कुछ खत मेरे
तुम हर जगह शामिल थी
बस मेरे सच में
तुम नही थी,
लेकिन एक सच यह भी है
मैं जीने के लिए
कभी-कभी खुद को एक
छलावा देता रहा हूँ!
परिदृश्य के अतल तल में
नभ की बूंद
है एक दृश्य में
कदम तेरे तल-तल में!
अधर तेरे कंठ तल में,
चिर क्षुधा रहूँ
हृदय तेरे सम-समतल में!
कठोर मन नेत्रतल
अनुभूतियों की अथाह भूतल
तड़प-तड़प के भून रहा हूँ
जैसे तड़प रहा है शुष्क,सिक्त!
थार-जल,थार-जल,थार-जल में!
मैं एक बार शामिल होना चाहता हूँ
तेरे जुनून में!
जैसे कोई बच्चा
मशरूफ होता है अपने खिलौने में!
तानपूरा के राग में
बहता है मेरे मन का चुप…
तुम नि:शब्द होकर,
इसको एक झनकार दे जाओ!
हमने अभी तक स्वीकारा नही
इसलिए जिंदा है,
जिस दिन स्वीकार लेंगे
उस दिन तुम क्या रह जाओगी?
– राहुलदेव गौतम