शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्व
अ. छात्रों के लिये आवश्यकता एवं महत्व
ब. शिक्षकों के लिये शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्व
स. अभिभावकों के लिये शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्व
शैक्षिक निर्देशन के सिद्धांत
- निर्देशन समस्त छात्रों को उपलब्ध होना चाहिए निर्देशन सेवाएं केवल चयनित विद्यार्थियों को ही प्रदान नहीं करना चाहिए, वरन् ये सेवाएं समस्त छात्रों को उपलब्ध होनी चाहिए, तभी निर्देशन प्रदाता अपने उद्देश्यों में सफल हो सकता है। जिन विद्यालयों में निर्देशन कार्य चल रहा हो, उन विद्यालयों में, निर्देशन सेवाओं को इस प्रकार संगठित किया जाना चाहिए, जिससे कोई भी छात्र वंचित न रह जाए।
- समस्या का समाधान, प्रारम्भ में ही होना चाहिए-यदि किसी विद्यार्थी की, निर्देशन से सम्बद्ध कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो उसकी समस्या का समाधान तत्काल ही कर देना चाहिए, जिससे समस्या का रूप गम्भीर न हो सके।
- प्रमापीकृत परीक्षाओं को प्रयुक्त किया जाए-विद्यार्थियों द्वारा, विद्यालय में प्रवेश लेने पर, उन पर प्रमापीकृत परीक्षाओं का प्रशासन किया जाए। इन प्रमापीकृत परीक्षाओं से प्राप्त परिणामों के आधार पर, विद्यार्थी की किस पाठ्यक्रम में सफलता के बारे में भविष्यवाणी की जा सकेगी। इसके अतिरिक्त आने वाले समयों पर भी यदि इन परीक्षाओं का प्रयोग किया जाए तो उत्तम होगा।
- समुचित एवं सम्बन्धित सूचनाओं का संकलन किया जाए-पर्याप्त मात्रा में समुचित एवं सम्बन्धित सूचनाओं के संकलन के अभाव में, शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करना असंभव है। सफल निर्देशन प्रदान करने के लिए पर्याप्त सूचनाओं को संकलित करना आवश्यक है।
- छात्र का निरन्तर अध्ययन किया जाए निर्देशन कहा तक सफल हुआ है? यह ज्ञात करने के लिए, विद्यार्थी का व्यवसाय में लग जाने के उपरान्त भी उसका सतत् अध्ययन करना अधिक आवश्यक है। अपने व्यवसाय में विद्यार्थी ने सफलता प्राप्त की है अथवा नहीं? इन्हीं बातों से निर्देशन की सफलता अथवा असफलता का ज्ञान हो जाता है। अत: व्यवसाय में लगे हुए छात्रों की सफलता तथा असफलता का अध्ययन करना भी अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है।
- विद्यालय एवं अभिभावकों के मध्य गहन सम्बन्ध स्थापित करना-शैक्षिक निर्देशन का एक अन्य महत्वपूर्ण सिधान्त यह है कि विद्यार्थी के विद्यालय एवं अभिभावकों के मध्य गहन सम्बन्ध स्थापित किया जाए।
शैक्षिक निर्देशन के उद्देश्य
व्यक्ति के शैक्षिक परिवेश एवं उसमें प्राप्त सम्भावनाओं, अपेक्षाओं एवं विशेषताओं से, शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध होता है। आज हमारे देश के विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पाठ्यचर्याओं, पाठ्यक्रमों एवं अधिगम के सामानों का प्रावधान किया है, वह अपनी विभिन्नता की दृष्टि से विशेषता रखती हैं। इसके साथ ही, उनसे लाभ प्राप्त कर सकने वाले विद्यार्थियों की, क्षमताओं, योग्यताओं, प्रवणताओं एवं अभिवृनियों इत्यादि की उपेक्षा को मयान में रखकर भी उनमें भिन्नता दिखलाई देती है।
