स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार | Religious Thoughts of Swami Dayanand Saraswati in hindi

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 1824-1883 ई. में गुजरात के काठि़यावाड़ के टंकारा गांव में हुआ
था। उनका बचपन का नाम मूलशंकर था। 1874 ई. में इलाहाबाद में उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ को पूरा
किया। उन्होंने मूर्तिपूजा, जाति प्रथा, बाल विवाह, धार्मिक आडम्बर और पुराण मत
का विरोध किया। जनभाषा अपनाने के कारण वे बहुत अधिक लोकप्रिय हो गये।
1875 में बंबई में उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। 1883 में 59 वर्ष की आयु
में संस्थापक स्वामी दयानंद का देहान्त हो गया।

स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार (Religious Thoughts of Swami Dayanand Saraswati)

स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार इस प्रकार थे- 

1. वेदों मे आस्था- स्वामी जी वेदों को आध्यात्मिक उन्नति का साधन मानते
थे। वेद स्वयं प्रमाण है। इसी आधार पर उन्होंने मंत्रपाठ हवन यज्ञ आदि
पर विशेष जोर दिया। स्वामी दयानंद का कहना था कि वेद ईश्वरीय है।


2. ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के अस्तित्व में विश्वास-
स्वामी ने ईश्वर,
जीव तथा प्रकृति तीनों को शाश्वत सत्य रुप में स्वीकार किया। उनका
मानना था कि, ईश्वर अर्थात परमात्मा संपूर्ण विश्व में व्याप्त है। वह
सत्चित आनंद स्वरूप है। सृष्टि की रचना करके परमात्मा अपनी
स्वाभाविक रचनात्मक शक्ति का प्रयोग करता है।


3. एकेश्वरवाद मे विश्वास-
स्वामी जी पक्के एकेश्वरवादी थे। उन्हें हिंदूओं
कें अनेक देवी-देवताओं के ‘भक्तिमार्गियों’ के व्यक्ति रूप ईश्वर में विश्वास
नहीं था। आडंम्बर के सिद्धांत को नहीं मानते थे।


4. कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष में विश्वास-
स्वामी दयानंद का कर्म और
पुर्नजन्म के सिद्धांतों मे विश्वास था। कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है।
और उसके अनुसार ही मनुष्य का पुर्नजन्म होता है जन्म मरण के बंधन
और दुखों से छुटकारा पाना ही मोक्ष है।


5. यज्ञ हवन और संस्कारों में विश्वास-
स्वामीजी वैदिक यज्ञ और हवन
को आवश्यक मानते थे। उनका मत था कि संस्कारों के द्वारा शारीरिक
मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास होता है।


6. मूर्तिपूजा तथा अन्य कर्मकांडों का विरोध-
स्वामीजी ने मूर्ति पूजा
का घोर विरोध किया। इसे वे हिंदुओं के पतन का कारण मानते थे।
राष्ट्रीय क्षेत्र में उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक चेतना जागृत की। हिंदुओ में
स्वाभिमान एवं देश प्रेम की भावना को जागृत किया। 

आर्य समाज ने
साहित्यिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किये। हिन्दी भाषा में पुस्तकें
लिखकर हिन्दी भाषा को समृद्ध बनाया। उन्होंने शिक्षण संस्थाओं में सभी जाति के
बच्चों के साथ समान व्यवहार करने को कहा। वे नारी शिक्षा के भी प्रबल समर्थक
थे।

स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार (Social Thoughts of Swami Dayanand Saraswati)

उन्होंने छूआछूत की भावना का घोर विरोध किया। स्वामी दयानंद सरस्वती स्त्री
स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। उनका विचार था कि बिना अच्छी माताओं के राष्ट्र
निर्माण नहीं हो सकता है। बालविवाह, बहुविवाह और दहेज प्रथा का घोर विरोध
किया और विधवा-विवाह का समर्थन किया। स्त्री शिक्षा पर भी उन्होंने विशेष जोर
दिया।

स्वामी दयानंद ने ‘‘भारत भारतीयों के लिये है’’ का नारा दिया। भारतीयों में
आत्मसम्मान और आत्म गौरव की भावना उत्पन्न की।

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