नयेपन की तालाश / विचार मंथन

मनोज सिंह 
अब इसे मानव का स्वभाव कहें, चाहत या फितरत, वह हर वक्त कुछ नये की तलाश में रहता है। हर किसी चीज में परिवर्तन चाहता है। मगर एक नजर मानव की सोच और उसकी गतिविधियों पर डालें तो यहां विरोधाभास भी है। मनुष्य अमूमन अपने जीवन में, वृहद् दृष्टि से देखे तो, स्थायीत्व को पसंद करता है और उसी में जीना चाहता है। जंगल में जीव-जन्तु-जानवर भी अचानक किसी नये के आगमन या वातावरण व परिवेश में हुए तीव्र परिवर्तन से भयभीत हो जाते हैं और कई बार बचकर इधर-उधर भागने लगते हैं। हम अपने आसपास की परिस्थितियों के आदी हो जाते हैं और उसमें किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। यह अवस्था उस वक्त अधिक प्रबल होती है जब हमारा जीवन शांत, सुखमय और यथासंभव सामंजस्यपूर्ण और हमारी मूल आवश्यकताओं के अनुरूप चलता रहता है। उदाहरणार्थ हम स्थानांतरण से बचने का प्रयास करते हैं और एक ही जगह पदस्थ बने रहने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। हास्यास्पद स्थिति तो तब देखी जा सकती है जब किसी कठिनाई में जीने वाला व्यक्ति भी अपनी परिस्थितियों का आदी हो चुका होता है। इतना अधिक कि वो इस बात को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होता कि होने वाला परिवर्तन उसके हित में हो सकता है। यह तब तक स्वीकार्य नहीं होता, जब तक मुश्किलें असहनीय न हो जाये। वरना वो जहां जैसा है उसी में बने रहने की कोशिश करता है। असल में आम व्यक्ति निर्णय लेने से डरता है। प्रमुख और बड़े मुद्दों पर कुछ नया नहीं करना चाहता। इसे एक संकीर्ण या यांत्रिकी सोच कह सकते हैं। यह आलस्य और अनिश्चितता के डर के कारण भी हो सकता है। वो जिंदगी किसी भी तरह बस बिताने में विश्वास करता है। और इसीलिए किसी भी अनावश्यक अधिक उतार-चढ़ाव से बचने के चक्कर में रहता है। मगर उन लोगों के लिए जो कुछ नया करने में विश्वास करते हैं उनके मन में सदा एक जुनून होता है तभी वे उत्साह में कहते पाये जाते हैं कि उठो और आगे बढ़ो। समाज सदा से इनके आगे नतमस्तक होता आया है। ये लोग समय के साथ संघर्ष करते हैं। ये वही हो सकते हैं जिन्होंने जीवनपर्यंत नयी-नयी मुश्किलों का सामना किया हो। जो आगे बढ़कर जीवन में नये फैसले लेने के लिए तत्पर रहते हैं। जीत भी उसी की होती है जो खेलने में यकीन रखता है। हां, इस चक्कर में हार अर्थात किसी नुकसान की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। मगर यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जो प्रयास ही नहीं करेगा उसे कुछ भी हासिल नहीं होगा। असल में कुछ नया करने और पाने की इच्छा ही मनुष्य को आगे बढ़ाती है। उसके जीवन को प्रेरित व प्रभावित करती है। जीवन में नयी जान फूंकती है।
बहरहाल, इस सतत नयेपन की चाहत का चक्कर अपने आप में रोचक है। आम मनुष्य के दैनिक जीवन में इसे देखा जा सकता है। कहां से शुरू करें। चलिये, सर्वप्रथम खान-पान से ही ले लेते हैं। आमतौर पर एक ही तरह का खाना खाते-खाते बोर हो जाने पर कुछ नये खाने-पकाने की तालाश शुरू हो जाती है। यह तो बहुत बड़ी बात हो गई, सामान्य घरों में भी सुबह का खाया दोपहर और शाम को खाना पसंद नहीं किया जाता। असल में हमें हर भोजन में कुछ नये-नये व्यंजन की तलाश