शिक्षा एक व्यापक प्रक्रिया है। इसके माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है। बालक के व्यवहार में परिवर्तन करने हेतु विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि सभी बालक, सभी दृष्टिकोण से समान नहीं होते, उनमें विभिन्नताए पायी जाती हैं। इसी कारण आज शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता को अधिक अनुभव किया जा रहा है। शैक्षिक निर्देशन के उद्धेश्य प्रतिपादित किए गए हैं-
- विद्यार्थियों को अपनी योग्यता, प्रवणता एवं रूचि के अनुसार पाठ्यक्रमों के चयन में तथा उनके लिए अपेक्षित तैयारी में सहायता करना।
- छात्रों को, राष्टींय एवं राज्य स्तरों पर आयोजित, विभिन्न प्रकार की प्रतियोगी परीक्षाओं हेतु अपेक्षित तत्परता व तैयारी के सम्बन्ध में, आवश्यक सूचनाए प्रदान करना।
- छात्रों को आत्म अनुदेशन की ओर अग्रसरित होने में सहायता देना।
- स्व:अध्यनन की विधियों को प्रयुक्त करने में छात्रों की सहायता करना।
- विद्यार्थियों को अधिकाधिक आत्म-बोध कराना, ताकि वह अपनी क्षमताओं, योग्यताओं, रूचियों तथा न्यूनताओं को जानकर तथा समझकर अपनी आकांक्षाओं के स्तर को यथार्थता के आधार पर निर्धारित कर सके। 6. विद्यार्थियों को विद्यालयों के अन्दर तथा बाहर प्राप्त अधिगम सामानों तथा सम्प्रेषण के माध्यमों के बारे में बोध गम्यता का विकास करना।
- छात्रों के विभिन्न स्तरों पर पाई जाने वाली शिक्षा व्यवस्थाओं, पाठ्यक्रमों एवं विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में जानकारी देना।
- अनेक प्रकार की शिक्षा व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में छात्रों को जानकारी प्रदान करना तथा उनमें उपलब्ध विभिन्न विषयों तथा-वाणिज्य, विज्ञान इत्यादि हेतु आवश्यक राज्य से सम्बन्धित नियमों, सूचनाओं तथा क्षमताओं के सम्बन्ध में छात्रों को जानकारी देना।
- विद्यालय वातावरण से सम्बद्ध कार्यक्षेत्र की यथार्थता एवं विद्यालय के बाहर सामाजिक वातावरण की यथार्थता से सम्बद्ध अपेक्षाओं के ममय समायोजन स्थापित करने में विद्यार्थियों की सहायता करना, जिससे विद्यार्थी के वैयक्तिक जीवन में कम से कम तनाव पैदा हो।
- विद्यालय के नवीन परिवेश से सामंजस्य स्थापित करने, विषयों, पाठ्येनर क्रियाओं, उपयोगी पुस्तकों, हॉबी के चयन करने, अध्यनन की उत्तम आदतों का निर्माण करने भिन्न-भिन्न विषयों में सन्तोषप्रद उ।ति करने, छात्र वृतियों के सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाए प्रदान करने एवं विद्यार्थियों से परस्पर मधुर सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता करना।
- विद्यार्थियों को, नवीन शिक्षा तकनीकी से अधिकाध्कि लाभ उठाने हेतु प्रोत्साहन करना तथा इससे सम्बन्धित परामर्श प्रदान करना।
- छात्रों को, नवीन पाठ्यक्रमों, नवीन शिक्षण-पद्धतियों, नवीन शिक्षा नीतियों एवं अधिगम सामानों के बारे में पर्याप्त एवं आवश्यक सूचनाए प्रदान करना।
- शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को अधिकाधिक प्रभावशाली बनाने हेतु छात्र-नियन्त्रित अनुदेशन, की प्रणाली को अधिकाधिक प्रयोग करने में, सहायक एवं संवेदनशील बनाना।
