वित्त कार्य क्या है?

वित्त कार्य क्या है?

वित्त कार्य से अभिप्राय किसी भी संगठन में वित्त सम्बन्धी कार्यों से
है। अर्थात औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठनों में वित्तीय प्रबन्धक द्वारा
संगठन में जो भी कार्य किये जाते हैं, उन्हें वित्त कार्य कहा जाता है। वित्त
कार्य को हम प्रमुखतया तीन संदर्भों में परिभाषित कर सकते हैं।

  1. प्रथम संदर्भ में वित्त कार्य से आशय संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु
    आवश्यक कोषों (fund) की उपलब्धता तय करने से है। 
  2. द्वितीय संदर्भ में वित्त कार्य से अभिप्राय संगठन के अन्तर्गत समस्त
    नकद क्रियाओं को सम्मिलित करने से है। 
  3. तृतीय संदर्भ में वित्त कार्य से आशय कोषों की प्राप्ति (Procurement
    of funds) तथा व्यवसाय में उनका प्रभावषाली उपयोग करने से है।
    वस्तुत: वित्त कार्य का सीधा सम्बन्ध धन (Money), बाजार (Market)
    तथा लोगों (People) से है। 

अत: इसके अन्तर्गत कोषों की उपलब्धता
सुनिश्चित करने के साथ ही उनका प्रभावपूर्ण उपयोग सुनिश्चित करने से है।

वित्त कार्य की प्रकृति एवं विकास 

बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध वित्त कार्य की प्रकृति एवं विकास में आमूल
परिवर्तन काल रहा है। परम्परागत तौर पर जब वित्त कार्य मात्र कोषों की
व्यवस्था तक सीमित था, वहीं आधुनिक परिदृष्य में वित्त कार्य कोषों की
व्यवस्था के साथ-साथ कोषों के प्रभावकारी उपभोग से भी सम्बन्धित हो
चुका है। आधुनिक संदर्भों में वित्त कार्य का अभिप्राय कोषों की व्यवस्था करने
के साथ ही कोषों के प्रभावकारी उपयोग करने से भी है।
अर्थात वर्तमान समय में वित्त कार्य को पष्चिमीकरण के केन्द्र बिन्दु
(Focal point of decision making) के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकी है।
ऐतिहासिक कालक्रमानुसार वित्त कार्य के विकास एवं प्रकृति को
निम्न दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

पारम्परिक विचारधारा 

वित्त प्रबंध की पारम्परिक विचारधारा का उदय एवं विकास बीसवीं
सदी के प्रथम अर्द्धषतक तक हुआ, इस काल की प्रकाषित पुस्तकों में
Corporation Finance – Thomas Green (1897), Corporation Finance-
Edwards Meade (1910)] Materials of Corporation Finance – Charles
W. Gersten berg (1915) Case Problems in Finance– Huud and Williams
(1945) इत्यादि प्रमुख हैं।
वित्तीय प्रबन्धन की पारम्परिक विचारधारा के अन्तर्गत वित्त कार्य एक
यत्रतत्रिक (Sporadic) कार्य था, इस विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्धन
के क्षेत्र को सीमित किया गया है। इस धारणा के अनुसार वित्तीय प्रबन्ध का
क्षेत्र मात्र कोषों के एकत्रीकरण (Procurement of funds) तक सीमित होता
है। तथा कतिपय विशिष्ट घटनाओं जैसे, प्रवर्तन, पुर्नसंगठन, एकीकरण,
विस्तार एवं संविलयन इत्यादि दषाओं में वित्तीय प्रबन्धक की भूमिका प्रमुख
होती है। संगठन के दिन-प्रतिदिन के कार्य संचालन में वित्तीय प्रबन्धन मात्र
दायित्वों के भुगतान हेतु समुचित संसाधन की उपलब्धता पर ध्यान केन्द्रित
करता है।

परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत कोषों के एकत्रीकरण हेतु वित्तीय
प्रबंधन प्रयास करता था कोषों की व्यवस्था किन शर्तों पर तथा किन स्रोतों से
की जाय। कोषों के प्रभावपूर्ण उपयोग तथा आवंटन के संदर्भ में वित्तीय प्रबन्ध्
ाक के पास किसी भी प्रकार के अधिकार नहीं थे। अर्थात पारम्परिक विचारधारा निवेषक दृश्टिकोण (Invester’s approach) का पोशण करती है। इसका
प्रत्यक्ष सम्बन्ध प्रबन्ध कार्य से न होकर, विनियोजकों बैकों एवं वित्तीय
संस्थाओं से होता था।

