देहरी पर धूप – सेदोका संग्रह

 प्रकृति के खनकते शब्दों से रिश्ते जोड़ने का अभिप्राय बताती सेदोका 

                            

क बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तित्व कृष्णा वर्मा जी के  कैनेडा से हिंदी के इस पहले  सेदोका संग्रह में कुल 352 सेदोका संग्रहित हैं जो विविध भावों के साथ प्रस्तुत हुए हैं | ‘देहरी पर धूप’को पढ़ते हुए मेरे मन मष्तिष्क में विविध रंग आते-जाते रहे लेकिन जो सबसे ज्यादा प्रभावी रहे उनका केन्द्रीय भाव प्रकृति के सलोने रूप का वर्णन और सीख देते हुए किसी शिक्षक की सी भूमिका वाले सेदोका ने एक नया छाप छोड़ा | सेदोका को लोकप्रिय विधा बनाने में लगे हुए सभी रचनाकारों का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि यह जापानी साहित्य विधा की अन्य विधाओं के मुकाबले कम प्रचलित है | इसकी संरचना में 6 पंक्तियाँ होती हैं जो क्रमशः 5,7,7,5,7,7=38 वर्णीय होते हैं , इनमें भी कविता का तत्व होना उतना ही अनिवार्य है जितना की अन्य विधाओं के लिए है |

           अपने इस संग्रह में नाम के अनुरुप ही धूप के दोनों रूपों भोर और साँझ का अति सुन्दर वर्णन आपने शब्दांकित किया है जिन्हें किसी अन्य टिप्पणी के सहारे की आवश्यकता नहीं है –

-आसमान ज्यों/किराए का मकान/करता है प्रदान/दिन औ रात/रौशनियों का मेला/स्वर्ण कभी रजत| 171

-लीपती भोर/नारंगी आकाश औ/भरती नव श्वास/प्रात पवन/बजता ज्यों संतूर/पंछी गाए सुदूर|176

-भोर की बेला/ऊषा ले अँगड़ाई/उतरी अँगना जो/हौले-हौले से/गुनगुनी-सी धूप/देहरी मुसकाए|224

-स्वर्णिम गोला/ओढ़ केसरी चोला/किरणों का ले टोला/चढ़े आकाश/करता प्रज्वलित/नित्य नई प्रभात|316

         

देहरी पर धूप
देहरी पर धूप

भोर होते ही हवाओं का आनंद मिलने लगता है चाहे वह पुरवाई हो या मंद -मंद सुवासित वायु लेकिन जब शीत और ग्रीष्म की हवा चलती है तब यह हवा धमकी देने वाले अंदाज़ के तेवर रखती है | यहाँ हवाओं से सरगोशियाँ करते हुए पत्तों की बातें और नदियों में हवाओं से लहरों की चूड़ियाँ बजाना अद्भुत दृश्य उत्पन्न करते हुए प्रकट हुए हैं  

-चले जो हवा/मुँह से मुँह जोड़/बतियाते हैं पात/हँसी-ठिठोली/दे-देके ताली कहें/इक दूजे की बात| 332

-छुआ हवा के/हाथों ने हौले से/नदिया के नीर को/बज उठी हैं/नदी की कलाई में/लहरों की चूड़ियाँ|348

           प्रकृति पर जितना भी लिखा जाए वह कम ही होता है क्योंकि इसका सौन्दर्य सर्वत्र बिखरा हुआ है देखने के लिए चाहिए सिर्फ संवेदना और लिपिबद्ध करने को एक रचनाकार सा मन |ऋतुराज बसंत के आने से सम्पूर्ण चराचर जगत अपने यौवन की उफान पर होता है ;यहाँ सेदोका में कृष्णा जी लिखती हैं कि-बूढ़े बरगद पे यौवन चढ़ आया एवं ……मनवा बौरा गया |  

-घूमें दिशाएँ/गंध ढोल पिटती/हवा मचाए शोर/सृष्टि हैरान/पूछती है आया क्या/बसंत चितचोर|302