शैक्षिक निर्देशन के उपरोक्त उद्धेश्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शैक्षिक निर्देशन का मुख्य उद्धेश्य, विद्यार्थियों में अपेक्षित संवेदनशीलता एवं जागरूकता उत्पन्न करना है, जिससे वे उपयुक्त एवं उचित प्रकार के अभिकरणों, संसामानों एवं अधिगम-लक्ष्यों का चयन स्वयं ही कर सके।
शैक्षिक निर्देशन के विशिष्ट कार्य
- विद्यार्थियों की रूचि, क्षमता एवं सामानों के अनुरूप शिक्षा की योजना बनाना और समुचित पाठ्यचर्या तथा पाठ्यक्रमों का चयन करने में विद्यार्थियों को सहायता प्रदान करना।
- वर्तमान विद्यालय स्तर से ।पर तथा पृथक छात्रों की शैक्षिक सम्भावनाओं का ज्ञान करने में विद्यार्थियों की सहायता करना।
- छात्र को शैक्षिक कार्यक्रम में समुचित प्रगति करने में सहायता प्रदान करना।
- शिक्षण-संस्थाओं के कर्मचारियों, प्रशासनिक प्रबन्ध तथा आवश्यक पाठ्यचर्या सम्बन्ध परिवर्तनों हेतु सुझाव देना जिससे विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को उत्तम प्रकार से पूर्ण किया जा सके तथा प्रगति समुचित रूप से हो सके।
शैक्षिक निर्देशन की विशेषताएं
शैक्षिक निर्देशन की इन परिभाषाओं में इसकी विशेषताओं, कार्यों एवं उद्देश्यों का उल्लेख किया गया है। शैक्षिक निर्देशन की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- शैक्षिक निर्देशन विवेकपूर्ण प्रयास है जिससे छात्रों के मानसिक एवं बौद्धिक विकास में सहायता की जाती है।
- वह सभी अनुदेशन, शिक्षण तथा अधिगम की व्रिफयायें जो छात्र के विकास में सहायक होती है शैक्षिक निर्देशन का अंग होती है।
- शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध छात्रों के विद्यालय में समायोजन, अध्यनन विषयों के चयन करने तथा विद्यालय जीवन के कार्यक्रमों में सहायक होता है।
- शैक्षिक निर्देशन के अन्तर्गत छात्रों की योग्यताओं एवं शक्तियों के अनुरूप अधिगम परिस्थितियों की व्यवस्था की जाती है।
- शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध विद्यालय की समस्त व्रिफयाओं पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, अनुदेशन सामग्री, परीक्षा प्रणाली, विद्यालयों का वातावरण आदि सभी, कार्यक्रमों की समस्याओं से होता है।
- शैक्षिक निर्देशन में छात्रों की योग्यताओं, क्षमताओं तथा रूचियों के अनुरूप शिक्षण अधिगम परिस्थितियों की व्यवस्था करना तथा सम्बन्धित समस्याओं का समाधान देना है।
- शैक्षिक निर्देशन में छात्रों को उनकी योग्यताओं की जानकारी दी जाती है। उनकी कठिनाइयों तथा समस्याओं का निदान करके उनके अनुरूप सुधारात्मक अनुदेशन की व्यवस्था की जाती है।
- शैक्षिक निर्देशन का उद्धेश्य छात्र को शैक्षिक कार्यक्रम के चयन में सहायता प्रदान करना जिससे छात्र भावी जीवन में विकास कर सके।
इन परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि शैक्षिक निर्देशन भी छात्र के विकास में सहायक होती है तथा शिक्षा प्रक्रिया का अभिन्न अंग है। शिक्षा सम्बन्धी सभी प्रकार की समस्याओं के समाधान में सहायक होती है।
बू्रअर के अनुसार-शैक्षिक निर्देशन का क्षेत्र तथा क्रियाए इस प्रकार हैं:-
- अध्यनन किस प्रकार किया जाय?
- अधिगम सम्बन्धी सामान्य उपकरणों का प्रयोग केसे करें?
