कसाई

 कसाई 

बचपन में गोपी मांसाहारी था और एक तरह से मांसाहार का दीवाना ही था। वह प्रायमरी स्कूल में पढ़ता था तो कभी-कभी अपने पिता के साथ मटन खरीदने जाया करता था। कसाई किसी भी रूप में कसाई नहीं लगता था। वह बडे़ अच्छे से बातें किया करता था। लेकिन उसके हाथ मे जो छुरा होता था वह बेहद डरावना था। और गोपी को वही डराता था। हालांकि उसने कभी बकरे को कटते हुए नहीं देखा था। उसके पिताजी के पास जब 
 कसाई

पैसे होते तो वे पुट्ठे का मांस लिया करते थे। चूंकि उस दौर में मांसाहार एक बहुत मंहगा शौक होता था, सो चार-पांच महीने मे एक-आध बार ही उन्हें मांस खाने का मौका लग पाता था। उस दिन वे सारे भाई-बहन बेहद खुश रहते थे। उसके पिता मांसाहारी भोजन बनाने में दक्ष थे। वैसे उन्हे मांसल हिस्सा खरीदने के मौके कम ही मिलते थे। उसके पिता ज्यादहतर बकरे की मुण्डी या फिर पैर ही खरीदते थे। वे बडी़ एकाग्रता से बकरे के पैरों को भूंजते और उसके बालों को निकाल करते थे। वे अपने काम में एकदम ध्यानमग्न होते थे। यह पूरे दिनभर का कार्यक्रम होता था। सुबह के खरीदे हुए पैरों की अपरान्ह लगभग चार बजे तक ही तरकारी बन पाती थी। अभावों के उस दौर में उन्हेें भूख भी बेहद ज़्यादह लगती थी। और वे भाई-बहन गोश्त के उबाले जाने के दौरान जाने के दौरान ही आधा खत्म कर देते थे। वास्तव में भूख की सही तीव्रता का अहसास अभावों के समय ही पता लग पाता है। उसके पिता मटन को उबालते वक़्त ही लहसुन, प्याज हल्दी व मिर्च भी साथ ही डाल दिया करते थे। सो तरकारी पूरी तरह बनने के पहले ही उन्हें उसमें तरकारी का पूरा मजा आता था। और वे सभी भाई-बहन चूल्हे के इर्द-गिर्द इकट्ठे होकर बैठते थे। और गिनती गिना करते थे कि एक हजार तक गिनती ख़त्म होने पर तरकारी तैय्यार हो ही जायेगी।