होती है। इसे हम स्वाद से जोड़कर देख सकते हैं। हर सभ्यता में विभिन्न पकवानों की लंबी सूची इसलिए बन पायी। हकीकत में यह हमारी उसी नयेपन की चाहत का परिणाम होता है क्योंकि शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने की बात को देखें तो स्वाद में भिन्नता का कोई प्रमुख योगदान नहीं। इस खान-पान में परिवर्तन के लिए हम इतने उद्विग्न हो जाते हैं कि गृहिणियों के लिए घर का मात्र खाना पकाना और उसकी योजना बनाने में ही पूरा दिन लग जाता है। यह स्वाद के नयेपन की चाहत ही है कि एक पूरी पाक-कला का जन्म हुआ। और तो और हर दिन इसमें नये-नये प्रयोग होते रहते हैं। मजेदारी तो तब देखने में आती है जब हम होटल में जाकर भी बेयरे से यह पूछते पाये जाते हैं कि आज विशिष्ट क्या बना है? शायद इसी कारण से होटलों में भी बावर्ची को सर्वाधिक तनख्वाह दी जाती है। उसका महत्व अन्य कर्मचारियों-अधिकारियों से अधिक होता है। प्रमुख बावर्ची का तो अपना एक रुतबा होता है। मात्र एक हलवाई के नाम पर मशहूर मिठाई व अन्य खानपान की दुकानों को खूब चलते हुए कई कस्बों और शहरों में आम देखा जा सकता है। खान-पान की इस प्रयोगशाला में सभ्यता और संस्कृति का मिलन भी कम रोचक नहीं। मध्यकाल में पूरब के मसालों के लिए पश्चिमी देशों ने कितने युद्ध किये? इस चक्कर में कितने नये समुद्री मार्गों की खोज तक कर दी गयी। यह सब इतिहास में दर्ज है। आज आधुनिक युग में एक-दूसरे के खानपान को जिस तरह से हाथोंहाथ लिया जाता है उसके पीछे और कुछ नहीं, नये व्यंजन के स्वाद की तलाश का वही कीटाणु है जो कुछ नया करने के लिए प्रेरित करता रहता है।
खानपान से बाहर निकलें तो रहन-सहन, वेशभूषा, शृंगार, आभूषण शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र बचता हैं जहां हम नित नये के चक्कर में न पड़ते हों। इसे हम आम जीवन में सामान्य रूप से देख सकते हैं कि किस तरह से लोग पुराने कपड़ों से बोर हो जाते हैं। महिलाओं में इसकी प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। घर-परिवार के हर प्रमुख कार्यक्रम में इन्हें नये वस्त्र व आभूषण चाहिए। दुकानों पर जाकर भी अमूमन यही पूछा जाता है कि हमें नये से नये डिजाइन दिखाइयेगा। कपड़े खरीदते समय हम नवीनतम फैशन के चक्कर में रहते हैं। फैशन डिजाइनर इसी बात की तो कमाई खाते हैं। संपूर्ण उपभोग व्यवसाय को अगर ध्यान से देखें तो इसके केंद्र में उपभोक्ता के नयेपन की चाहत ही होती है। बाजार में हर दुकान की सजावट व रखरखाव से लेकर माल बेचने की प्रक्रिया के पीछे इस नयेपन की चाहत को ही संतुष्ट करने की मानसिकता छिपा होती है। जिससे आम उपभोक्ता उस तक आकर्षित हो। यहां इस नयेपन की तालाश को स्वभाव कह देना शायद अतिशयोक्ति लगे लेकिन बिना किसी पूर्वाग्रह के अगर हम इसे ध्यानपूर्वक देखें तो यह हमारी प्रवृत्ति में इस हद तक शामिल हो चुका है कि हम इससे चाहे भी तो अलग नहीं हो सकते। और फिर स्वभाव इसलिए भी कि हम इसके आदी हो चुके हैं और यह हमारी जीवनशैली का एक अंग बन चुका है। इसके लिए हम किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते हैं फिर चाहे इससे हमारा नुकसान ही क्यों न हो। नयेपन की तलाश साहित्य, संगीत, कला में भी खूब देखी जा सकती है। राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्थाओं में अवाम आवश्यकतानुसार नये परिवर्तन चाहता है। अर्थशास्त्र भी नये-नये प्रयोग करता रहता है और विज्ञान तो फिर नये की खोज पर ही आधारित है। उधर, पुरुष-महिला संबंधों के मूल काम-भावना में भी, इस नयेपन का अहम रोल है। हम अपने जीवनसाथी के साथ नित नये-नये प्रयोग करने के लिए सदैव आतुर होते हैं। यह हमारी चाहत होती है, एक प्यास जो कभी नहीं मिटती।