- विद्यालय में नियमित रूप से उपस्थित रहना।
- दिए गए गृह कार्यो तथा अन्य कार्यो को पूरा करना।
- परीक्षा में सम्मिलित होना।
- पुस्तकालय, वाचनालय, प्रयोगशाला का समुचित उपयोग करना।
- साक्षात्कार, बोलना, वाद विवाद प्रतियोगिता में भाग लेना।
- छात्रों की कठिनाइयों का निदान करके, सुधारात्मक शिक्षण तथा अनुदेशन की व्यवस्था करना।
- छात्रों को विषयों के चयन में सहायता प्रदान करना।
विभिन्न स्तरों पर शैक्षिक निर्देशन
शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर किसी न किसी प्रकार की समस्याओं का विद्यार्थियों के समक्ष उपस्थित होना स्वाभाविक है।
यही कारण है कि शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर निर्देशन का महत्व है। जोन्स के अनुसार-निर्देशन सम्पूर्ण शैक्षिक कार्यव्म
का अभिन्न अंग है। सुधारात्मक क्षमताओं की अपेक्षा यह सकारात्मक कार्य के रूप में सेवा करता है और अधिक
प्रभावशाली बनाने के लिए बालक के विद्यालय से प्रथम सम्पर्वफ स्थापित होने से लेकर, जब तक कि वह किसी वृनि
में नियुक्त नहीं हो जाता, निरन्तर एक प्रक्रिया स्तर पर निर्देशन के कार्यों का निर्धारण किया गया है।
1. प्राथमिक स्तर पर निर्देशन
प्राथमिक स्तर के बालकों को अन्य स्तरों की अपेक्षा अधिक एवं सतत् निर्देशन की आवश्यकता होती है। परिवार के
मुक्त वातावरण से पाठशाला का जीवन सर्वथा भिन्न होता है। इस स्तर पर आत्मानुशासन की प्रवृनि का विकास एवं
पर्याप्त बोध गम्यता विकास सहज में ही सम्भव नहीं होता है अत: पग-पग पर बालक के समक्ष आने वाली समस्याओं
का समाधान तथा अधिगम की दिशा में उसकी रूचि को निरन्तर बनाए रखना आवश्यक होता है। यह एक ऐसा स्तर
होता है जब बालक के प्रत्येक व्यवहार एवं प्रत्येक जिज्ञासा का मयान रखा जाना चाहिए। बालकों के प्रति अनपेक्षित
कठोर व्यवहार उनमें स्थायी रूप से भय का संचार कर सकता है। उनके प्रति उपेक्षा का भाव उन्हें अनेक प्रकार के
दुराभ्यासों का प्रतिवूफल प्रभाव पड़ सकता हैं तथा वह कुसमायोजन की प्रवृनि हो सकती है।
छोटी आयु के बालकों को एक नियन्त्रित वातावरण में रखकर अधिगम कराना, उनमें उत्तम आदतों का विकास करना
तथा उनके व्यवहार में अनेक प्रकार के वांछित परिवर्तन करना नि:सन्देह एक कठिन कार्य है, परन्तु यह भी सत्य है
कि इस कठिन उनरदायित्व का प्रत्येक दशा में सतत् पर्यवेक्षण एवं निष्ठाभाव के साथ निर्वाह किया जाना चाहिए।
प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों की भूमिका, इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण होती है। इस स्तर पर निर्देशन प्रदान करने
का कार्यभार भी अधिकांशत: शिक्षकों पर ही होता है। अमयापन के साथ ही निर्देशन व परामर्श का कार्य भी, उसे संयुक्त
रूप से करना होता है। इसके साथ ही निर्देशन प्रदान करने वाले निर्देशन कर्मियों तथा परामर्शदाता का सहयोग भी लिया
जा सकता है।
प्राथमिक स्तर पर निर्देशन का प्रमुख उद्धेश्य, बालकों के व्यक्तित्व का विकास करना, उनमें सामाजिक व्यवहार से
सम्बन्धित कौशलों का विकास करना तथा अधिगम से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान में सहायता पहुचाना होता
है। इन उद्धेश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षक के द्वारा अनेक प्रकार की सहायता सुलभ कराई जाती है। उसे अपनी विद्यार्थियों
