मैकाउ

मैकाउ

प्रिय शेखर ,
जब भी तुम बहुत याद आते हो , मैं तुम्हें पत्र लिखने बैठ जाती हूँ । लेकिन पत्र वह सब पूरा नहीं कर सकते जिसके लिए तुम्हारे साथ की ज़रूरत होती है ।
मैकाउ के रंगों वाले तुम्हारे दस्ताने मिल गए हैं , जिन्हें तुम पिछली बार मेरे यहाँ छोड़ आए थे । इस हफ़्ते एक अतिथि को चिड़ियाघर घुमाने ले गई थी । वहाँ ये रंग-बिरंगे विदेशी तोते देखे जिन्हें ‘ मैकाउ ‘ कहा जाता है । एक बार तुमने बताया था न कि तुम्हें रंग-बिरंगे मैकाउ बहुत अच्छे लगते हैं । मुझे भी ये विदेशी तोते लुभाते हैं । चिड़ियाघर जाने वाले दिन ठंड बहुत थी और मैंने तुम्हारे मैकाउ के रंगों वाले वही दस्ताने पहन रखे थे । तब तुम्हारी बहुत याद आई । सोचती हूँ , मैं भी मैकाउ पक्षी का एक जोड़ा ख़रीद कर पाल लूँ । इसी बहाने तुम्हारी याद हमेशा ताज़ा रहेगी । जब भी तुम्हें मिस करती हूँ , तुम्हारे इन्हीं दस्तानों को अपने पास रख लेती हूँ । लगता है जैसे तुम्हारी ख़ुशबू अपने आस-पास पा रही हूँ ।
—- तुम्हारी नेहा ।
ओ प्रिय ,
जब से तुम यहाँ से गए हो , तुम एक ख़ुमार बन कर मेरे दिलो-दिमाग़ पर छाए हुए हो । तुम्हारी चाहत का नशा है कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा । याद है , पिछली सर्दी की उस रात ब्लोअर चला कर हम सब डबल-बेड के बिस्तरों पर कैसे बैठे हुए थे , कमर तक कम्बल ओढ़ कर । पत्ते खेले जा रहे थे । यार-दोस्तों के साथ । कुछ मित्रों ने कुर्सियाँ खींच ली थीं । कुछ पास में ही मूढ़ों पर बैठे थे । कम्बल के भीतर तुम्हारे पैर मेरे पैरों से प्रेमालाप कर रहे थे । तुम आँखों-ही-आँखों में मुझे पी रहे थे । उस रात सब के जाने के समय तुम सिर-दर्द के बहाने से वहीं मेरे पास रुक गए थे । मेरे लिए रजनीगंधा- सी ख़ुशबूदार वह रात शहद-सी , चाशनी- सी मीठी बन गई थी , खोए-सी , मलाई-सी तृप्ति-दायक बन गई थी । हम एक-दूसरे के भीतर टहलते हुए जैसे एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए कहीं दूर निकल गए थे । हमारे भीतर सैकड़ों सूरजमुखी खिल उठे थे । सैकड़ों सूर्योदय हो गए थे । हमारा मिलन शिखर दुपहरी-सा था , गुलज़ार रात-सा था । इसके बाद जब भी हम मिले , हमने हर बार एक नई भाषा , एक नई लिपि में अपने प्रेम की कथा लिखी । शुक्रिया , उस नैसर्गिक आह्लाद के लिए । शुक्रिया , उस परम सुखद अनुभूति के लिए ।
—- तुम्हारी नेहा ।
मैकाउ