वस्तुत: परम्परागत विचारधारा के अभ्युदय के उपरान्त ही वित्तीय
प्रबन्ध एक नियोजित संगठित एवं वैज्ञानिक अध्ययन की विशयवस्तु बन सका,
इसके पूर्व प्रबन्धकीय कार्य हेतु अनुभव भूल एवं सुधार (Trial and error)
अन्र्तमन की अभिप्रेरणा का प्रयोग किया जाता था, अर्थात हम परम्परागत
विचारधारा को वित्त प्रबन्ध के क्षेत्र में मील के पत्थर की संज्ञा दे सकते हैं।

पारम्परिक विचारधारा की सीमाए

वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा वस्तुत: वित्तीय प्रबन्धन की
विशय वस्तु को समग्रता एवं वैज्ञानिकता प्रदान करती है। किन्तु फिर-भी
इसकी प्रमुख सीमाए हैं:-

  1. कोषों के संकलन तक सीमित – परम्परागत विचारधारा के
    अन्तर्गत वित्त कार्य मात्र कोषों के संकलन एवं अभिवृद्धि तक ही सीमित था,
    वित्तकार्य मात्र विनियोजक दृश्टिकोण का पोशक था, इसका निर्णयन की
    प्रक्रिया से कोई लेना देना-नहीं था। 
  2. नैत्यक प्रबन्ध की उपेक्षा – परम्परागत विचारधारा के अन्तगर्त
    वित्त कार्य मात्र कोषों के संकलन तक सीमित होने के कारण संगठन के
    अन्तर्गत कोषों के प्रयोग एवं नैत्यक (Routine) प्रबन्ध की पूर्णरूपेण उपेक्षा की
    जाती है। 
  3. दीर्घकालीन दृष्टिकोण – इस विचारधारा के अन्तगर्त सगंठन की
    दीर्घकालीन समस्याओं पर अधिक ध्यान दिया जाता है। अल्पकालीन समस्याओं
    जैसे कार्यशील पूँजी प्रबन्धन की उपेक्षा की जाती है। 
  4. आकस्मिक प्रक्रिया – इस विचारधारा के अनुसार वित्त कार्य एक
    आकस्मिक प्रक्रिया है। जब कि संगठन के अन्तर्गत वित्त कार्य एक अनवरत
    प्रक्रिया है। 

वस्तुत: विकास की प्रारम्भिक अवस्था में वित्तीय प्रबन्धन के क्षेत्र में
पारम्परिक विचारधारा की प्रधानता थी। इस विचारधारा को मूर्तरूप देने का
श्रेय 1897 में लिखित गिनीज की पुस्तक (Corporation finance) को जाता
है। इस विचारधारा को पुश्ट करने हेतु 1910 में मीड द्वारा लिखित पुस्तक
(Corporation finance) मील का पत्थर साबित हुई।

आधुनिक विचारधारा 

परम्परागत विचारधारा 1950 के दषक तक प्रचलित रही किन्तु
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) के पश्चात वैश्विक अर्थव्यवस्था में आये नवीन
धु्रवीकरण एव युद्धोत्तर काल में विनाष हो चुकी अर्थव्यवस्थाओं के पुर्नगठन
एवं विकास की सम्भावनाओं को तलाषने हेतु आधुनिक विचारधारा का
अभ्युदय हुआ। आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत कोषों की प्राप्ति के साथ-साथ
कोषों के प्रयोग तथा निर्णयन सम्बन्धी कार्यों में वित्त प्रबन्धन की सक्रिय
सहभागिता सुनिश्चित हो गयी।

इजरा सोलोमन के शब्दों में ‘‘परम्परागत विचारधारा कोषों के साधनों
पर अधिक बल देती थी। जिसका सम्बन्ध विशिष्ट प्रक्रियात्मक ब्योरे या
विस्तृत विवरण से होता था। अब नवीन व्यापक व्याख्या के अन्तर्गत कोषो के
अनुकूलतम संकलन, उपयोग, एवं आवंटन की दिशा में विवेकपूर्ण नीति
निर्धारण पर अधिक बल दिया जाता है।

वस्तुत: वित्तीय प्रबन्धन की आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत कोषों के
प्रभावपूर्ण आवंटन (Efficient allocation of funds) पर अधिक ध्यान दिया
जाता है। वित्तीय प्रबन्धक की नवीन भूमिका में उसे कोषों के विवेकपूर्ण
उपयोग हेतु निम्न तीन प्रष्नों के उत्तर ढूँढ़ने पड़ते हैं।

  1. संगठन का आकार क्या होना चाहिए, तथा इसके विकास की तीव्रता
    क्या होनी चाहिए? 
  2. संगठन की सम्पत्तियों का सृजन किस रूप में होना चाहिए? 
  3. संगठन के दायित्वों का अनुपात क्या होना चाहिए? 