-लुकी रजाई/सिमटा जो कोहरा/आया बसंत छोरा/रंग धमाल/टपक रही ख़ुशी/फूल-पात औ डाल|307

-तितलियाँ आ/फूलों से बतियाएँ/कहती क्या कानों में/फूल मुस्काएँ/हवा की हथेली पे/सुगन्धियाँ रचाएँ|345

          चाँदनी रात ,चाँद और तारों के कितने ही उद्धहरण से साहित्य अटा पड़ा है लेकिन यहाँ तारों द्वारा लहरों को थपकियाँ देकर सुलाना और सूरज को जलोकड़ा कहना बिलकुल ही नया है ,ताजगी से भरे हुए हैं ये सेदोका-  

-टिमके तारे/रात के अँधेरे में/नदी में डोल-डोल/दें थपकियाँ/मीठी लोरियाँ गाएँ/लहरों को सुलाएँ|174

-छिटके चाँद/रात भर नहाई/धरती चाँदनी में/सह ना पाया/सूरज जलोकड़ा/दिन भर सुलगा|329  

              शीत ऋतु में कोहरा ,धुन्ध ,रजाई और हिमपात का आँखों देखा वर्णन ही हम इसे कह सकते हैं कि किस प्रकार घाटियाँ जमी हुई हैं उस पर सूर्य का धूप की रजाई ओढ़ाना अच्छा दृश्य उत्पन्न कर रहा है –

-सिमटी नर्म/कोहरे की चादर/बेपर्दा बैठी धूप/तानी फिजाएँ/भौंरा कसमसाया/देख कली का रूप| 177

-हिम से भरी/निगोड़े आकाश ने/कलसी पलटाई/ठिठुरी घाटी/सूरज ओढ़ा गया/आ धूप की रजाई|310    

           वर्षा ऋतु के अपने अलग अंदाज़ हैं कभी वह ढोल के साथ गरजते हुए आती है तो कभी बूँदों के नृत्य से वसुधा का मनोरंजन करते हुए उसे तृप्त करती है | आपने अपने सेदोका के माध्यम से कुछ नए शब्दों का प्रयोग किया है जो स्वागतेय है जैसे-मिजानिन घटा, हवा-बौछारों को लड़ाए , सावन डाकिया लाता पुरानी यादों के ख़त,कौन डाले नकेल, नाज़ुक बूँदें रो-रो धरा भिगोएँ …आदि | इन सबके साथ इन सेदोका का सौन्दर्य बढ़ गया है-

-जादू बिखेरा/बूँदों ने बरस के/हुई षोडशी उर्वी/झनक उठे/शाखों पर पल्लव/खनके ज्यों चूड़ियाँ|190

-बड़ा सुहाना/बारिशों का मौसम/भीगे थे बचपन/बड़े क्या हुए/आए जब सावन/बस भीगता मन|208

-ठेलें हवाएँ/तारों पर झूलतीं/माणिक झालरों- सी/असंख्य बूँदें/इठला-इठला के/दौड़ती दाएँ-बाएँ|215

          प्रकृति पर इंसानी लालच को पूरा करने का दबाव हमारे समक्ष घातक प्रभाव लेकर प्रकट हुआ है ;इसे आज हम सब प्रदूषण की सुरसा के नाम से जानते हैं और सम्पूर्ण मानव जगत की इसमें बराबर की भागीदारी है | यदा-कदा ही कोई बिरला इसके संरक्षण को प्रस्तुत होता है ;यह दौर भी रचनाकार की नजरों ने कैद किया  अपने सेदोका की दुनिया में यह अलख जगाने के लिए कि-अहिंसक कृषि और पौधरोपण के लिए हमारे चेतने का अब अंतिम वक्त आ गया है- 

-प्रदूषण ने/कर डाला गंगा को/हाय कितना मैला/प्रवाहित ना/होना चाहेंगेअब/किसी अस्थि के फूल|163

-मत कराओ/कृषक किशोरी को/नाहक विषपान/इससे जन्मा/फल अनाज भक्ष/हारोगे निज प्राण| 166

