न्यूज़ की हेडलाइंस से आखिरी इंसानियत तक

सपाट बयान

तंत्र !
विश्व की परिधि पर
घूमता एक ऐसा
दोगला शब्द है,
जिसका हम
बेवजह गण बन बैठे है।
चाबुक से पनपते घाव को
सहने के लिए,
यह गण बंधुआ मजदूर की तरह
अपने आप में,
घुटनें टिकाए बैठें है
और न्याय की कुर्सी पर बैठे लोग
उसे निष्पक्षता का नाम देकर
उनके पीठ से यह चाबुक खिंचते है
आजकल अंतपुर से
एक नया घिनौना शब्द

न्यूज़ की हेडलाइंस से आखिर इंसानियत तक

घूम रहा है जिसका नाम है
‘दोगली इंसानियत’
जिसे उनके चाटूकार
दिन-रात रट रहे हैं
यह मेजों पर असमय
पसरा रहता है
कभी खाकी वर्दी से
निकलते है चांदी के जूते में
तुम्हारा काम हो जाएगा
आखिर इंसानियत कब काम आयेगी!
फिर सिगरेट का धुआं
नेताओं के तलवों में
आखिर चाटने वाले
इंसानियत कब बचायेंगे
अफसरों के तुनकी रूआब में
न्यूज़ की हेडलाइन से
आखिर इंसानियत के 
नज़ीर कब होंगे!
कर्मचारियों के महत्वाकांक्षाओं में
उनके बच्चों को,
हाईप्रोफाइल में लाना है
बाकी समाज को
तराजू की तौल पर आंकना है
इनके हिस्से की थाती‌ अभी बाकी है
आखिर इंसानियत के लिए
उसने सिस्टम को जोड़ा है
वातानुकूलित कमरे में
तो ठीक है सब सूने
बेवजह गण बन कर
इनके शाश्वत अर्थ की बखेडिया
तब तक मैं आता हूं
एक नये शब्द की नई
परिभाषा लेकर…

विराम

दैहिक और मानसिक
आनंद तो,
हमें कभी-कभी
कान खोदने में भी
मिल जाती है
क्या हम उसे
सार्वभौमिकता का नाम देते हैं?
अगर नही!
तो हमारे लिए आनंद
शब्द ही निर्थक है
हाथ जलने पर 
हाय-हाय करने से अच्छा है
गीली मिट्टी से
उसे त्वरित ठंडक दे
वरना सार्वभौमिकता भी
हमारे लिए नगण्य है
हमारी चेतना की 
सार्वभौमिकता ही
हमारी शांति का दूसरा नाम है!

– राहुलदेव गौतम

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