वस्तुत: उक्त तीनों प्रष्न वित्तीय प्रबन्ध के तीन निर्णयों को प्रभावित
करते हैं। (i) विनियोग निर्णयन (ii) वित्त निर्णयन (iii) लाभांश निर्णयन।

विशेषताए

  1. वित्तीय प्रबंधन की आधुनिक विचारधारा विश्लेषणात्मक एवं व्यापक
    है। इसके अन्तर्गत कोषों की प्राप्ति के साथ ही उनके प्रभावपूर्ण उपयोग पर
    भी बल दिया जाता है। 
  2. इसके अन्तर्गत सामान्य एवं विशिष्ट अध्ययन, विवेकपूर्ण एवं तकनीकी
    आर्थिक विश्लेषण, सांख्यिकीय वगमितीय विश्लेषण के आधार पर विवेकपूर्ण
    निर्णय लिये जाते हैं।
  3. आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत, वित्त कार्य एक आवश्यक एवं
    अनवरत प्रक्रिया हैं। 
  4. वित्त कार्य की आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत कोषों की प्राप्ति एवं
    उपयोग के मध्य एक सूत्रता होने के कारण बेहतर व्यावसायिक समन्वय की
    स्थापना सम्भव हो पाती है। 

वित्त कार्य की परम्परागत एवं आधुनिक विचारधारा में अन्तर 

  1. वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा वर्णनात्मक (Descriptive) तथा
    संकुचित (Narrow) है। जबकि आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत विश्लेषणात्मक
    (Analytical) एवं व्यापकता के लक्षण विद्यमान हैं। 
  2. परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत वित्त कार्य यत्रतत्रिक (Sporadic)
    कार्य है जब कि आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्धन कार्य
    नियमित (Regular) तथा सतत ;Continuous) प्रक्रिया है। 
  3. परम्परागत विचारधारा के अनुसार मात्र कोषों के संग्रह पर बल दिया
    जाता है जब कि नवीन विचारधारा कोषों के संग्रहण के साथ-साथ कोषों के
    समुचित उपयोग पर भी बल देती हैं।
  4. परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्धक की निर्णयन में
    कोई भूमिका नहीं होती है जब कि आधुनिक विचारधारा के अनुसार वित्त
    प्रबन्धक की निर्णयन में महती भूमिका होती है। 
  5. परम्परागत विचारधारा वित्त कार्य के अन्तर्गत वित्त के दीर्घ कालीन
    कोष प्रबन्धन (Long term Fund Management) पर अधिक बल देती है। जब
    कि आधुनिक विचारधारा अल्पकालीन कोष प्रबन्धन (Short term Fund
    Management) पर अधिक बल देती है। 
  6. परम्परागत विचारधारा संगठन तथा उसके आन्तरिक प्रबन्धन के प्रति
    बाह्य पक्ष के दश्श्टिकोण की पक्षधर है (Outsider looking in approach) जब
    कि आधुनिक विचारधारा संगठन तथा उसके प्रबंधन के प्रति आन्तरिक पक्ष के
    दृश्टिकोण की पक्षधर है (Insider looking in approach) 

वित्त कार्य का सगंठन 

वित्त कार्य के संगठन से अभिप्राय संगठन के समस्त उत्तरदायित्वों,
कार्यो व अधिकारों को विभिन्न विशेषज्ञों के मध्य कार्य विभाजन से है।
लघु उपक्रमों में वित्त कार्य का संचालन स्वयं संगठन के स्वामी द्वारा
किया जाता है। जब कि वृहद आकार के संगठनों में वित्त कार्य के संचालन
हेतु संगठन की आवश्यकता होती है। संगठन के कम्पनी स्वरूप के अन्तर्गत
स्वामित्व एवं प्रबन्धन के मध्य पृथक्करण होता है अत: प्रबन्धन हेतु अलग
संगठन की आवश्यकता होती है। 