के प्रति निरन्तर सचेत एवं सजग रहना पड़ता है। वह संकोची, भयभीत, प्रतिभाशाली एवं झगड़ालू प्रवृनि के बालकों
का पता लगाता है तथा इन कमियों को दूर करने हेतु विभिन्न विधियों का उपयोग करता है। बालकों के अभिभावकों
से भी इस दिशा में, अपेक्षित सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
इस स्तर पर शैक्षिक निर्देशन के कार्य हैं-
- निर्देशन कार्यक्रमो के माध्यम से बालकों में शिक्षा के प्रति रूचि जागृत करना, जिससे वे अपने अध्ययन व्म
को निरन्तर आगे बढ़ा सके। - बालकों को अपने भविष्य से सम्बन्धित शैक्षिक योजना का निर्माण करने में सहायता प्रदान करना।
- प्राथमिक स्तर के बालकों में इस अभिवृनि का विकास करना कि शिक्षा का उनके जीवन में सर्वाधिक
महत्व है। - उच्च माध्यमिक शिक्षा के लिए विद्यार्थियों को तैयार करने हेतु सहायता प्रदान करना।
प्रत्येक विद्यार्थी का बौद्धिक स्तर, रूचि, अभिरुचि एक दूसरे से भिन्न होती हैं। वांछित
अधिगम की दिशा में सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक होता है कि प्रत्येक
विद्यार्थी को उसके अनुरूप विषयों के अध्यनन का अवसर प्राप्त हो।
2. माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर शैक्षिक निर्देशन
इस स्तर पर अपेक्षाकृत अधिक योग्यता वाले निर्देशन प्रदाताओं की आवश्यकता होती है। इसका कारण यह है कि
इन स्तरों का पाठ्यक्रम बहुविधि एवं अधिक विस्तृत होता है। साथ ही नवीं कक्षा में पहुचने से पूर्व विषयों के चयन
की समस्या भी छात्रों के समक्ष उपस्थित होती है। भावी प्रगति के सन्दर्भ में इस समस्या के समाधान का अपना
विशिष्ट महन्व होता है और इस दिशा में निर्देशन ही अधिक उपयोगी होता है क्योंकि प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा
प्रणाली के विपरीत, इस स्तर पर एक साथ कई शिक्षकों को छात्रों की प्रगति से सम्बन्धित उनरदायित्वों का निर्वाह
करना होता है। इसके अतिरिक्त निर्देशन के व्यावसायिक पक्ष पर भी इस स्तर पर बल दिया जाता है, क्योंकि अब
छात्रों में भावी व्यवसाय के सन्दर्भ में भी विचार प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इस स्तर पर निर्देशन कार्यो से सम्बन्धित
प्रमुख क्रियाए हैं-
- विद्यालयी आवश्यकताओं की जानकारी प्रदान करना।
- विद्यार्थियों से सम्बन्धित सूचनाए एकत्र करना।
- छात्रों हेतु, शैक्षिक एवं व्यावसायिक सूचनाओं को एकत्र करना। सामूहिक क्रियाओं का संगठन करना।
- विद्यार्थियों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायता देना।
- छात्रों को परामर्श देना।
3. माध्यमिक शिक्षा के उपरान्त शैक्षिक निर्देशन
शैक्षिक निर्देशन का महत्व प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर ही अधिक होता हैं। इसके उपरान्त अध्यनन
करने वाले विद्यार्थियों की संख्या एवं शैक्षिक समस्याए अपेक्षाकृत कम होती है। अधिगम एवं शैक्षिक सम्बोधित से
सम्बन्धित समस्याओं के समाधान में छात्र स्वयं सक्षम हो चुके होते हैं। उनकी समस्याए वैयक्तिक, सामाजिक एवं
व्यावसायिक पक्ष से अधिक सम्बन्धित होती है, फिर भी भावी अध्यनन के अवसरों अध्यनन केन्द्रों, वांछित पुस्तकों
की सम्बोधित आदि के सन्दर्भ में निर्देशन प्रदान किया जा सकता है।
की होती हैं। जिनको व्यावसायिक निर्देशन के क्षेत्र में रखा जा सकता है और व्यावसायिक निर्देशन सेवाओं के आधार
पर ही इन समस्याओं के समाधान के लिए सहायता प्रदान की जा सकती है।