पाते हैं। इसके विपरीत
जब साख का विस्तार करना होता है तो केन्द्रीय बैंक उसकी सीमान्त आवश्यकता
को कम कर देता है, जिससे बैंकों द्वारा अधिक मात्रा में ऋण दिया जाता है।
साख का समभाजन (Rationing of credit)- अन्तिम ऋणदाता के रूप
में देश का केन्द्रीय बैंक अन्य बैंकों की साख-निर्माण क्षमता को सीमित
करने के लिए साख का समभाजन भी कर सकता है। यह कई
विधियों या उपायों या उपायों द्वारा की जा सकती है। जैसे – किसी बैंक या कुछ बैंकों की पुनर्कटौती (Rediscounting) की
सुविधा को समाप्त कर देना अथवा बैंको के लिए साख के अभ्यंश
(quota) निश्चित कर देना, विभिन्न बैंको द्वारा विभिन्न व्यवसायों को दिये जाने वाले ऋणों
की सीमा अथवा अभ्यंश निश्चित कर देना इत्यादि।
लागू या बहाल कर दिया जाता है तथा विभिन्न व्यवसायों को दिये जाने वाले
ऋणों की सीमा में वृद्धि कर दी जाती है। इसके विपरीत साख संकुचन के लिए
पुनर्कटौती की सुविधा को समाप्त कर देना या ऋणों की सीमा को कम कर
दिया जाता है।
एवं नियन्त्रण करने के कारण देश के केन्द्रीय बैंक का वाणिज्यिक बैंकों
पर पर्याप्त प्रभाव रहता है। इसलिए केन्द्रीय बैंक कभी-कभी अन्य बैंकों
को सलाह देकर तथा उन पर नैतिक दबाव डालकर उन्हें अपनी साख
नीति का स्वेच्छापूर्वक पालन करने के लिए प्रेरित करता है। इस उपाय
के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक द्वारा अन्य बैंको पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाला
जाता है। नैतिक प्रभाव की नीति की सफलता मुख्य रूप से निर्भर करती है-
- देश के केन्द्रीय बैंक का ‘मुद्रा बाजार’ पर पूर्ण एवं पर्याप्त नियन्त्रण
होना चाहिए तथा - केन्द्रीय बैंक तथा अन्य बैंकों के मध्य सहयोग एवं सद्भावना
होनी चाहिए। - भारत में नैतिक प्रभाव साख नियन्त्रण के लिए प्रभावशाली कदम माना
जाता है, क्योंकि नैतिक प्रभाव की रीति की सफलता के लिए आवश्यक बातों
पर यहाँ केन्द्रीय बैंक का अधिकार एवं अन्य बैंकों के साथ समन्वय है।
प्रचार (Publicity)- वर्तमान समय में केन्द्रीय बैकं साख नियन्त्रण के
लिए विज्ञापन तथा प्रचार का भी सहारा लेता है। यह नियमित रूप
से देश में मुद्रा बाजार की स्थिति, बैंकिंग व साख सम्बन्धी समस्याओं,
उद्योग व्यापार एवं व्यवसाय, विदेशी व्यापार आदि के सम्बन्ध में अपनी
मासिक या वार्षिक पत्र-पत्रिकाओं में आवश्यक आँकड़े एवं विवरण प्रकाशित
करता रहता है। इसके अतिरिक्त देश के केन्द्रीय बैंक के अधिकारीगण,
पत्रकार सम्मेलन, बैंकों की विचार गोष्ठी आदि में बैंक की मुद्रा व साख
नीति पर प्रकाश डालते हैं। आधुनिक समय में ‘प्रचार’ की विधि द्वारा
अधिक सफलता प्राप्त की जा सकती है।
सम्बन्धी किये गये उपायों के लिए दिये गये निर्देशों का ठीक ढंग से
पालन न करने वाले बैंकों के विरुद्ध प्रत्यक्ष या सीधी कार्यवाही कर
सकता है। प्रत्यक्ष कार्यवाही के अन्तर्गत निम्न उपायों को शामिल किया
जाता है-
- बैंकों को पुनर्कटौती की सुविधा बन्द कर देना,
- पुनर्कटौती की शर्तों में परिवर्तन करना,
- ऋण देने से मना कर देना,
- बैंकों पर मौद्रिक दण्ड लगाना इत्यादि।
केन्द्रीय बैंक उपरोक्त प्रत्यक्ष कार्यवाही करने से पहले सामान्यतया
सम्बन्धित बैंकों को नोटिस या चेतावनी देता है। व्यावहारिक रूप में साख नियन्त्रण
की अनेक व्यवस्थाओं के कारण प्रत्यक्ष कार्यवाही की आवश्यकता पड़ने की सम्भावना
न्यूनतम ही रहती है।
मौद्रिक नीति की सीमाएँ
- मंदी के समय मैद्रिक नीति का प्रभावी न होना – प्राय: यह देखने
में आया है कि मौद्रिक नीति मुद्रा स्फीति में तो प्रभावी होती है, परन्तु
मन्दी को दूर करने में यह उतनी सहायक नहीं होती है, अत: मौद्रिक
नीति का प्रभाव एकपक्षीय है। - सही जानकारी न होनेपर हानिकारक प्रभाव – कब और किन परिस्थितियों
में मौद्रिक नीति का उपयोग किया जाय जब तक इस बात की जानकारी
नहीं हो जाती है, तब तक मौद्रिक नीति में किया जाने वाला परिवर्तन
हानिकारक हो सकता है, जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मौद्रिक नीति
का उपयोग किया गया था, उसके वांछित लाभ प्राप्त नहीं होगे। - मौद्रिक नीति का प्रभावपूर्ण न होना – चाहने पर भी मौद्रिक नीति
प्रभावपूर्ण नहीं हो सकती है। मौद्रिक नीति एक अप्रत्यक्ष उपाय है। यदि
इसे दृढ़ता के साथ अपनाया जाता तो आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जायेगा।
यदि इसे कोमलतापूर्वक अपनाया गया तो आय और मांग के स्तर पर
कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। - ब्याज-दरों में बार-बार परिवर्तन न होना – मौद्रिक नीति का प्रमुख
अस्त्र ब्याज-दर में परिवर्तन करना है, परन्तु बार-बार ब्याज-दरों में
परिवर्तन सम्भव नहीं है। अत: मौद्रिक नीति निष्प्रभावी हो जाती है। - अकेले मौद्रिक उपाय सफल नहीं हो सकते हैं – रडे क्लिफ (Radcliffe)
समिति इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि ‘‘एक अर्थव्यवस्था पर, जबकि बाह्य
एवं आन्तरिक दबाव पड़ रहे हों, तो एक उचित प्रकार का सन्तुलन बनाये
रखने के लिए अकेले मौद्रिक उपायों पर निर्भर नहीं किया जा सकता
है। मौद्रिक उपायों से सहायता मिल सकती है, बस इतना ही है।’’