वित्त समिति

किसी भी आर्थिक संगठन में नियोजन एवं नियंत्रण का कार्य मात्र
प्रबंध संचालक द्वारा नहीं पूर्ण किया जा सकता अत: संचालक मण्डल एवं
प्रबंध संचालक के मध्य एक कड़ी के रूप में वित्त समिति (Finance
Committee) का गठन किया जाता है। इसके अंतर्गत संचालक मण्डल के
कतिपय सदस्य अथवा उनके प्रतिनिधि तथा विभिन्न विभागों के अध्यक्ष पदेन
सदस्य होते हैं,प्रबन्ध संचालक प्राय: वित्त समिति का पदेन अध्यक्ष होता है।
वित्त समिति द्वारा वित्तीय नियोजन एवं नियंत्रण हेतु संचालन मंडल को
परामर्ष दिया जाता है। वस्तुत: यह एक परामर्ष दात्री समिति है। नीतियों के
क्रियान्वयन में वित्त समिति की भूमिका नगण्य होती है।

कोषाध्यक्ष

कोषाध्यक्ष शब्द कोष + अध्यक्ष दो शब्दों के मेल से बना है। इसका
“ााब्दिक अर्थ कोष के अध्यक्ष से है। वर्तमान परिवेष में कोषाध्यक्ष की भूमिका
अत्यन्त महत्वपूर्ण है। निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों के संस्थानों में इसकी
नियुक्ति अनिवार्य रूप से की जाती है। वस्तुत: वित्त प्रबंधक के अधीनस्थ
सहयोगियों में कोषाध्यक्ष का महत्वपूर्ण स्थान होता है। बड़े औद्योगिक
संगठनों में वित्त कार्य के सफल संचालन हेतु वित्त निंयंत्रक एवं कोषाध्यक्ष
दोनों की नियुक्ति की जाती है। वर्तमान समय में कोषाध्यक्ष रोकड़ एवं बैंक
प्रबन्धन, विनियोग तथा साख प्रबंधन, वेतन व पेंशन प्रबन्धन, अकेंक्षण तथा
साख विश्लेषण एवं लाभांश वितरण प्रबंधन तथा लागत प्रबंधन आदि कार्यों
का सम्पादन नियंत्रण एवं पर्यवेक्षण करता हैं। 
सामान्य तौर पर कोषाध्यक्ष के कार्यक्षेत्र में निम्न बिन्दुओं को सम्मिलित
किया जा सकता है :- 
  1. वित्त की व्यवस्था  – उद्यम की
    आवश्यकता के अनुरूप वित्त का प्रावधान करके नीतियों एवं कार्यक्रमों के
    क्रियान्वयन, एवं प्रतिस्थापन का कार्य कोषों की व्यवस्था करके किया जाता
    है। 
  2. वित्तीय नियोजन – वित्तीय नियाजे न का
    आशय वित्तीय पूर्वानुमान से है। इसके अन्तर्गत फर्म के लिए आवश्यक रोकड़
    प्राप्तियों एवं भुगतानों का पूर्वानुमान लगाया जाता है। कोषाध्यक्ष इस तथ्य का
    भी पूर्वानुमान लगाता है कि संगठन के लिए किस सीमा तक ऋणों की
    आवश्यकता है। 
  3. विनियोजन से सम्बन्ध – वृहद
    संगठनों में पूँजी का प्रमुख आधार प्रतिभूतियाँ होती हैं। प्रतिभूतियों के विक्रय
    हेतु आवश्यक बाजार की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु कोषाध्यक्ष विनियोजकों
    से सम्बन्ध स्थापित करता है। ताकि कम्पनी की अंशपूंजी सहजतापूर्वक
    संग्रहीत की जा सके। इसके साथ ही कोषाध्यक्ष कम्पनी की अल्पकालिक
    आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अल्पकालीन ऋणों की व्यवस्था भी करता है। 
  4. विनियोग – कम्पनी की पूजॅीं का सवार्त्ेतम एवं
    लाभदायी विनियोजन करना तथा पेंषन आदि के भुगतान हेतु विनियोग
    नीतियों का निर्धारण करना आदि कार्य कोषाध्यक्ष द्वारा सम्पादित किये जाते
    हैं। 
  5. रोकड प्रबन्धन – सगंठन की आरे से बैंकों में खाते खोलकर प्राप्त रोकड़ सम्बन्धित खातों में जमा कराना, तथा दिन-प्रतिदिन
    होने वाले नकद व्यवहारों का लेखा जोखा करके धनराशि बैंकों में जमा
    कराना, रोकड़ प्राप्ति एवं भुगतान की उचित विधि का निर्माण करके तदनुसार
    आगम-निगम की व्यवस्था करना एवं निर्धारित समय के भीतर उधार
    धनराशि की वसूली सुनिश्चित करना कोषाध्यक्ष का महत्वपूर्ण कार्य होता है। 
  6. उधार एवं सगं्रहण  – प्रत्येक कम्पनी
    कुछ न कुछ मात्रा में उधार लेन-देन अवष्य करती है। इसके लिए ग्राहकों की
    भुगतान क्षमता का आकलन करके उधार सौदों की व्यवस्था करना एवं
    निर्धारित समय के भीतर उधार धनराशि की वसूली सुनिश्चित करना कोषाध्यक्ष का महत्वपूर्ण कार्य होता है। 
  7. बीमा – कोषाध्यक्ष कम्पनी की सम्पत्तियों का रखवाला
    (Custodian) होता है अत: कम्पनी की चल-अचल सम्पत्तियों की सुरक्षा हेतु
    पर्याप्त मात्रा में बीमा की व्यवस्था करना कोषाध्यक्ष का नैतिक कर्तव्य होता
    है। 

