दास्तान-ए-गरीब

दास्तान-ए-गरीब

उम्मीदों से भरा जहन में एक अरमान है
मगर कर दे हक़ीक़त कहां ऐसा इंसान है।
बहुत सजाए है मैने इस जिंदगी में ख़्वाब तो
मगर कर दे हक़ीक़त कहां ऐसा फरमान है।।

जरा-सा ख़्वाब क्या देखा निशाना बन गया
थोड़ी ठोकर क्या खाई मुसाफ़िर बन गया।

दास्तान-ए-गरीब

रह जाने दो मुझे मेरी बस्ती मैं कुछ वक़्त और
इतना बुरा नहीं हूं अब क्या अपराधी बन गया।।
धनवानों के साथ मुझे तराजू पर तोला
ग़रीबी ही तेरी वास्तविक्ता है उन्होंने बोला।
ख्वाहिशें छोड़कर जरुरत की गली से मुड़ा
उन्हें क्या मालूम किस कदर कांटो पर चला।।

नम चश्म लिए अंधेरी रात बिताया करता हूं
परिवार भरपेट खाये यही फरियाद करता हूं।
कोई फरिश्ता आएगा मदद के लिए इस बार
हर रोज इसी फिराक में रात गुज़ारा करता हूं।।

कुछ कर गुजरने की औकात तो बहुत थी मेरी
सबसे लड़ा मगर फिर इस जमाने ने ले ली मेरी।
खोया बहुत है मैने इस संसार के मायाजाल में
मगर अब जो है उसी का शुक्रिया करती है रूह मेरी।।

सफर जिंदगी का मुझे अब कठिन-सा लगता है
हर तरफ हर कोई यहां मुझे पराया-सा लगता है।
परख कर भेजा कर तेरे इंसान को ऐ मेरे खुदा
थोड़े उपकार के बाद ही मुझसे हिसाब मांगता है।।

जहन में समेटता रहता हूं वो दर्द की नज़्म पुरानी
झोली में कभी-कभी ही बिखेरते है फरिश्ते रोशनी।
जद्दोजहद इस बेरहम जिंदगी से बहुत हुई ‘कुम्भज’
स्याही से लिख डाल मेरे बीते संघर्ष की कहानी।।


– कुम्भज आशीष

शिक्षा – स्नातक 

व्यवसाय – स्वतंत्र लेखक

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