हम अपने घरों के रंग बदलते रहते हैं। पैसों की उपलब्धता होने पर घर का साज-समान तक बदल दिया जाता है। कार-मोटरसाइकिलों के नये-नये माडल बाजार में बिखरे पड़े हैं। इलेक्ट्रानिक्स सामान ने तो मानो इस नये के चक्कर को हवा ही दे दी हो। हर दिन इलेक्ट्रानिक्स माल अपने नये रंग-रूप के साथ बाजार में उपस्थित होता है। मोबाइल से लेकर कंप्यूटर-लैपटाप के रंग-बिरंगे प्रोडक्ट नये-नये फीचरों के साथ। उपभोग ही नहीं खेल व मनोरंजन के क्षेत्र तक में नये का चक्कर है। खेलों के फार्मेट बदले जाते हैं तो मनोरंजन में नये-नये प्रयोग होते रहते हैं। सिर्फ भौतिकी ही नहीं यहां तक कि हमने अपने भावनात्मक रिश्तों में भी आधुनिकता के नाम पर नये-नये प्रयोग किये हैं। प्राचीन से लेकर आधुनिकतम सभ्यता-संस्कृति में तरह-तरह के त्योहार, रोजमर्रा के जीवन से हटकर कुछ नये की तलाश का परिणाम है। समाज के विभिन्न धार्मिक उत्सव, कार्यक्रम, तमाम पारिवारिक संस्कार जीवन में नयापन लाने के लिए ही है। नया साल का कार्यक्रम भी इसी का एक छोटा-सा रूप है जिसे हर सभ्यता ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित कर रखा है। पर्यटन, घूमना-फिरना कुछ नये के देखने की चाहत ही है। 
प्रकृति को ही देखें यहां नित नये-नये परिवर्तन होते रहते हैं। विनाश और सृजन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। कुछ भी तो स्थायी नहीं। और जो हमें अपनी दृष्टि या अहसास से स्थिर महसूस होता है, वह वास्तव में हमारा भ्रम ही होता है। वो हकीकत में कहीं न कहीं किसी न किसी केंद्र के चारों ओर स्वयं को परिवर्तनशील रखे हुए होता है। प्रकृति में निरंतर परिवर्तन एक बड़ी रोमांचकारी और हतप्रभ करने वाली प्रक्रिया है। मानवीय जीवन के लिए भी ऐसा ही कुछ है। भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, सोचकर ही रहस्य-रोमांच से लेकर डर बढ़ जाता है। यूं तो समस्त प्रकृति का मूल सिद्धांत ही परिवर्तन है। हो सकता है कि मनुष्य ने अपना यह नयेपन का स्वभाव अपने जन्मदाता से ही लिया हो। चूंकि यह किसी आनुवंशिक जींस की तरह हमारे जीवन से लेकर हमारे समाज, परिवार, सोच-विचार, साहित्य, धर्म, परिवार, रिश्ते, भावनाएं हर जगह फैला हुआ है।
बहरहाल, इन सबके बीच हम यह भूल जाते हैं कि जीवन का हर पल एक नयी करवट के साथ, नये परिदृश्य में नये उत्साह के साथ, नयी दिशा में ले जाने के लिए स्वयं प्रेरित होता रहता है। अतः, जीवन के इस हर पल बदलते नये रंग-रूप को हम एक दर्शक की भांति चुपचाप देखें और आनंद लें।
 

यह लेख मनोज सिंह जी द्वारा लिखा गया है . आप कहानीकार ,स्तंभकार तथा कवि के रूप में प्रसिद्ध है . आपकी ‘बंधन’,व्यक्तित्व का प्रभाव ,कशमकश’ आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है .



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