          मानव एक सामजिक प्राणी है और उसे अपने संबंधों के साथ जीवन का निर्वाह करना होता है लेकिन आज के इस वैश्विक युग ने इसे सब कुछ यांत्रिक और जरूरतों पर आधारित कर दिया है |रिश्तों की अहमियत तब समझ में आती है जब चिड़िया खेत चुग चुकी होती है या उसे ये समझ में नहीं आता कि अब क्या करें ,कहाँ जाएँ ,किससे ,कैसे कहें ? ऐसे ही सवालों के साथ आपके इन सेदोका का रिश्ता निभाना सभी को भा जाएगा-

 -मरी है शर्म/कैसे करें बयान/सूखा आँख का पानी/ढोएँ माँ-बाप/जिम्मेदारी का बोझ/बच्चों की मनमानी|52

-है अनमोल/यह खून के रिश्ते/गँवाना ना बेकार/देके अपना/उन्हें हिस्सा रोक लो/आँगन में दीवार| 119

-ईर्ष्या की आग/लग जाए दिल में/भड़कती अखंड/होती प्रचंड/रिश्ते हों खंड-खंड/लूटे चैन आनंद|231

-मैं तो बेटी हूँ/माँ की आँख का पानी/बाबा की नन्ही रानी/दीप -सी जलूँ/पीहर में परायी/सासरे में बेगानी|253

          आपकी रचनाओं में किसी शिक्षक की तरह सीख अवश्य मिलती है ये आपका अनुभव बोलता है कि व्यक्ति को किस स्थान पर कैसे निभाना चाहिए ताकि जीवन की नैया सुखपूर्वक पार लग सके | यहाँ भी ये सेदोका यही सन्देश लिए हुए प्रकट हुए हैं जो सभी के लिए बेहद ही अहम हैं –

-दमन करो/नफरत का प्यारे/छोड़ो द्वेष-लड़ाई/मन-देहरी/धरो दीप नेह का/हर्षेंगे रघुराई|4

-प्रीत का दीप/जला दिल देहरी/रख नेक इरादे/मिट जाएगा/तम इस और भी/और उस और भी|20

-मुख जो खोलो/शब्दों के चयन को/हज़ार बार तोलो/हों वे सहज/बोलोतो फूल झरें/चुभे न व्यंग्य शूल|63

-सुन बिटिया/बेदर्द जगत में/भरे हुए शैतान/फूँक-फूँक के/कदम उठाना तू/लूटे नहीं सम्मान| 248

         जिंदगी की आपाधापी में बहुत से पड़ाव ऐसे आते हैं जिनसे हम सभी को दो-चार होना ही पड़ता है इसलिए ऐसे वक्तों को भी अपने सेदोका में बहुत ही करीने से आपने सजाया है –

-बन न पाई/शहतूत सी ठंडी/छाँव कभी ज़िन्दगी/चुभती रही/बबूल-सी,रेत-सी/किरकिराती रही| 3

-भ्रष्टाचार से/घायल है सभ्यता/बीमार हैं संस्कार/चोरी-डकैती/लूट व बलात्कार/हुआ इनसे प्यार|144

         जीवन में सच-झूठ का अपना अलग महत्त्व है क्योंकि सच के सहारे जीवन नैया पार होगी -अकेले ही ,वहीं झूठ की भीड़ में यहीं फँस के रह जाना होता है | इन सबका सम्बन्ध वक्त के साथ ही तय होता है कि क्या करें और क्या ना करें अर्थात किसका दामन थामें ;ऐसे ही कुछ कहते हुए ये सेदोका देखिए-

-सच के बोल/कब लगते भले/उतरें कब गले/मौन साध के/सच  टँगता सूली/झूठ बेल ही फूली| 93

-लम्पट काल/झूठ का बोल-बाला/झूठ का सुर ताल/झूठ आयाम/झूठ का गुनगान/सत्य हुआ अनाम|106

          जीवन में बीती हुई बातों की गाठें और पोटली अक्सर फुर्सत में खुल जाया करती है या जब कोई अपना सा हमें लगने लगता है तब हमीं खुद ये पिटारा खोल अपनी यादें उनसे बाँटने फ़ैल जाते हैं | यादों के आँगन में फुदकते हुए इन पंछियों को कृष्णा जी के सेदोका ने आमंत्रित किया हुआ है –

