कल की शाम

कल की शाम


एक चौखठ को देखा मैनें,
उस पर एक शाम आराम कर रही थी।
भावनाएें कुछ ठहरी हुई थी,
किसी को समर्पण करने के लिए।
वो घर तुम्हारा था करूणा।

कल की शाम

वो परचित समर्पण तुम्हारी थी,
और बेहिसाब इंतजार मेरा था।
कितनी फुरसत में थी वो शाम,
जो तुम्हारे लिए मद्घम थी,
मेरा एहसास कराने के लिए।
जो थकी थी तुम्हारी,
संवेदनाऐं किसी दीवार की ओट में,
कुछ गरदन झुकाए।
मेरे शुन्य ह्रदय के धड़कन का,
रास्ता देखते-देखते।
हां वो घर तुम्हारा था,
वो रात भी तुम्हारी थी।
जिसमें कहीं मैं,
अपने आप को ढूंढ रहा था।
जैसे वो श्यामल शाम रूकी थी,
या पलभर के लिए एक दुनिया।
सारे दु:ख-दर्द थम गये थे,
कुछ सांसे भी थी मद्धम।
कुछ जीवन की इच्छाऐं भी खामोश थी,
लगता था सदियों के जन्मों का,
कोई कारवां मिल गया था।
वे तुम थे,
वो तुम थे।

– राहुलदेव गौतम 

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