वित्त नियंत्रक 

वित्त नियंत्रक शब्द से ही वित्त नियंत्रक के कार्य ध्वनित होते है।
वस्तुत: वित्त नियंत्रक संगठन के कोषों का नियन्त्रण कर्ता एवं सजग प्रहरी
(Watch dog) होता है। इसका प्रमुख कार्य इस बात का सुनिष्चियन होता है
कि कम्पनी द्वारा व्यय की जाने वाली धनराशि उचित रीति से एवं नियमानुसार
व्यय की जाय, तथा व्यय की जाने वाली राशि का प्रतिकर कम्पनी को प्राप्त
हो रहा है।
वर्तमान सूचना तकनीकी युग में वित्त नियंत्रक आँकड़ो के संग्रहण एवं
विश्लेषण के माध्यम से निष्चयीकरण का केन्द्र बिन्दु ;Central place of
decision making) बन गया है।
सामान्य तौर पर वित्त नियंत्रक के कार्यों को निम्न प्रकार से सूचीबद्ध
किया जा सकता है। 
  1. प्रचलित लेखाँकन पद्धतियों में से अनुकूल लेखाँकन पद्धति का निध्र्धारण एवं संचालन करना। 
  2. लागत नियंत्रण हेतु संगठन के प्रत्येक स्तर पर प्रयास करना। 
  3. बजट पूर्वानुमान एवं निर्माण तथा पूर्वानुमानों के आधार पर भावी
    नियोजन की रूपरेखा तैयार करना। 
  4. कर सम्बन्धी दायित्वों का निर्वहन करना। 
  5. संगठन के नियमित अंकेक्षण की व्यवस्था करना। 
  6. आन्तरिक अंकेक्षण के माध्यम से आन्तरिक नियंत्रण की स्थापना
    करना। 
  7. वित्तीय विवरणों (लाभ हानि खाता, चिट्ठा) का निर्माण एवं वित्तीय
    प्रतिवेदनों को तैयार करना एवं उच्च प्रबन्धन के समक्ष रखना। 
  8. महत्वपूर्ण सांख्यिकीय लक्ष्यों एवं आकड़ों का संकलन एवं विश्लेषण। 
  9. कार्य निश्पादन का मूल्यांकन एवं विश्लेषण। 
  10. वित्तीय अनुसंधान का आयोजन एवं समुचित व्यवस्था करना। वित्त
    नियंत्रक भी भूमिका के बारे में कोहेन एवं राबिन्सन ने अपने विचार निम्नवत
    प्रस्तुत किये हैं- 

‘‘ नियंत्रकों की नवीन भूमिका के बारे में यह कहना अतिष्योक्ति न
होगा कि कतिपय कम्पनियों के प्रबन्ध दल में वह ही ऐसा व्यक्ति है जो
व्यवसाय के सन्दर्भ में अध्यक्ष अथवा प्रबन्ध संचालक से भी अधिक ज्ञान
रखता है।’’

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