भटकन एकांकी शैली रस्तोगी

भटकन एकांकी शैल रस्तोगी

टकन एकांकी शैल रस्तोगी – जीवन के यथार्थ से सीधी मुठभेड़ में विश्वास रखने वाली शैल रस्तोगी जी के एकांकी नाटकों में वर्तमान जीवन के विविध पक्षों को बड़ी मार्मिकता के साथ उजागर किया गया है। आपके एकांकी नाटक समसामयिक घटनाओं में निहित मानवीय पीड़ा को उभारने के साथ ही साथ हमें विचार करने के लिए भी मजबूर करते हैं। 

भटकन एकांकी का सारांश 

भटकन एकांकी में घर का मुखिया दिवाकर अपनी पत्नी कला ,पुत्री नीरू तथा पुत्र मनोज के साथ अपना गुजर बसर करता है। उसके घरेलू कामकाज में हाथ बटाने के लिए रामेसर नाम का एक नौकर भी है। पति पत्नी दिवाकर और कला दोनों नौकरी करते हैं। उनकी पुत्री नीरू कॉलेज में पढ़ती है तथा पंद्रह वर्षीय पुत्र मनुज स्कूल में पढता है। दिवाकर और कला नौकरी के कारण दिनभर घर से बाहर ही रहते हैं ,इसीलिए नीरू और मनुज दोनों घर में काफी अकेलापन का अनुभव करते हैं। यही कारण है कि वे इस अकेलेपन से उबकर अपने जीवन में भटकाव के दौर से गुजरने लगते हैं। नीरू पढ़ाई से अधिक कॉलेज में नाटकों आदि जैसे आयोजनों में रूचि दिखलाने लगती हैं और मनुज साइकिल लिए अपने मित्रों के साथ अपना ज्यादा से ज्यादा समय इधर उधर घूमने में बिताने लगता है। आज एक आर्थिक युग में लोगों की जरूरतें बहुत बढ़ गयी है इसीलिए उन्हें पूरा करने के लिए दिवाकर और कला का घर से बाहर रहना नीरू और मनुज अपनी उपेक्षा समझते हैं। अपने माता – पिता का पढ़ाई के प्रति दिया गया उपदेश उन्हें अच्छा नहीं लगता है। उनको ऐसा लगता है कि उन्हें अपने माता – पिता का न भरपूर स्नेह और न ही उचित मार्गदर्शन मिल पाता है। जब भी उनके माता – पिता उनको पढने के लिए कहते हैं तब वे इसे बुरा मानकर अपने ऊपर अनुचित दबाव व कोरा शासन मानकर उनका विरोध करते हैं। 
इतवार के अखबार में छपी खबर को पढ़कर दिवाकर और कला सन्न रह जाते हैं। दिल्ली के चौदह साल के लड़के ने अपने पिता को इसीलिए शूट कर दिया कि वे उसे पढने को कहते थे। उससे अपना रवैय्या सुधारने को कहते हैं। घर आने पर मनुज अपने पिता को गुम सुम बैठा देख समझ जाता है कि उसके पिता अख़बार की इस खबर को पढ़कर कहीं सकते में तो नहीं आ गए हैं। फिर पिता पुत्र में उस खबर को लेकर चर्चा होती है। उस लड़के की करतूत को मनुज भी ठीक नहीं मानता है। इसी बीच वहां नीरू का भी नाटकीय ढंग से पदार्पण होता है और अपने पिता को सहमें हुए देखकर मनुज से उसका कारण पूछती है। कारण ज्ञात होने पर वह भी अख़बार वाली खबर को कड़ी निंदा करती है। किन्तु मनुज आज के माता – पिता पर कटाक्ष करते हुए कहता है कि आज माता – पिता बच्चों पर केवल शासन करना जानते हैं। वे कदम कदम पर बच्चों के जीवन में हस्तक्षेप करते हैं। बच्चे माता -पिता के आदेशों से इतना बोझ का अनुभव करते हैं कि उनका मन विद्रोह करने लगता है। माता -पिता बच्चों को इतना लताड़ने है कि उनकी झिड़की में उनका संतान प्रेम तिनके की भाँती बह जाता है। भरपूर स्नेह मिले तो बच्चे माता -पिता की डांट फटकार भी सह लें ,पर कोरी झिड़की ने आज ऐसा वातावरण बना दिया है कि बच्चों के मन में हिंसक प्रवृत्ति जन्म लेने लगी है। इसीलिए माता -पिता को समझना चाहिए कि घर केवल चारदीवारी का ही नाम नहीं है। घर प्यार से रचे बसे और ममता से भरे एक परिवेश का नाम भी है। बहन नीरू भाई मनुज के इन तर्कों का समर्थन करती है। 

भटकन एकांकी शैली रस्तोगी
मनुज को इस बात को लेकर काफी रंज है कि उसके माता -पिता को उसके जन्मदिन की याद तक नहीं जबकि उसके मित्रों ने उसे बधाईयाँ दी। वास्तव में यह उसकी ग़लतफ़हमी है। भला ,माता-पिता अपनी संतान का जन्मदिन भुला सकते हैं। तभी तो उसकी माँ कला उसका मनपसंद पुलोवर देती है और पिता उपहार के रूप में उसे एक घड़ी देती है। नीरू भी उसे जन्मदिन की बधाई देती है। इस तरह पुनः घर में आनंद का वातावरण छा जाता है। 