प्रिय शेखर ,

इस बार नवम्बर के महीने में मैं अपनी एक महिला सहकर्मी के साथ नैनीताल गई । पूर्णिमा की रात थी । मैं उसी होटल में रुकी जहाँ सन् 2000 के अक्टूबर की रात हम दोनों ने एक साथ बिताई थी । मैं उन सड़कों पर टहली जहाँ तब तुम्हारा हाथ पकड़ कर चली थी । उन सभी तालों में नौकायन किया जहाँ तब तुम्हारे साथ घूमी थी , और तुम्हें शिद्दत से याद किया । यहाँ मॉल रोड पर घूमते हुए मैंने एक विदेशी लेखक की प्रेम- कथा वाली किताब भी ख़रीदी । जानते हो , उस किताब का क्या नाम है ? ‘ मैकाउ ‘ ! इस बार भी तुम्हारे वो मैकाउ के रंगों वाले दस्ताने मेरे साथ ही थे , मुझे तुम्हारी स्मृति-गंध में सराबोर करते हुए । प्रिय , प्रेम में कितनी कशिश होती है ।
—- तुम्हारी नेहा ।
ओ प्रिय ,
तुम्हारा पत्र मिलते ही जैसे मेरे भीतर-बाहर वसंत आ गया । मेरा मन नाच उठा । चारों ओर रंग-बिरंगे फूल खिल उठे । आकाश में इंद्रधनुष छा गया । मन की बगिया में रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़ने लगीं । बारिश के बाद मिट्टी से उठती सोंधी ख़ुशबू मुझे तुम्हारी देह-गंध-सी लगती रही । मैं जानती हूँ , तुम किसी बंधन के लिए तैयार नहीं हो । लेकिन मन है कि मानता नहीं । विकल हो उठता है तुम्हारे बिना ।
ओ मेरे ऐडोनिस , तुम्हारे साथ बिताए पल मेरे लिए अमूल्य हैं । उन्हें ही सहेजे रहती हूँ ।
—- तुम्हारी नेहा ।
प्यारे शेखर ,
उम्मीद है , तुम ठीक-ठाक होगे । कल रात मैंने एक सपना देखा । सपने में मैं तुम्हारी जीवन-संगिनी थी … मुझे पता है , तुम बंधन में बँध कर नहीं जीना चाहते । लेकिन यदि हमारा प्रेम तुम्हें भी उसी तरह खींचता है जैसे मुझे , तो इस दिशा में सोचने में हर्ज़ ही क्या है ? फिर भी यदि तुम इसके लिए अभी तैयार नहीं हो , तो हम इस रिश्ते को और थोड़ा समय दे सकते हैं । सोचना । आख़िर कभी तो तुम भी अपना परिवार बसाओगे ।
—- तुम्हारी नेहा ।
प्रिय शेखर ,
यक़ीन नहीं हो रहा कि मेरा प्यारा सपना किसी दु:स्वप्न में बदल गया है । कल तक तुम मेरे इतने क़रीब थे कि तुम्हें अपनी बाँहों में भर लेती थी । आज तुम इतने दूर लग रहे हो कि तुम्हारी छवि भी धुँधली लग रही है । क्या चार साल पुरानी हमारे रिश्ते की यह इमारत अब खंडहर में बदल गई है ? अब तो हम रेल की उन दो समानांतर पटरियों की तरह हो गए हैं , जो कभी नहीं मिल पातीं । तुम इस रिश्ते को नाम देने के लिए तैयार नहीं हो । मेरा प्यार भी तुम्हें नहीं मना पाया है । और मैं बिना नाम वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हूँ । ख़ैर । तुम्हारी स्मृतियाँ मेरे साथ रहेंगी ।
—- नेहा ।
प्रिय शेखर ,
कई महीनों के बाद तुम्हारा पत्र मिला है । इस बार बेहद औपचारिक और अजनबी-सा । लगा जैसा मेरा चिर-परिचित प्रियतम खो गया है । क्या मेरा-तुम्हारा नाता किसी कच्ची डोर से बँधा था , जो इतनी आसानी से टूट गया ? हमारा बरसों का प्यार क्या ऐसे ही रीत गया ? जानते हो , इस बीच मैंने एक मैकाउ जोड़ा ख़रीदा था । शुरू में सब कुछ ठीक रहा । लेकिन कुछ हफ़्तों के बाद उस जोड़े में से एक मैकाउ पक्षी न जाने कैसे मर गया । दूसरे मैकाउ पक्षी ने खाना- पीना छोड़ दिया । वह इतना उदास रहने लगा कि मुझसे देखा नहीं गया । मैंने पिंजरा खोल कर उसे आज़ाद कर दिया ।
—- नेहा ।
प्रियवर ,
मुझे अपने जीवन के श्रेष्ठ चार साल देने के लिए शुक्रिया । स्मृतियों में हम सदा साथ रहेंगे । दुआ करती हूँ , तुम एक खुशहाल , भरा-पूरा जीवन बिताओ । यदि तुम दुखी रहे तो मेरे भीतर भी दुख की तरंगें उठती रहेंगी । मेरी ग़लतियों के लिए मुझे माफ़ कर देना । कभी याद आऊँ तो बात कर लेना । आज इन लम्हों में तुम्हारी हर बात बहुत शिद्दत से याद आ रही है । जीवन से जुड़े रहना । यदि हमारे अलगाव के बाद तुम ढह गए तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी ।
—- नेहा ।
आज कुछ ढूँढ़ते हुए बरसों बाद यह पुराना ट्रंक खोला । सामने नेहा की चिट्ठियाँ पड़ी मिल गईं । इतने बरसों तक क्यों सँभाले रखा मैंने इन चिट्ठियों को ? बाहर अँधेरा आकाश के कोने कुतर रहा है । कारख़ाने का भोंपू किसी उदास सिम्फ़नी-सा बज उठा है । एक धूसर अँधेरा खिड़की के रास्ते घुस कर कमरे में बिछता जा रहा है । अब , जब घरवाले ज़बर्दस्ती मेरी शादी करने जा रहे हैं , क्या इन चिट्ठियों को सहेजे रखना उचित होगा ? लेकिन अपने बीते हुए सुखद कल को नष्ट कर देने का मन नहीं बना पाता हूँ । वहीं ट्रंक में ‘ मैकाउ ‘ नाम का वह उपन्यास भी पड़ा है जिसे बरसों पहले नेहा मुझे पढ़ने के लिए दे गई थी और फिर वह मेरे पास ही पड़ा रह गया । मैं नेहा की उन चिट्ठियों को उसके उसी पुराने उपन्यास ‘ मैकाउ’ के पृष्ठों में दबा कर नज़रों से दूर ट्रंक में सबसे नीचे रख देता हूँ । पास ही कहीं से कुत्तों के रोने और झगड़ने की आवाज़ें आ रही हैं । आज की रात मुझे नींद नहीं आएगी । शायद स्मृतियों की महफ़िल में आज रतजगा होगा …

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प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
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