एक दीप कोई जलाओ

एक दीप कोई जलाओ

इस गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जला जाओ,
हे रोद्र तिमिर
तुम गीत कोई गा जाओ ।।
अचल पाषाण की तरह
गुहा
हृदय मेरा निष्ठुर हुआ,
ला अदीप्त लौ कहीं से 
इसे जरा पीघला दो,
इस गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जला दो ।।
न चाहिए वैभव मुझे
न बनना तम का कोई
अद्वितीय सितारा ,
हो काँटे भरी राहें मेरी
हृदय में प्रचिपल दग्ध ज्वाला
जो पथ से भटक जाऊ कभी
अधीर होकर,
बनकर तुम खवैया किस्ती
मेरी चलाओ,
इस गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जलाओ।।
बंधी हुई जंजीरों को 
कोई तो तोड़ दे,
मेरी सारी आकांक्षाओं पर
आ पानी फेर दे,
फिर बना बूँद बूँद औस
मेरे अश्रुओं को बहाओ,
इल गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जलाओ ।।
आहट सी पा किसी की
गुमसुम सी न हो रहूँ मैं,
जीवन की इन बेड़ियों को
बता कैसे चन्द्रहार कहूँ मैं,
जीवन की इस कड़ी से 
कोई मुझे निकालो,
इस गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जलाओ।।
बदल रही परिभाषा 
नए विहान की अब,
है सोचता हर मन 
नए उड़ान की अब,
पर मैं आज भी वहीं हूँ
सहमी सी चौखट में
नयन अश्रु जल से भरमाए,
मुझपर भी विश्वास का चादर कोई चढ़ाओ
इस गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जलाओ ।।
चलते हुए सफर में 
मुझको न भुल जाना,
तुम दूर निकल गए क्या?
जरा लौट कर तो आना,
जिंदा है अभी भी कहीं
मेरी कुंठित अभिलाषाएं
यूँ बीच मझधार में
तुम छोड़कर न जाओ,
इस गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जलाओ ।।
कर लिया जतन खूद
अपनी ही जिंदगानी की,
कोई तो वजूद होगा
इस अनसुलझी कहानी की,
मुझे मेरी दीनता का
एहसास अब दिलाओ,
इस गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जलाओ ।।
तम से प्रकाश मुझ तक
आया नहीं है मुझतक,
तुम बार बार मुझको 
मुझमें नहीं उलझाओ,
आए भला किया बन विपत्ति
अब तो मुझसे विदा लो,
इस गुहा सरीखी में
एक दीप कोई जलाओ ।।।
गुड़िया कुमारी धनबाद,
झारखंड

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