        हड्डियों और मांस की काट-छांट करने के लिये उनकेे घर पर एक भारी सा काले रंग का छुरा हुआ करता था। लगभग उसी साईज का छुरा कसाई के पास भी होता था। मीडिल स्कूल पहुंचने तक उसकेे पिता की मृत्यु हो गई थी और वे लोग फिर मांसाहार नहीं कर पाने की मजबूरी के कारण पूरी तरह शाकाहारी हो गये थे। खैर फिर धीरे-धीरे उसमें समझ विकसित होने लगी, और मांसाहार के विषय मेें उसकी एक नई धारणा बन गई कि यह बुरी चीज़ है। लेकिन उसके घर में अब भी वह बडा़ वाला छुरा अपने अस्तित्व का अहसास कराता हुआ दीख पड़ता था और उसे कसाई और अपने पिता दोनों ही एक साथ याद आ जाते थे। इस बीच उसे जानवरों के क़त्ल के संबंध में नई-नई जानकारियां मिलने लगीं। उसे पता चला कि दिल्लीं के कुछ इलाकों में सुअर को मारने के लिए बड़ा ही विचित्र और नया तरीका अपनाया जाता है। पुराने तरीके से जब कसाई उन्हें मारते थे, तो उस मारने वाले छुरे को देखकर डर के मारे सुअर अपने अंगों को सिकोड ़लेता था, जिससे उस सुअर का मांस स्वादिष्ट नहीं रह जाता था, सो वहां के कसाई अब दूसरा तरीका अपनाने लगे थे। वे उसे पुचकारते हुए कुछ खिलाते जाते और उसकी गर्दन को सहलाते हुए एक झटके में गर्दन को धड़ से अलग-कर देते। इस तरह से मारे गये सुअर का मांस बड़ा ही स्वादिष्ट होता है, ऐसा कहा जाता था। इस तरह की जानकारी मिलने पर गोपी को बेचारे सुअरों पर तरस आने लगा था जो पुचकारे और सहलाये जाकर अचानक धोखे से मार डाले जाते हैं। ऐसे ही उसनेे कहीं एक आलेख पढ़ा़ था कि कई देशों सहित भारत के कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में भी लोग कुत्ते का मांस खाते हंै। यह उसके लिए शाकिंग न्यूज थी। वह कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि कुत्ते जैसे वफ़ादार जानवर को भी लोग मारकर खा जाते हैं। कुत्तों की वफ़ादारी से तो वह खुद ही बेहद अच्छी तरह से परिचित था। उसने एक देसी नस्ल का कुत्ता पाला था, जो उससे बातें किया करता था। वह उसके आॅफिस से लौटने पर वह शिकायती लहजे में पूछता था कि आप दिन भर कहां थे। मुझे अकेला छोड़कर क्यों चले गये थें। आॅफिस से आते-आते जब गोपी सब्जियों के ठेले से सब्जियां लिया करता तो वह उसके आगे-पीछे घूमता और जब पाता कि उसके खाने लायक कोई चीज नहीं है तो वह शिकायती लहज़े में भौंकता। उस वक्त उसकी भौंक अलग तरह से होती जैसे किसी बच्चे को मनपसंद चीज न मिली हो। ं धीरे-धीरे गोपी उसकी भाषा पूरी तरह समझने लगा था। और वह उसके लिये आॅफिस से आते वक्त कुछ न कुछ खाने का लाने लगा। उसे छी-छी या सू-सू करने भी जाना होता तो वह उसके पास आकर अलग तरीके से आवाज निकाला करता और गोपी उसकी भाषा समझकर उसे बाहर घुमा लाता। उसनेे एक कुत्ते के साथ पिता-पुत्र सा संबंध जिया था। सो कुत्ते को मारकर खाने वाली घटना से उसे भीतर तक दहला दिया था। आगे उस आलेख में कुत्ते को मारने का तरीका भी लिखा हुआ था कि मारने के पहले उसे खूब सारा भात खिलाया जाता है और मारकर उसे साबुत ही भूना जाता है।
      गोपी एक गांव में नौकरी करता था। वह गांव दो राज्यों के बार्डर पर था। चूंकि एक राज्य में गोवध प्रतिबंधित था, सो उस राज्य के गोवंश से संबंधित मवेशियों को दूसरे राज्य के बूचड़खाने में भेजा जाता था। इसमे आवारा मवेशियों के अलावा ऐसी गोमाताएं भी होती थीं, जिन्हे बूढ़ी हो जाने पर उनके मालिक कसाई को बेच दिया करते थे। चूँकि प्रतिबंध के कारण कसाई की हिम्मत नही पड़ती थी कि वह इसी राज्य में उसे काटे, सो वह थोडे़ से लाभ के साथ उन मवेशियों को मवेशी तस्करों को बेच दिया करता था। उस गांव में यूँ तो सभी जाति के लोग रहते थे, पर वह गांव दलित बहुल होने के कारण वहाँ का सरपंच एक दलित ही था। उस गांव में एक ब्राम्हण परिवार रहता था। वह परिवार मूल रूप से उस गांव का नहीं था। उस परिवार का मुखिया गांव की स्कूल में चपरासी था। उसका एक जवान लड़का था, जो पूरी तरह से बर्बाद था। वह तमाम कुकर्म किया करता था। अपनी इन बुरी आदतों को पूरा करने के लिये उसे पैसों की सख़्त जरूरत रहती थी, जिसके लिये वह अवैध वसूली और राहगीरों से लूट-पाट आदि किया करता था।
     इसी गाँव में एक ठाकुर परिवार भी रहता था। किसी जमाने में इस ठाकुर के पूर्वज उस क्षेत्र के जमींदार हुआ करते थे, लेकिन पीढी़ दर पीढी़ उनकी अय्याशी से उनके खेत बिकते चले गये और अब इस परिवार के पास दो
आलोक कुमार सातपुते
आलोक कुमार सातपुते

