सोच रही हूँ फिर एक बार उड़ान भरूँ

सोच रही हूँ

 
सोच रही हूँ 
फिर एक बार उड़ान भरुँ
बच्चों के लिए दाना ले आऊँ
बच्चों को तो एक दिन 
छोड़  मुझे अकेला दूर बहुत उड़ जाना है
सोच रही हूँ फिर एक बार उड़ान भरूँ

किंतु माँ की ममता, वह वात्सल्य,

नि:स्वार्थ प्रेम किसने पहचाना है ,
मुझे तो अपना फर्ज निभाना है।
क्यों मैं  विचारों के बुने जाल  में
फंसी जा रही हूँ ?
सोच रही हूँ,
फिर एक बार  उड़ान भरुँ।
बच्चों के लिए दाना ले आऊँ
 बच्चों को भी तो आसमान की 
ऊँचाइयांँ चूमना है,
सफलता का नया
आयाम स्थापित करना है,
उन्हें भी तो एक दिन 
नया घोंसला बनाना है।
उनकी सफलता में
ममता को बेड़ियांँ नहीं बनाना है।
क्यों मैं भावनाओं के भँवर में
बही जा रही हूँ ?
यथार्थ में जीना है,
नभ-चर हूँ
जब तक जीवन है
नभ संग साथ निभाना है।
इससे पहले कि
सांझ  बसेरा बना ले
मेरी आस्थाओं का 
सूरज अस्त हो ले
फिर एक बार होंसलों की उड़ान भरुँ,
बच्चों के लिए दाना ले आऊँ।
– प्रभात कुमार “प्रभात’
हापुड़,उत्तर प्रदेश,भारत।
मो.नं. 9927019398

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