ख्यालों का समन्दर

ख्यालों का समन्दर

एक माँ ही थी।
जो मेरी कामयाबी पर,
बेहिसाब खुश रहा करती थी।
लोग तो मुस्कुराते है सिर्फ,
मुझें खुश करने के लिए।

ख्यालों का समन्दर
ख्यालों का समन्दर

दिल क्यों धड़कता है?
पूछ बैठा उस शक्स से,
जो पत्थर तराशता है।

दुनिया से जल-जल कर
क्या पाया मैनें?
चिता पर जलाने वाले मुझें,
मेरे-अपनें ही थे।

जब से दोस्ती शुरू की..
पता चला मुझको,
दुश्मनों के तादात में इजाफा हो गया।

जो कभी खोले नही थे,
अपने आँखों के परदे।
आज उसका दरवाजा भी खुला था।
खिड़कियाँ भी खुली थी,
बड़ी देर से मेरे मय्यत पर..
लोगों का तमाशा जो हो रहा था।

   

आज की बात

एक शमशान मेरे अन्दर भी है।
मुझें पता है मेरे प्यार का हस्र,
उस दिन मैं भी जला दूंगा इसका शक्ल
सुना है चिता की आग हर हाल में जल जाती है।

मुझें पता है तुम अपना वक्त,
जिम्मेदारियों में काट देते हो।
मैं भी कहां हूं खाली,
बची उम्र अल्फा़जो को लिखने में काट देता हूं।

अब न तो मेरे लिए दिन है..
न अब मेरे लिए रात
अब मैं बटवारे में टूट चुका मकान का दीवार हूं।

मेरे मन के आँगन में भी,
एक गुलाब खिला था।
लेकिन उसके कांटे,
ता मेरे जिस्म को चीर गया।

अब कहां है इल्म की इज्जत
जब से लोग बच्चों का नकाब पहने है।
फिर भी खुश नही होते है ये बच्चे,
जरूरत से ज्यादा भावनाओं से खेलकर।

अब रिश्ते कहां दिल से बनाते है लोग।
बस अब खा लेते है रिश्ते हिसाब से
सुना है अब लोगों को रिश्ते भी नही पचते।

मुकम्मल जनाजा भी नही था उसका।
लगता था दोस्त ने..
किसी के खुशियों के लिए
बहुत पहले ही खा़क में मिल गया था।


– राहुलदेव गौतम

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