भक्तिकाल की परिस्थितियाँ

भक्तिकालीन हिंदी साहित्य और तत्कालीन परिस्थितियाँ

हिंदी साहित्य के इतिहास में भातिकाल स्वर्णयुग के नाम से पुकारा जाता हैं . इस काल में भक्ति की पावन धारा प्रवाहित हुई . इस युग के काव्य में युध्य वर्णन के स्थान पर ईश्वर का भजन और नारी – सौन्दर्य के स्थान पर ईश्वर की लीला का गान प्रमुख आकर्षक रहे .आचार्य शुक्ल जी के अनुसार भक्तिकाल की अवधि स.१३७५ वि. से स. १७०० तक हैं . संक्षेप में भक्तिकाल की राजनैतिक ,सामाजिक ,धार्मिक व साहित्यिक परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं – 

१.राजनैतिक परिस्थितियाँ – 

चौदहवीं शताब्दी के अंत तक मुसलमान आक्रमणकारी ने इस देश में अपनी स्थिति भली प्रकार सुदृढ़  कर ली थी . अब वे केवल लुटेरे न रहकर साम्राज्य स्थापना में पर्यंतशील  थे . अपनी बर्बरता से हिन्दू देव मंदिरों एवं धर्म – ग्रंथों के विरोधी बन चुके थे . ब्राह्मणों तथा साधुवों को वे अपनी तलवार की धार उतार दिया करते थे . राजपूतों के अहंकार ,स्वार्थ ने उन्हें आपस में लड़ाकर अत्यंत कमजोर बना दिया था . मुसलमाओं का शासन अब केंद्र में सुदृढ़ रूप धारण कर रहा था . हिन्दू शासक राजा कहलाने में ही अपना गौरव समझ रहे थे . छोटे मोटे हिन्दू राजा मुसलमान राजा के विरुद्ध जाने की क्षमता नहीं रखते थे और केवल वे नाममात्र के राजा थे . मुसलामानों का शासन केंद्र में अपना शक्तिशाली रूप धारण कर रहा था .इस्लामी शासन राजनीति से पीड़ित और लक्षित हिन्दू नैराश्य की इत्स्थ्ती में किसी अजेय शक्ति की तलाश में थे . पूरे देश की  स्थिति काफी सशकित तथा हलचलमयी थी .देश में धर्म की परिस्थिति बड़ी की खतरनाक हो गयी थी .

२. सामाजिक परिस्थितियाँ – 

इस काल का सामाजिक जीवन अत्यंत उथल – पुथल वाला था . समाज मुख्य रूप से हिन्दू और मुसमाओं दो वर्गों में बंटा था . मुसलामानों में शासकीय  मनोवृति थी . वे मजहबी जिहाद में अधें होकर हिन्दुवों पर अंधाधुंध अत्याचार कर रहे थे . हिन्दुवों पर जजिया कर लगाया था .यह उनके हिदू होने का दंड था . इसके विरोध में पराजित हिन्दू मुसलामानों को म्लेच्श्य आदि कहकर अपनी जातीय श्रेष्ठता के कल्पित गर्व की पूर्ति करते थे .पारंपरिक द्वेष ,भेद भाव ,अंध विश्वासों से हिन्दू समाज आक्रांत था . कई मुसलमान शासकों ने राजनितिक चाले चलकर हिन्दू राजों के साथ बेटी – रोटी का सम्बन्ध स्थापित कर लिया था . विलासी मुसलमान शासकं और अधिकारियों से बचाने के लिए हिन्दू नारी समाज में पर्दा प्रथा और सती प्रथा का प्रचालन था . नारी की इस्थ्ती समाज में अत्यंत दयनीय और उपेक्षापूर्ण हो गयी थी .

३.धार्मिक परिस्थितियाँ – 

धर्म की वास्तविक आत्मा समाप्त सी हो गयी थी .धार्मिक क्षेत्र में उन लोगों का प्रभुत्व था जो इस देश के जन जीवन को अशांत बनाकर राहु के समान ग्रसना चाहते थे . धार्मिक दृष्टि से इस काल में दो प्रवृतियाँ प्रमुख थी . एक ओर प्राचीन सिद्धों और नाथों के खान्द्नायक तथा सांप्रदायिक योग मार्ग की प्रधानता थी तो दूसरी ओर ब्राह्मण धर्म के कर्मकांड की . वेड ,कर्मकांड ,पूजा पाठ तथा तीर्थ भ्रमण का विरोध कर रहे थे . संत दोनों प्रकार की अतिवादिता से धर्म और साहित्य को मुक्त करके उन्हें सरल तथा जन सुलभ बनाने के लिए प्रयत्नशील थे .ब्रह्म के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों की उपासना पद्धति प्रचलित थी . सगुण पद्धति में वैष्णव धर्म की प्रधानता थी . उधर सूफी – फकीरों और पीरों ने इस्लाम धर्म का प्रचार शुरू कर दिया था . मुसलमानी शासन बल का संबल पाकर इस्लाम धर्म उत्तर भारत में फलने – फूलने लगा था .हिन्दुवों में अपने धर्म की जो नयी चेतनामयी लहर दौड़ी वह दक्षिण भारत से आई . रामानुज ने सगुण भक्ति का निरूपण किया . उनके शिष्य रामानंद ने रामभक्ति को सुलभ बनाया .

४.साहित्यिक परिस्थितियाँ  –

धार्मिक पद्धतियाँ का इस काल के साहित्य पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है . निर्गुण साधना पद्धति ततः सगुण साधना पद्धति को इस काल के साहित्य में निश्चित किया गया है .हिन्दू कवियों के साथ मुसलमान कवियों ने भी इस साहित्य धारा में भाग लिया और हिंदी में सगुण तथा निर्गुण भक्ति विषयक रचनाएँ की . कुछ कवियों ने पारस्परिक द्वेषभाव , कर्मकांड ,ऊँच – नीच को व्यर्थ माना और दोनों सम्प्रदायों में एकता का प्रयास किया . कुछ ने प्रेम पीर के माध्यम से दोनों सम्प्रदायों को निकट लाने का प्रयास किया और कुछ ने राम कृष्ण के माध्यम से जीवन के सरस मधुर पक्ष का परिचय दिया . इस काल का साहित्य अपनी विविधता तथा अन्य साहित्यिक विशेषताओं के कारण हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाता हैं . 

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