मृगतृष्णा

मृगतृष्णा

शब्दों का जंजाल सा बुनती हूँ
शब्द जरा संभाल कर रखती हूँ
कहने को
अपनी कहानी
अपनी जुबानी
दिल से सुनती
कहे जो ये जिंदगी सयानी
मानूं कभी

शब्दों का जंजाल

कभी करूं मनमानी
सुनूं कभी
कभी कहूं
अपनी ही 
शब्दों से करू अक्सर दोस्ती सी
दिल से देती आवाज खुद को भी
साया मेरा मैं ही
छाया मेरी मैं ही
मैं भी मैं
तू भी मैं
ब्रह्मांड सारा मैं ही
ब्रह्मांड सारा मेरा ही
ये अनंत आकाश मेरा ही
धूप भी मेरी
छांव भी मेरी
नदी भी मेरी
नाव भी मेरी
मैं ही मेरी
मैं ही तेरी
रहूँ जो मैं ही नहीं
तो कहां ये ब्रह्माण्ड है
कहां ये आसमान है ?
कहाँ ये बयान है ?
फिर कहाँ ये संसार है ?
फिर क्या कोई विचार है ?
व्यर्थ ही सारा ये बाजार है
मृगतृष्णा फिर क्यों भरी
संसार की ?
सबकुछ जो मैं ही
सोच जरा राहगीर
सोच जरा माहिर   
 सोच
जरा राहगीर !
               


 -शुभी

You May Also Like