भटकन एकांकी शैल रस्तोगी शीर्षक की सार्थकता 

भटकन एकांकी आज की दिशाहीन और पथभष्ट्र युवा पीढ़ी की मानसिकता को सही रूप में दर्शाता है। गुमराह हो रही इस युवा पीढ़ी की विवशता को कोई समझने के लिए तैयार नहीं हैं। इधर इनके माता-पिता आर्थिक समस्याओं से संघर्ष करने के लिए नौकरी पेशा अपनाने को विवश हो जाते हैं। इससे इनमें और उनकी संतानों के बीच दूरी का बढ़ना स्वाभाविक हो जाता है। परिणाम यह होता है कि स्नेह ,अपनत्व और प्रेम के अभाव में इनकी संतान पढ़ाई लिखाई से हटकर कहीं और ही भटकने लगती है। इन्ही तमाम समस्याओं को प्रस्तुत शीर्षक भटकन – सही ढंग से उजागर करने में सक्षम है। अतः उपयुक्त शीर्षक भटकन शीर्षक की दृष्टि से सर्वथा उचित और सटीक है। 

भटकन एकांकी का उद्देश्य 

लेखिका ने प्रस्तुत एकांकी भटकन के माध्यम से आज की नयी पीढ़ी में बढती अनुशासनहीनता और विद्रोह की प्रवृत्ति को बड़ी कुशलतापूर्वक दर्शाया है। माता-पिता के कामकाज जीवन की व्यस्तता का उनकी संतानों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा  है। वे इसे अपनी उपेक्षा समझते लगे हैं। जबकि उनके माता-पिता आज के मंहगाई के ज़माने में आर्थिक समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए नौकरी पेशा अपनाने को विवश हैं। वर्तमान युवा वर्ग इस यथार्थ को समझ पाने में असमर्थ हैं और वह भटकाव के मार्ग पर चल पड़ा है। यह युवा वर्ग पढ़ाई के महत्व को भुलाकर अन्य प्रवृत्तियों की तरफ उन्मुख हो गया है। माता-पिता की शिक्षाप्रद बातें उन्हें कड़वी व असहनीय लगती हैं। अपनी अनुभवहीनता और अपरिपक्व मानसिकता के कारण अपनी ही सोच को उचित मानते हैं और वे अपने माता-पिता का विरोध करने में भी नहीं हिचकते हैं। स्थिति इतनी बदतर होती जा रही हैं कि ये भटके हुए जवान अब पिता पर गोली चलाने से भी नहीं परहेज करते हैं। इस बिगडती हुई दशा के जिम्मेदार कुछ हद तक माता-पिता भी हैं जो अपनी संतानों का सही मार्गदर्शन समयाभाव के कारण नहीं कर पाते हैं। इसीलिए इस समस्या के समाधान के लिए सर्वप्रथम घर के वातावरण को मधुर तथा स्वस्थ बनाना होगा क्योंकि इस तरह की समस्या का जन्म घर से होता है। 

भटकन एकांकी के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण 

भटकन एकांकी शैल रस्तोगी जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध एकांकी है। यह मध्यवर्गीय जीवन पर आधारित एकांकी है। इसके प्रमुख पात्रों का चित्रण निम्नलिखित है – 

दिवाकर का चरित्र चित्रण 

दिवाकर भटकन एकांकी का प्रमुख पात्र है। कला उसकी पत्नी तथा नीरू और मनुज उनकी संताने हैं। वह अपने दफ्तर के कार्यों में बहुत व्यस्त रहता है। छुट्टी के दिन भी उसे किसी न किसी मीटिंग में जाना पड़ता है। अपनी इसी व्यस्तता के कारण वह अपने बच्चों की तरफ पूरा ध्यान नहीं दे पाता है। वह बहुत ही शांत एवं दयालु स्वभाव का है इसीलिए बच्चों के प्रति अधिक कठोरता दिखाना उसे पसंद नहीं है। वह अपनी पत्नी कला को भी अपने दृष्टिकोण से अवगत कराते हुए कहता है कि अब बच्चों पर सख्ती करने का जमाना लद चुका है ,फिर भी वह नहीं चाहता है कि बच्चे अपनी मर्जी के मालिक बन बैठे। यदि बच्चे माता-पिता के स्नेह के अधिकारी बनना चाहते हैं तो उन्हें उनकी झिडकियां भी सहनी होंगी। उसका यह भी कहना है कि बच्चे यह न भूलें कि माता-पिता की झिडकियां उनकी भलाई के लिए ही होती हैं। वह अपने पुत्र मनुज के जन्मदिन पर उसे नयी घडी का उपहार देकर उसकी सारी शिकायतों को दूर कर देता है। इस प्रकार दिवाकर एक ऐसा पिता है जो अपनी संतानों को चाहता तो बहुत है परन्तु समयाभाव के कारण उनके जीवन को सही दिशा देने में असमर्थ है। 

नीरू का चरित्र चित्रण 

दिवाकर और कला की पुत्री नीरू मनुज की बहन है। वह कॉलेज की छात्रा है। वह पढ़ाई से अधिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों जैसे नाटक आदि में विशेष रूचि रखती है। इसीलिए एक नाटक में वह शोभी की भूमिका का अभिनय कर रही है। उसका विचार है कि कलाकार को अपने अभिनय में इतना रम जाना चाहिए कि जो वह है ,वह न रहकर ,अभिनय के पात्र के रूप में जीने लगे तभी उसके अभिनय में निखार आएगा। वह भी स्वतंत्र विचारों की पक्षधर है। माता-पिता के अनुशासन तथा उपदेश को बहुत हदतक वह भी मानने को तैयार नहीं है। इसीलिए भाई मनुज के जन्मदिन के अवसर पर अपने माता-पिता के खिलाफ दी गयी दलीलों की हाँ में हाँ मिलाती है। किन्तु भाई मनुज के जन्मदिन के अवसर पर अपने माता-पिता के स्नेह को देखकर उनके प्रति उसकी भी शिकायतें दूर हो जाती हैं। 
विडियो के रूप में देखें – 


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