1905 में बंगाल के विभाजन के बाद, कांग्रेस ने राजनीतिक सुधार की मांग तेज़ कर दी और पूर्ण स्वराज के लिए आवाज़ उठाई 1906 में अंग्रेजी सरकार का प्रोत्साहन पाकर ढाका (बांग्लादेश) में आगा खां के नेतृत्व में मुस्लिमों
ने अपना सांप्रदायिक राजनीतिक संगठन बना लिया। इस संगठन का नामकरण इण्डियन
‘मुस्लिम लीग’ के रूप में हुआ। 1906 में “भारतीय मुसलमानों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए” मुस्लिम लीग की स्थापना की गई.
मुस्लिम लीग के गठन के उद्देश्य
सांप्रदायिक मुसलमानों को उकसाया था। इस संगठन के उद्देश्य निर्धारित किये
गये-
- भारत के मुसलमानों की अंग्रेजी सरकार के प्रति राजभक्ति में वृद्धि करना।
- मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र दिये जाए।
- सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को उचित अनुपात में नियुक्त किया जाये।
- मुस्लिम संस्थाओं की स्थापना में सरकारी अनुदान प्राप्त हो।
- नगरपालिकाओं में सांप्रदायिक निर्वाचन की प्रथा जारी की जाये।
- सुधार के बाद बने विधान मण्डल में उनकी आबादी से अधिक स्थान दिये जाये।
- हर हाईकोर्ट में और चीफकोर्ट में मुसलमान जजो को भी नियुक्त किया जाये।
- मुसलमानों के राजनीतिक व अन्य अधिकारों की रक्षा करना।
इस तरह अंग्रेजो की छात्रछाया में मुस्लिम लीग रूपी वृक्ष दीन पेदीन वृद्धी करता
चला गया। लार्ड मिंटो ने मुसलमानो की मांगो को उचित ठहराया और उनके द्वारा प्रस्तुत
की गई मांगो को यथासंभव मानने का भी वादा किया। मुस्लिम लीग अपनी पृथकतावादी
नीति पर दृढ़ता के साथ अडिग थी। लीग ने अपनी ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी को
बनाये रखा और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रवाह को बाधा पहुंचाने का अपना कार्य जारी रखा।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है, की मुस्लिम लीग कांग्रेस की विरोधी संस्था थी।
1908 में मुस्लिम लीग का अधीवेशन अमृतसर में सर सैयद अली इमाम के सभापतित्व
में हुआ। इसमें मुसलमानों ने अपनी आबादी से अधिक स्थान विधान मण्डलो में दिये जाने की
मांग की 1909 और 1910 में हुये सम्मेलन में भी यह मांगे दोहरायी गयी। लार्ड मिन्टो कांग्रेस
की प्रतिद्वंदी संस्था चाहते थे और उनकी यह कूटनीति सफल हुई, इसी कुटनीति को आगे
बढ़ाते हुए लार्ड मिण्टो ने मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग को मान लिया।
इस तरह इतिहास में पहली बार सांप्रदायिकता को अंग्रेजी सरकार द्वारा खुला समर्थन व
प्रोत्साहन दिया गया।
मुस्लिम लीग फूट
हिन्दु मुस्लिम एकता के मसले पर विचार करने के लिए मार्च 1927 को मुस्लिम
नेताओं ने दिल्ली में एक सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में मुस्लिमों के गहरे
मतभेद सामने आए। ये मतभेद इतने गहरे हो चुके थे कि मुस्लिम लीग दो गुटो में विभाजित
हो गई। एक गुट मि. जन्ना के नेतृत्व में कार्य करने की योजना बनाने लगा। दूसरा गुट
मोहम्मद शफी के नेतृत्व में कार्यों की योजना तैयार करने लगा। दोनों गुट एक दूसरे का
भरसक विरोध कर रहे थे। जहां एक और जिन्ना के गुट ने साइमन कमीशन का विरोध व
नेहरू रिपोर्ट का सहयोग करने का फैसला किया। वही दूसरी और शफी के गुट ने साइमन
कमीशन का सहयोग व नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया।
इस तरह लीग में पड़ी यह फुट जारी रही लेकिन कुछ ही वर्षो में अखिल भारतीय
कोर्ट के मुस्लिम नेता फजल हुसैन अजमल खां, मुहम्मद शफी डाॅ. अन्सारी तथा मोहम्मद
अली परलोक सिधार गये। जिसका भरपुर फायदा जिन्ना ने उठाया अब पुरी तरह से उन्होंने
मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभाल लिया। लंदन से आने के बाद 1928 में जिन्ना ने कलकत्ता
अधिवेशन में भाग लिया और नेहरू रिपोर्ट को संशोधित करने के लिए अपनी और से 3 सुझाव
दिए।
- केन्द्रीय विधानमण्डल में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 1/3 होना चाहिए।
- पंजाब एवं बंगाल में 10 वर्ष के लिए जनसंख्या के आधार पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व की
व्यवस्था की जानी चाहिए। - अवशेष शक्तियां केन्द्र के स्थान पर प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं में अवस्थित होना
चाहिए। चूंकि जिन्ना के सुझाव न्यायसंगत नहीं थे, इसलिए उन्हें स्वीकृत नहीं किया
गया। इससे जिन्ना बहुत आहात हुये और उन्होंने इसे मुस्लिमो का अपमान भी
समझा।