वचनबद्धता

वचनबद्धता

जेल से बाहर आकर वह सोच में पड़ गया कि उसे किस तरफ जाना है। इतने वर्षों में सब कुछ बदल गया था। छोटे-छोटे मकान अब फ्लेटनुमा बहुमंजिलों में बदल चुके थे। सड़क के दोनों किनारों के ऊँचे-ऊँचे शानदार
जेल
जेल

दरख्त नजर नहीं आ रहे थे। ये दरख्त ही तो सड़क की पहचान होते हैं। खैर, सड़क चौड़ी हो गई थी — क्रिकेट की लम्बी ‘पिच’ की तरह दूर तक पसरी हुई। लेकिन उसके दोनों तरफ हरी दूब की जगह कूड़े-कचरे का अंबार-सा लगा था। इस कूड़े पर अपने विशाल पैरों पर खड़े ‘होर्डि़ग’ विकास की करतूतों का बयान करते इतरा रहे थे। उधर सूरज की कड़ी धूप सड़कों पर कब्जा जमाने में खुश हो रही थी।

वह एक जगह बैठकर आराम करना चाहता था। तपती सड़क पर चलने से ज्यादा कष्टप्रद कचरों के ढेर पर चलना लग रहा था। उसे एक ‘बस स्टाप’ नजर आया, पर वह भी सिगरेट के खाली पैकेट और शराब की टूटी बोतलों से सजा था।
हम जिसकी बात कर रहे हैं, वह कैदी था और अब उसका अपना कोई नाम नहीं था। कैदी जब जेल से बाहर होता है तो लुक-छिपकर चलता है। अपना चेहरा छिपाये रखता है। वह किसी से बात नहीं करता। कुत्ते अलबत्ता उसे देख भोंकने लगते हैं। फिर भी वह कैदी खुश दिख रहा था। कभी कभी एक छोटी-सी शुष्क मुस्कान उसकी बढ़ी दाढ़ी-मूछों की झुरमुटों में रेंगती दिख पड़ती थी। शायद जेल के बाहर आकर वह अपनी यादों में कैद था।
उसे वह सुबह याद आती है, जब वह जेलर के आने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था। इतने वर्षों से जेल में रहकर वह जेलर के कदमों की आहट से इतना वाकिफ हो चुका था कि दूर से आती खटपट उसे बता देती थी कि वो आ रहे हैं। सिर्फ एक बार ही वह उनके आने का पता नहीं कर पाया था। वे उसके कमरे के पास से गुजर रहे थे कि कैदी की नजर उनके चमचमाते जूतों पर पड़ी। उसने कहा, ‘हजूर, मैं आज आपके कदमों की आहट नहीं पहचान पाया। आपके जूतों के बंद खुले जो हैं।’
‘हूँ’, कहकर जेलर आगे बढ़ गये। वे किसी भी कैदी के सामने झुकना नहीं चाहते — भले ही जूते के बंद खुले हों। जेलर से सब डरते थे — वे सब जो सलाकों के पीछे कैद थे और वे भी जो कोठी के बाहर ड्यूटी बजाने स्वतंत्र थे। पर उन पर भी कर्तव्य निभाने की बेड़ियाँ भी भारी-भरकम होती हैं। जेल में ड्युटी करना कैदियों के पत्थर तोड़ने जैसा ही कष्टप्रद होता है। कैदी पसीना बहाते थे और गार्ड आँसू पीकर रौब जमाने का उपक्रम करते हैं।
उस सुबह जब जेलर को कमरे के सामने से जाते देखा, तब वह बोल उठा, ‘हजूर’। पर जेलर ने मुड़कर तक नहीं देखा, सिर्फ एक इशारा किया पास खड़े गार्ड की तरफ।
एक घंटे के बाद वह गार्ड कैदी को जेलर के सामने ले आया।
‘हूँ, कुछ कहना है?’ जेलर ने छोटा-सा प्रश्न किया।
‘हजूर, कल रात मैंने एक बुरा सपना देखा था,’ कैदी ने जवाब दिया।
‘पर तुमसे किसने कहा कि जेल में अच्छे सपने भी आते हैं। सजायाफ्ता खूनी हो और ताउम्र की सजा काट रहा हो तो वह अच्छे सपने देख ही नहीं सकता,’ यह कहते हुए जेलर ने एक मधुर मुस्कान का प्रदर्शन किया।
‘सच मानिये साहब, सपना बहुत बुरा था। मेरी माँ अंतिम साँस गिनती हुई दिखी थी।’
‘सपने में माँ का दर्शन कैसा भी शुभ होता है,’ यह कहते समय जैसे उनके अंतः में किसी मधुर याद ने उन्हें गुदगुदा दिया था।
यह सुन कैदी को लगा कि जेलर साहब इतना निर्दयी नहीं है जितना उसने सुन रखा था। वह स्पष्ट बोलता है और स्पष्ट बोलनेवाला कभी बेतुका व्यवहार नहीं करता।
कैदी ने हिम्मत बटोरकर करीबन गिड़गिड़ाते कहा, ‘हजूर, आप मुझे एक बार माँ को देखने की इजाजद दे दें तो बड़ी कृपा होगी।’