-यादों के पंछी/जब-जब आ बैठें/मन के अँगना में/हिला जाते हैं/अनजाने में कहीं/वह दिल के तार|40

-यादें निगोड़ी/दिल के कमरे में/परछाई सी डोलें/तड़पा जाएँ/बीती वक्ती बातों से/जब गर्द उड़ाएँ|80

          मिट्टी के पुतले मानव का गुमान कभी भी उसके प्रभु से बड़ा नहीं हुआ और जब भी वह ऐसा करने की सोचता है तब उसे उसकी औकात पता चल ही जाती है कि वह कितने गहरे पानी में है |अपने आपको ईश्वर मानने की भूल करने वाले अक्सर बदनामी के दलदल में धँसे हुए पाए जाते हैं | कान्हा और राधा की गोपियों के संग की लीला का सबने प्रवचन सुना और भजा है इन्हीं भावों के सेदोका देखिए-

-प्रत्येक भीड़/कुम्भ का मेला नहीं/भीड़ भेड़ में फर्क/देख,कूदना/कौन जाने किधर/हाँक दे गडरिया| 21

-मिटटी के हम/औ बनाए हमने/रेत के ही मकान/थमा न कभी/सिलसिला तूफानी/फिर कैसा गुमान|148

-जीवन-मृत्यु/खेलें जीवन भर/दाँव-पेंच कुटिल/क्षणिक जीत/चाहे हो जीवन की/बाजी मृत्यु ही मारे| 151

-क्यों रे कान्हा/क्यों छेड़े ऐसी तान/सुध-बुध बिसरा/दौड़ें गोपियाँ/अदृश्य डोर संग/वशीभूत हो जाएँ|284

            जीवन का ढाई आखर जिसने समझ लिया वह प्रेम के वशीभूत होकर तर जाता है जो इनसे इर्ष्या करता है उसका जीवन इसी की अग्नि में भस्म होकर रह जाता है | इस जीवन के चार दिन की जिंदगी में प्रेम की अपनी अलग दुनिया है जहाँ किसी का कोई भी नियम-कानून नहीं चलता | यहाँ मन की सत्ता प्रमुख होती है जहाँ संयोग और वियोग की दिल लगी होती है | श्रृंगार रस से ओतप्रोत इन सेदोका का सौन्दर्य निहारने को जी चाहता है-           

-हाथों में हाथ/पाके प्रणयी साथ/अखियाँ लजाई जो/दहके गाल/मन की बत्तियाँ तो/बोलें लोललोचन|189

-प्रेम जुनून/कायदा ना कानून/मिटना लगे चंगा/जले बेबाक/एक ओर दीपक/दूजी ओर पतंगा| 294

          यह एक पठनीय और संग्रहणीय शोध ग्रन्थ है जो आने वाले समय में नवलेखकों का मार्गदर्शन करेगी | इससे हिंदी साहित्य का गौरव बढ़ा है और विदेशों में भी इसने अपनी पताका फहरायी है | ‘देहरी पर धूप’ एक अद्भुत सेदोका का संग्रह है जिसे जितना पढ़ना चाहें उतना ही कम लगता है |इसके शब्दों को सलीके से बाँचने की आवश्यकता है क्योंकि ये बहुत गहरे अर्थ लिए हुए हैं इसलिए इस संग्रह को पढ़ने पर एक ही बात कहना चाहूँगा-

 

-पढ़ लेने का/यदि होता सलीका/तो पढ़ लेते मौन/जो अनदेखा/आँख के आँसुओं में/भीगी बातों का सार| 43

मेरी अशेष शुभकामनाएँ-

 

रमेश कुमार सोनी (बसना)छत्तीसगढ़ 

एल.आई.जी.24 कबीर नगर ,फेज -2 रायपुर

संपर्क -7049355476

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देहरी पर धूप -सेदोका संग्रह 2020 – , कृष्णा वर्मा- कनाडा
प्रकाशक-अयन प्रकाशन -महरौली ,नई दिल्ली-110030

ISBN NO.-978-93-89999-35-8    मूल्य-200 /-रु. ,  पृष्ठ-96


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