मायका
यह बात अभी कल की है। मेरा मन बहुत ही उदास था। ऐसा लग रहा था जैसे सांस ही ना आ रही हो।
मैं एक छोटे शहर से सम्बन्ध रखती हूं । जी , छोटा शहर जहां एक कोने में कुछ हो तो पूरे शहर को पता लग जाता है । बच्चे घर से बाहर निकलें तो मोहल्ले वालों को आंखें सड़क पर ही टिक जाती हैं , ध्यान रखने के लिए ।
मायका |
अब भले ही यह ध्यान इतना ज़्यादा होता था कि कहां गए, किससे मिले , लड़ाई – झगड़ा , यहां तक कि लुका – छिपी की मुहब्बत भी पता लगा लेते थे। लड़के की शादी हो तो बहू पूरे शहर की होती थी । ऐसे ही लड़की की शादी हो तो दामाद भी पूरे शहर का होता था। जब लड़की मायके आए तो जिससे मिलो , वही मान देता है ।
मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ, अपने घर में सबसे छोटी, सबकी लाड़ली। शादी होकर दिल्ली आ गई। पर जब भी मायके जाती थी तो माता – पिता के साथ – साथ शहर का भी प्यार , मान – सम्मान मिलता था ।
जब वृद्धावस्था दस्तक देती है तो हमारी प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं। माता – पिता की बढ़ती अवस्था देकर हम सब ने ज़ोर देकर उनसे कहा कि किसी दूसरे शहर में निवास बना लो, जहां आपको हर तरह की सुविधा हो । वे लोग मना करते रहे , पर हम लोगों ने दबाव देकर अपनी बात मनवा ही ली। हम इस बात से खुश थे। किन्तु जब जाने का दिन आ गया तो अपनी पूरी ज़िन्दगी , बचपन से लेकर जवानी तक, स्कूल से लेकर शादी तक, तमाम बातें, खेल, नोंक – झोंक आदि – आदि सब एक चलचित्र की तरहआंखों के आगे चलने लगे । तब महसूस हुआ कि कैसे अपनी ज़मीन से हम जुड़े हुए थे ,जिसका अहसास हमें पहले कभी नहीं हुआ। यहां तक कि जब शादी हुई, विदाई हुई तब भी नहीं। पर आज शहर छोड़ते हुए अहसास हुआ कि हमारी जड़ें कितनी गहरी हैं। नए मकान में, नए मायके में हम जाएंगे, रहेंगे, बात करेंगे पर वह अपनापन नहीं लगेगा जो उस छोटे शहर के छोटे से घर में लगता था ।
मुझे ऐसा लग रहा है जैसे आज सचमुच ही मेरी विदाई हो गई, मेरे मायके से, मेरे बचपन से, मेरी यादों से। मेरी आंखें बार – बार भर आतीं हैं , और मैं चुपके से पोंछ लेती हूं।
– इला श्री जायसवाल
नोएडा