यह सुन जेलर एकदम तमतमा उठे, ‘मैं सपने को सच मान लूँ। क्या बेहूदी बात करते हो। जानते हो, तुम्हें उम्रकैद मिली है। क्यों और किसलिये यह भी जानते हो। माँ के प्रति ये स्नेह जताना तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम उम्रकैदी हो। अब तुम मोहमाया से परे जा चुके हो, समझे।’
जेलर के इस रुख ने कैदी को चुप कर दिया। पर चुप्पी गुनहगार को उत्तेजित करनेवाली होती है। उस चुप्पी ने उसके विचारचक्र को उसे भ्रमित-सा कर दिया। कैदी ने शायद तभी कसम खा ली — जेल से फरार होने की। वह अच्छी तरह यह भी जानता था कि अपराध-दर-अपराध करना सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण जोखिम होता है।
उसके पास समय कम था, यह भी अच्छी तरह से जानता था। बैचैनी जब भय के कारण होती है तो साँसे भी थकान महसूस करने लगती हैं — तेजी से थमती न जाने कब वह आखरी साँस बन जावे और क्रूरकाल को आमंत्रित कर जावे।
जेल के बाहर आते ही वह बेतहाशा भागने लगा। वह लगभग भागता ही रहा। सूर्यास्त के बाद एक घड़ी बीत चूकी थी। घनीभूत अन्धकार के साथ झींगुर अपने कर्कश स्वर अलापने की तैयारी कर रहे थे। कैदी जिधर रास्ता मिलता, उधर ही भाग रहा था। अंततः वह कुछ कुछ जाने-पहचाने रास्ते पर आ गया। वह उस घर के सामने भी पहुँच गया जहाँ से उसे गिरफ्तार किया गया था। ऐसी जगह उसका भावुक होना स्वाभाविक था। उसने कंपित ऊँगलियों से दरवाजा खटखटाया। उसे लगा कि उसकी माँ दरवाजा खोलते ही उसे पहचान लेगी और खुशी से झूम उठेगी। पर उम्रकैद से लौटकर कभी कोई नहीं आता है — उम्रकैद वह मौत है जो मृत्यु से पहले आती है और उससे छुटकारा तभी मिलता है जब यमराज का इशारा मिलता है। लोगों का कहना है कि ऐसी मौत लाँधकर आनेवाला भूत होता है और शायद जब माँने दरवाजा खोला तो कमरे से छनकर बाहर आती विद्युत की रोशनी में अपने बेटे को नहीं पहचान पायी थी। तभी तो उसने पूछा, ‘तुम कौन हो? किसलिये आये हो?’
‘माँ देखो, मैं आ गया हूँ,’ उसने किलकते हुए कहा।
‘क्या देखूँ? कुछ दिखता हो तो जवाब दूँ।’
माँ को दिखाई नहीं देता इस कल्पना से कैदी सन्न रह गया, ‘माँ, मैं तुम्हारा बेटा हूँ। जेल से भागकर आया हूँ, सिर्फ तुमसे मिलने।’
‘मुझसे मिलने!’ माँ चिल्लाई, ‘शर्म नहीं आयी यहाँ आकर? तुम हत्यारे हो। जावो, जेल में ही मरो, सड़ो।’
‘माँ, मैं सिर्फ यह बताने आया हूँ कि मैं हत्यारा नहीं हूँ। जो हुआ वह सब कुछ अनजाने में हुआ। कम से कम एक बार तो सुन लो पूरी कहानी।’
‘कहानी! क्लंकित कहानी! माँ की कोख को लज्जित करती कहानी! खून से सनी, घृणा में तिलमिलाती, कपट के कीचड़ में किलबिलाती, क्रुð भुजंग के जहरीले दंश को दर्शाती, एक पिशाची करतूत की कहानी मुझे नहीं सुनना। ऐसी कहानी सुनाकर तू अपने पाप का खौलता तेल इस बूढ़ी-अंधी माँ पर ऊँड़ेलने का विचार लिये यहाँ आया कैसे?’
भूपेन्द्र कुमार दवे
भूपेन्द्र कुमार दवे
माँ की ये कड़वी बात उसे स्तब्ध कर गई। वह चुपचाप खड़ा रहा। मन में विचार खदबदाने लगे। वह पत्थर की तरह मूक खड़ा रहा। पहले तो मन में आया कि माँ सब बता दे। फिर विचारों ने करवट बदली। वह कह न पाया कि
‘‘माँ, मैंने हत्या नहीं की थी। वह इक्तिफाक था। सुनो माँ, उस दिन पिताजी अपने कमरे में पिस्तौल साफ कर रहे थे। मुझे कमरे में आता देख कहने लगे, ‘मैं रिटायरर्ड मेजर रहा हूँ। मैंने जंग देखी है। उसमें भाग लिया है। दुश्मनों की तरफ से गोलियाँ बरसती थी। मैं निडरता से उनका मुकाबला करता था। जंग में हमें सदा कामयाबी मिलती रही। बेटा, याद रखो कि तुम मेजर के बेटे हो। जिन्दगी में कभी किसी से, किसी भी परिस्थति में डरोगे नही। जो डरता है, वह हारता है। कोई कितना भी शक्तिशाली हो, पर एक हार उसे सदा के लिये निकम्मा बना देती है।’ पिताजी यह सब बोलते बोलते जोश में आ गये। फिर यकायक मुस्काते हुए उन्होंने पिस्तौल उठायी और मेरी ओर तान दी। वे उसे चला पाते, उसके पहले मैंने पिस्तौल उनसे छीन ली और उनकी तरफ कर दी। मेरे हाथ कँपने लगे थे। पिताजी सीना ताने खड़े थे। वे हँसते हुए बोले, ‘यूँ ताकता कब तक खड़ा रहेगा? चला गोली।’ फिर वे जोर से हँस पड़े, ‘तू डर गया और हार गया।’
