मैं माँ के लिए एक घर बनवाना चाहता हूँ

माँ के लिए

जिन्दगी में हारने और जीतने से पहले
मैं,माँ के लिए एक घर बनवाना चाहता हूँ
जैसे उसने कभी बचाया था मुझे 
धूप,बरसात,जाड़े से! 
उस घर में अब सुरक्षित रह सके, 
धूप,बरसात,जाड़े से माँ! 
मैं माँ के लिए एक घर बनवाना चाहता हूँ

हाँ मैं,माँ के लिए एक घर बनवाना चाहता हूँ

जिसके आंगन में तुलसी के पौधे पर
सुबह-सुबह पूजा करे जल चढ़ाये माँ, 
और कुछ गीत भी गाए माँ, 
जिसे सुनकर हल्की नींद से,  
मैं सुकून से जाग सकूँ माँ! 
मैं,माँ के लिए एक घर बनवाना चाहता हूँ
जिसके हर कोने में माँ के कदमों की
चहल-पहल हो, 
जिसके हर खिड़की से, 
चिड़ियों की चहचहाना,
उनके गीतों को सुन सके माँ, 
जैसे कभी लोरी सुनाया करती थी मुझे माँ! 
मैं,माँ के लिए एक घर बनवाना चाहता हूँ
कि जब भी मैं,
कहीं से घर आऊँ
तो घर के द्वार पर, 
बच्चों को हर शाम, 
किस्से-कहानियां सुनाते हुए मिले माँ! 
मैं,माँ के लिए एक घर बनवाना चाहता हूँ
जिसके आंगन में,
इंतजार में बैठी हुई माँ, 
कभी मुझसे देर से घर आने का कारण पूछे, 
और कभी डांट सके माँ! 
मैं,माँ के लिए एक घर बनवाना चाहता हूँ! 

पल भर की तुम

आज बच्चों ने, 
मेरा ६०वां जन्मदिन दिन मनाया
खुश था सारा दिन! 
रात ढलते बच्चें अपने-अपने
कमरे में दाखिल हो गये थे! 
मैं भी अपने कमरे में आकर
अपना जूता खोलने लगा… 
अचानक! 
मेरे ख्याल में तुम
२९ साल पहले 
हमारी शादी की ७वीं रात को
मेरे मना करने पर भी तुमने
मेरे जूते खोलने के लिए 
पहली बार मेरे कदमों के नीचे देखा था
और तुम्हारे आत्मसम्मान के लिए
मैंने तुम्हें बाहों में भर कर तेरे सिरे को
अपने ह्रदय तक उठाया था, 
तुम्हारे आंखों में निर्मल प्रेम देखा था
मेरे आंखों में अपना सम्मान देख कर
मेरा प्रेम लेकर… 
तुम कितनी विह्वल थी! 
स्मृत हो आये, 
पता नही क्यों मेरी आँखें भर आई!!!! 


– राहुलदेव गौतम 

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