श्री कृष्ण का सामाजिक क्रांति योद्धा स्वरूप

श्री कृष्ण  का सामाजिक क्रांति योद्धा स्वरूप 

भारतीय परंपरा और जनश्रुति के अनुसार श्री कृष्ण ने ही मार्शल आर्ट का आविष्कार किया था. दरअसल पहले इसे कालारिपयट्टु कहा जाता था. बाद में अगस्त्य मुनि ने इसे आगे बढ़ाया. श्री कृष्ण ने इस विद्या को अपनी सेना नारायणी सेना को भी सिखाया. इसके कारण ये भारत की सबसे भयंकर प्रहारक मानी जाती थी. 
कृष्ण की एक अन्य छवि उभरती है जिसने व्यक्तिगत तौर मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है वह है – सामाजिक क्रांति के योद्धा-नायक के रूप में। जिसने इंद्र की व्यवस्था को चुनौती दी थी।  आख़िर क्रांति का नायक कौन होता है? वही, जिसके पास आदर्श समाज की कोई सुविचारित कल्पना हो और जो सड़ी-गली व्यवस्था को चुनौती देकर उसके स्थान पर नई वैकल्पिक व्यवस्था की नींव रखने की क्षमता रखता हो। तो क्या कृष्ण के पास ऐसी कोई कल्पना थी और ऐसा कोई प्रयास उन्होंने किया था या कि वे भी पुरातन व्यवस्था के ही पोषक संरक्षक या यथास्थितिवादी थे इस सवाल का थोड़ा बहुत जवाब गोवर्धनलीला में मिलता है। इंद्र प्रतीक थे पुरातन धार्मिक व्यवस्था के। वह व्यवस्था बंधी थी यज्ञ-याग और कर्मकांड से। ब्रजभूमि में भी इंद्र की पूजा का रिवाज़ था। माता यशोदा और बाबा नंद भी परंपरा के अनुसार इंद्र की पूजा कर उन्हें भोग लगाना चाहते थे, लेकिन बाल कृष्ण ने उनके ऐसा करने पर ऐतराज़ किया।
श्री कृष्ण का सामाजिक क्रांति योद्धा स्वरूप

वे इंद्र को लगाया जाने वाला भोग ख़ुद खा गए और कहा, देखो माँ, इंद्र सिर्फ़ वास लेता है और मैं तो खाता हूँ। यशोदा और नंद बाबा ने कृष्ण को समझाया कि मेघराज इंद्र अपनी पूजा से प्रसन्न होते हैं… उनकी पूजा करो और उन्हें भोग लगाओ तो वे जल बरसाते हैं और ऐसा न करने पर वे नाराज़ हो जाते हैं। कृष्ण के गले में यह बात नहीं उतरी। उन्होंने आसमानी देवताओं के भरोसे चलने वाली इस व्यवस्था को चुनौती दी। गोपों की आजीविका को इंद्र की राज़ी-नाराज़ी पर निर्भर रहने देने के बजाय उसे उनके अपने ही कर्म के अधीन बताते हुए कृष्ण ने कहा था कि इस सबसे इंद्र का क्या लेना-देना। उन्होंने इंद्र को चढ़ाई जाने वाली पूजा यह कहते हुए गोवर्धन को चढ़ाई थी, हम गोपालक हैं, वनों में घूमते हुए गायों के ज़रिए ही अपनी जीविका चलाते हैं। गो, पर्वत और वन यही हमारे देव हैं। तब  रक्षक-प्रहरी बनकर उभरे थे कृष्ण । आसमानी देवताओं या आधुनिक संदर्भों में यूँ कहें कि शासक वर्ग और स्थापित सामाजिक मान्यताओं से जो टकराए और चुनौती दे उसे बड़ा पराक्रम दिखाने तथा तकलीफें झेलने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। अपनी पूजा बंद होने से नाराज़ इंद्र के कोप के चलते प्रलयंकारी मेघ गरज-गरजकर बरसे थे ब्रज पर। आकाश से वज्र की तरह ब्रजभूमि पर लपकी थीं बिजलियाँ। चप्पा-चप्पा पानी ने लील लिया था और जल प्रलय से त्रस्त हो त्राहिमाम कर उठे थे समूची ब्रज भूमि के गोप। अपने अनुयायियों पर आई इस विपदा की कठिन घड़ी में समर्थ और कुशल क्रांतिकारी की तरह रक्षक-प्रहरी बनकर आगे आए थे कृष्ण। उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से गोपों और गायों की रक्षा की थी। कृष्ण के गोवर्धन धारण करने का एक ही अर्थ है कि जो व्यक्ति स्थापित व्यवस्था को चुनौती दे उसे मुक्त क्षेत्र का रक्षक-प्रहरी भी बनना पड़ता है। ब्रजभूमि के गोपों में इतना साहस कहाँ था कि वे इंद्र को चुनौती देते। किसी भी समाज में स्थापित मान्यताओं और व्यवस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह एकाएक ही नहीं फूट पड़ता। उसके पीछे सामाजिक चेतना और उससे प्रेरित संकल्प के अनेक छोटे-बड़े कृत्य होते हैं। कृष्ण की बाल लीला ऐसे ही कृत्यों से परिपूर्ण थी। नायक के अद्‌भुत साहस और पराक्रम को अलौकिक मानने वाली दृष्टि ने कृष्ण के इस रक्षक रूप को परम पुरुष की योगमाया या अवतार पुरुष के चमत्कार से जोड़ दिया। 

लेकिन ज़्यादा संभावना यही है कि कंस के संगी-साथियों और सेवकों के अत्याचारों से पीड़ित ब्रजवासियों में कृष्ण ने अत्याचारों का प्रतिकार करने की सामर्थ्य जगाई हो। यह सामर्थ्य उपदेशों प्रवचनों से जाग्रत नहीं होती, बल्कि उसके लिए नायक को ख़ुद पराक्रम करते हुए दिखना पड़ता है।
कृष्ण लीला में जिन्हें पूतना, तृणावर्त, बकासुर, अधासुर, धनुकासुर कहकर आसुरी परंपरा से संबद्ध कर दिया गया है, वे सभी किसी न किसी रूप में क्रूरकर्मा कंस की अत्याचारी व्यवस्था से जुड़े हुए थे। वे सभी उस व्यवस्था की रक्षा के लिए और उसके दम पर ही लोगों पर अत्याचार करते थे। ऐसे सभी आततायियों से कृष्ण लड़े और जीते। इससे ही गोप ग्वालों में इतनी जाग्रति आई कि वे देवराज इंद्र को भी चुनौती दे पाए और कंस की अत्याचारी व्यवस्था के विरुद्ध भी संगठित हो सके। क्रांति शास्त्र का सार्वकालिक और सर्वमान्य सिद्धांत है कि साहस का एक काम हज़ारों-हज़ार उपदेशों से ज़्यादा प्रभावी होता है। कृष्ण के नेतृत्व में ब्रजवासियों के पराक्रम की पराकाष्ठा हुई कंस के वध में। लेकिन कंस वध के पीछे कृष्ण का मक़सद उसकी सत्ता पर काबिज होना क़तई नहीं था। 
कृष्ण सत्ताकामी नहीं, क्रांतिकारी थे और यह उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व का ही प्रमाण है कि कंस वध के बाद उन्होंने ख़ुद राजसत्ता नहीं संभाली। महान उद्देश्यों के लिए संघर्षरत व्यक्तियों के लिए सत्ता कभी साध्य नहीं होती और न ही वे सत्ता को किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन का औज़ार मानते हैं । 
– डॉ निरूपमा वर्मा 
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