‘‘वैसे स्थिर खड़े रहकर उन्होंने टेबल पर पड़ी कारतूसों की तरफ इशारा किया और कहा, ‘गोलियाँ यहाँ पड़ी हैं। पिस्तौल खाली है। पर तू समझ नहीं पाया। क्या कोई पिता अपने इकलौते प्यारे बेटे पर पिस्तौल तान सकता है और गोली चला सकता है। पर तू डर गया और मुझसे पिस्तौल छीन ली। अभी भी खाली पिस्तौल लिये तेरे हाथ कँप रहे हैं। तू अभी भी डर रहा है। तुझे अपने पिता पर विश्वास नहीं हो रहा। अविश्वासी ही डर करता है। मैं कह रहा हूँ पिस्तौल खाली है। उसे चलाकर देख तेरा डर फुर्र से उड़ जावेगा।’ माँ, पिताजी उस समय मुस्करा रहे थे, जैसे कह रहे हों, ‘बेटा, पिता पर विश्वास करना सीख।’ वे मुझमें विश्वास की परतों को प्रगाढ़ बनाना चाहते थे — मुझे निडर बनाना चाहते थे और अपने निडर होने का सत्यापन करने मैंने पिस्तौल चला दी। गोली उनके सीने में लगी और वे गिर पड़े। ‘पिताजी ऽ ऽ ऽ,’ मैं चीख पड़ा। 
‘‘पिताजी स्वयं अचंभित हो उठे थे। उन्होंने कहा, ‘यह कैसे हो गया? बेटा, पिसतौल खाली थी। देखो टेबल पर पाँचों गोलियाँ रखी हैं, ना।’ मैंने घूमकर देखा और कहा, ‘वहाँ सिर्फ चार गोलियाँ हैं।’ ‘बेटा, मुझसे भूल हो गई। अच्छा हुआ जो तूने मुझसे पिस्तौल छीन ली, वरना …’ अब उनकी जबान लड़खड़ाने लगी थी। मैं उनके पास बैठा था। हिम्मत बटोरकर उन्होंने कहा, ‘बेटा, अपनी माँ को यह सब मत बताना वर्ना वो मुझे दोष देगी कि मैंने उसके लाड़ले बेटे पर पिस्तौल चलाना चाहा था। बेटा, वचन दे कि तू कभी माँ को यह सब नहीं बतायेगा। अब तू यहाँ से भाग जा।’ माँ, पिताजी के ये आखरी शब्द थे। मैं अनाथ हो गया था। मैं सब कुछ खो बैठा था। मैं यंत्रवत् वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
‘‘और तब से अब तक मैं उस वचन से बँधा रहा हूँ। मैं चुप रहा। अदालत में भी मूक बना रहा। मुझे उम्रकैद की सजा दे दी गई। पर माँ, वहाँ तुमसे दूर पड़ा मैं अपने आप को असहाय समझने लगा। मैंने बहुत कोशिश की, पर अकेलापन काटने लगा। तुम्हारी याद मुझे पागल करने लगी। मैं वहाँ से भागकर तुम्हारे पास आया हूँ। मुझे स्वीकार कर लो, माँऽ माँऽ ….’’
‘माँऽ माँऽ ….’ की इस पुकार के साथ ही कैदी की तंत्रा छिन्नभिन्न हो गई। उसने देखा कि सिर्फ यही पुकार उसके मुख से निकलकर दीवारों से टकरा रही थी। माँ ने भी सुना और चीख पड़ी, ‘तू अभी तक गया नहीं। बेशर्म, अभी चला जा यहाँ से।’
कैदी को माँ का आदेश मिला। वह समझ गया कि न्याय जो कहता है, वही सत्य है — वही पत्थर पर लिखा जाता है। न्याय जो कहता है, वही सर्वमान्य होता है — उसके फैसले के विपरीत कोई भी सुनना नहीं चाहता, शायद माँ भी नहीं। वह अब कभी भी अपने को निर्दोष साबित नही कर पावेगा। अतः अपने पिता को दिये वचन का पालन करना ही श्रेष्ठ है और वह बाहर चला गया।
                        

यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैंआपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँबूंद- बूंद आँसू आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैसंपर्क सूत्र  भूपेन्द्र कुमार दवे,  43, सहकार नगररामपुर,जबलपुरम.प्र। मोबाइल न.  09893060419.           

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