माइग्रेटरी चिड़िया – अपर्णा भटनागर की कविता

इधर हम काफी बदलने लगे हैं –
विचारों के खेमे 
प्रगति 
नया दौर 
और वैश्वीकरण …!
हमारी संस्कृति 
इतिहास 
समाज , नगर , गाँव …
सब ग्लोबल होने लगा है ..
इसलिए हम बोलने लगे हैं 
ग्लोबल भाषा …!
कभी बूढों को बोलते सुना है ?
पोपले मुंह 
फिस से फिसलते अक्षर 
थूक गटकते 
आधे-अधूरे शब्द ,
अर्थ और उनका विन्यास …
 हमारी हिंदी भी बुढ़ा गयी है ..!
और जवान होती ग्लोबल भाषाएँ 
देखने लगी हैं 
इसे हेय दृष्टि से …l 
कभी किसी समारोह में 
जब नयी-पुरानी पीढ़ी जुटती है 
तो नैतिक व्यवहारवश 
हम इसे पूजते हैं 
आशीर्वाद पाते हैं 
पैर छूकर 
हिंदी -दिवस मनाते हैं !
साल में एक बार वृद्धा पाती है 
घर में सम्मान …!
बड़ी भोली है ..
परित्यक्ता नहीं जानती 
इसमें भी छिपा है तिरस्कार !
निपट ग्राम्या है ..
तुम्हारे ड्रोइंगरूम में सजे सामान ..
उनके कंगूरों से अनभिज्ञ ..
अपने छाजले लिए छानती है 
उजले धान -से संगीत भरे रव
बीनती है कुरीतियों के कंकड़ 
और सौंपती है 
पूरा रसोईघर ..
जहां तुम्हारे संस्कारों के पकते हैं 
नित नए भोजन ..!
तुम जानते हो 
ये अन्नपूर्णा तुम्हारी माँ है ..
पर तुम्हें 
इसके ग्राम्या होने की लज्जा है ..
है न !
तुम ढकोसलों से ऊपर 
ऐसे आकाश की ओर बढ़ चले हो 
जहां सीमाएं अनंत हैं ..
और माँ ?
उसकी सीमा …
वह तो तुम तक ही सीमित है !
है न !
शायद तुम इसलिए सीमित धरती से चिढ़ते हो ..
उड़ने की आदत जो हो गयी है !
माइग्रेटरी चिड़िया ..!
शायद लौटोगे फिर इस देश !

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