एकड़ खेत ही बच गये थे, लेकिन वह परिवार अकड़ अब भी जमीदारों जैसी ही दिखाता था। अब जबकि गांव-गांव में सरकारी काम खूल गये थे, सो ग्रामीण मजदूरों की मजदूरी बढ़ गई  थी। भला अब वे क्यों किसी की अकड़ बर्दाशत करते। अब ठाकुर के एक कहने पर लोग उसे दस बातें सुनाने लगे थे। और उनके द्वारा सामूहिक रूप से फै़सला ले लिया गया था कि उसके खेतों में मजदूरी करने कोई नहीं जायेगा। फिर भी उसे न सुधरना था, न ही वह सुधरा।उस ठाकुर के उपर लाखों रूपये का कर्ज था, क्योंकि, उसके ठाठ में तो किसी किस्म की कमी नहीं आई थी। उसका एक लड़का था। वह भी नंबरी नालायक था, और बांभन के लड़के के बाद उस गिरोह का दूसरे नंबर का सरगना था। इसके अलावा गांव के और भी लोफर किस्म के लड़के भी इस गिरोह के सदस्य थे। लेकिन इस गिरोह की वारदातें ज़्यादह दिनों तक नहीं चल पाई, क्योंकि अब लोग पुलिस के पास उनकी शिकायतें करने लगे थे। और पुलिस ने उनपर सख़्ती बरतनी शुरू कर दी थी। कुछ दिनों तक तो इस गिरोह के लोग शांत बैठे रहे, लेकिन बुरी लतों के आदी इन लड़कों की आवश्यकताएं उन्हंे परेशान करने लगीं। इस बीच गिरोह के मुखिया उस बांभन लड़के को एक नई बात पता चली कि चूंकि इस राज्य में गोवध प्रतिबंधित है, सो पडा़ेसी राज्य में गोवंश की तस्करी की जाती है और उसे एक आयडिया सूंझा। उसने अपने गांव में गौरक्षा दल का गठन कर लिया। इस दल में उसके गिरोह के सभी सदस्य थे, पर चूंकि गांव के मुखियां की सहमति के बिना इस दल को मान्यता मिलनी नहीं थी। सो उन्हांेने उस दलित सरपंच को भी अपने दल में शामिल कर लिया। सरपंच को गोरक्षा दल का अध्यक्ष बना दिया गया। उधर वह दलित सरपंच गोमाता की सुरक्षा और उसे कसाइयों के हाथों से बचाने के पुनीत कार्य में सहयोग देने के उदेदश्य से उनके साथ शामिल हो गया। अब गिरोह का मुख्य कार्य था हाईवे पर होती मवेशियों की तस्करी को रोकना था। उस गोरक्षा दल के सदस्य मवेशियों से भरे ट्रकों को पकड़कर उन्हंे वापस लौटने के लिए बाध्य कर देते थे। वास्तव में यह सिर्फ़ दिखाने के लिये होता था। वे ट्रकों को बीस किलोमीटर दूर वापस लौटाते और वहां एक कच्चें रास्ते से उन्हे दूसरे राज्य में प्रवेश करा देते थे। मेाड़ पर उस गिरोह का एक सदस्य बैठा होता था। वे तस्कर को अगली बार हाइवे न जाकर उसी रास्ते से होकर जाने की हिदायत भी दे देते। इसके एवज़ में तस्कर उन्हे मुंहमांगी रकम दे देते थे। इस तरह उन्होंने तस्करों को दूसरे राज्य में प्रवेश कराने का धंधा खोल लिया थां। अब उनका यह धंधा चल निकला। उधर दलित सरपंच को उनकी करतूतों की भनक भी नहीं लग पाई, क्योंकि वे उसके सामने से तो मवेशियों से भरी ट्रकों को वापस लौटाते थे। इस बीच उस क्षेत्र के थाने में एक बांभन थानेदार आ गया और उसने उनकी करतूतों को पकड़ लिया। उधर उस बांभन लड़के ने अपने सजातीय होने का फायदा उठाते हुए गउ को अपनी माता बताना शुरू कर दिया। चंूकि गोरक्षा दल का अध्यक्ष वह दलित सरपंच था और वह चमार जाति का ही था, सो सारा दोष उसी पर मढ़ दिया गया। यह बात सार्वजनिक रूप से मान भी ली गई कि बांभन गोरक्षक होते हंै जबकि दलित गोभक्षक। गोमाता की स्मगलिंग का पता चलते ही गांव वालों ने सरपंच को ही पीटना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद संरपंच को गोमाता की स्मगलिंग के अपराध में जेल हो गई,जबकि वो बांभन और ठाकुर आज भी मूंछों पर ताव देते घूमते हैं।उन्हें सामने देखकर गोपी के मुंह से बरबस ही निकल जाता है- साले कसाई।

                                   

                                                                                         आलोक कुमार सातपुते                                                                                         832, हाउसिंग बोर्ड काॅलोनी सड्डू, रायपुर (छ.ग.)                                                                                     मोबाइल –  09827406575   

You May Also Like